कुछ मालूम नहीं।
निकल पड़ा हूँ राह अकेले
मंजिल क्या मालूम नहीं
जायेगी तकदीर कहाँ तक
कुछ मुझको मालूम नहीं।
कहाँ मिलेगा प्यार न जानूँ
और कहाँ दुत्कार न जानूँ
कहां मिलेगा ठौर ठिकाना
और कहां सत्कार न जानूँ।
धूप मिले राहों में चाहे
या मिले मुझे छांव कहीं
कहीं प्रेम की हों बरसातें
या उजड़ी हो रात कहीं।
पीछे मुड़कर ना देखूंगा
रुसवाई मंजूर नहीं।
आज चला हूँ राह अकेले
मंजिल क्या मालूम नहीं।।
तुम कैसे सब कुछ भूल गए
क्या तुमको कुछ याद नहीं
कैसे याद दिलाऊं तुमको
जाती अब फरियाद नहीं।
जब मेरी बातों का तुमको
साथ यहां मंजूर नहीं।
निकल पड़ा फिर राह अकेले
मंजिल क्या मालूम नहीं।।
कहीं कभी जब याद सताए
खुद से बातें करना तुम
याद दिलाना सारी बातें
खुद कहना खुद सुनना तुम।
विश्वास नहीं तुमको मुझपर
जब मुझसे कोई नेह नहीं।
निकल पड़ा फिर राह अकेले
मंजिल क्या मालूम नहीं।।
तुम्हे मुबारक जीवन सारा
सारी खुशियां औ सौगातें
मेरा क्या है, मैं सह लूंगा
ताने जग के औ आघातें।
फिर से तेरी रुसवाई हो
मुझको अब मंजूर नहीं।
निकल पड़ा फिर राह अकेले
मंजिल क्या मालूम नहीं।।
✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
25अक्टूबर,2020
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