कितना कुछ जाती हैं
ऊपर चाहे नीरवता हो
भीतर संग्राम मचाती हैं।
जाने कितना द्वंद लिए वो
अपने भीतर रहता है
आती जाती लहरों से भी
ना सुनता ना कहता है।
कभी टूटता है जब भी
तब ही ज्वार उठाती है।
ऊपर चाहे नीरवता हो
भीतर संग्राम मचाती हैं।।
जाने कितनी ही नदियों को
आकर मिलते देखा है
नदियों का मीठा जल हमने
खारा होते देखा है।
शायद नदियाँ सागर से मिल
आँसू की धार बहाती हैं।
ऊपर चाहे नीरवता हो
भीतर संग्राम मचाती हैं।।
नील गगन के छाँव तले
देखो तो नया सवेरा है
क्यूँ सागर की लहरों पर
रातों का दिखे बसेरा है।
तूफान छुपाए भीतर अपने
हमको जीना सिखलाती हैं।
ऊपर चाहे नीरवता हो
भीतर संग्राम मचाती हैं।।
✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
04दिसंबर, 2020
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