कब तक बँधता।
था कभी मुझे कुछ कह जाना।
दरिया हूँ मैं कब तक बँधता
मुझको भी था बह जाना।।
खामोश यहाँ कब तक रहता
कब तक औरों की सहता
कब तक शर्तों पर जीता औ
कब तक ना मन की कहता।
ओढ़ी जो खामोश दिवारें
उनको तो था ढह जाना।
दरिया हूँ मैं कब तक बँधता
मुझको भी था बह जाना।।
कितने ही लम्हों में मैंने
अहसासों के फूल सजाये
पथरीली राहों से मैंने
जाने कितने शूल हटाये।
जब शूल चुभाया दामन में
तब आँसू का था बह जाना।
दरिया हूँ मैं कब तक बँधता
मुझको भी था बह जाना।।
मौन सफर में चला अकेले
इंतज़ार कब तक करता
तुम बिन कोइ नहीं था मेरा
जो मेरे मन की पीड़ा हरता।
छोड़ चले जब मुझे अकेले
मुझको भी तो था जाना ।
दरिया हूँ मैं कब तक बँधता
मुझको भी था बह जाना।।
✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
22दिसंबर, 2020
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