वेदनाओं का समर।



खुद का खुद से संवाद-अंतर्द्वंद

वेदनाओं का समर।  

वेदनाओं के समर में
मौन मैं चुपचाप ठहरा
और मेरे होंठ पर भी
वर्जनाओं का है पहरा।

उस तरफ हैं लोग अपने
द्वंद जिनसे हो रहा है
मोह, माया से ग्रसित हो
मन विकल सा हो रहा है।

आज उनके वार का मैं
कैसे करूंगा सामना
अपमान के प्रतिकार में
मुश्किल है शस्त्र थामना।

सत्य-असत्य के समर में
सब तर्क गुंफित हो चले हैं
अर्थ ही जब प्रश्न बन गए
पर्याय कुंठित हो चले हैं।

इस समर में आज अपनी
तू भूमिका स्वीकार कर
त्याग सारे मौन अपने
बस सत्य खातिर वार कर।

अब कौन किसका है यहाँ
वक्त का न इससे वास्ता
इस समर का पार्थ है तू
चुन अपना खुद तू रास्ता।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय 
     हैदराबाद 
     11नवंबर, 2020

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