मैं हर पल गंभीर रहा।
कदम कदम पर जाने कितने
वारों का मैं पीर सहा
जितना सबने हलका समझा
उतना ही गंभीर रहा।।
सूरज की पहली किरणों सह
मैं रोज सवेरे उठा किया
अपना जीवन जीने से पहले
औरों की खातिर जिया किया।
किया कभी औरों की खातिर
लेकिन कुछ भी नहीं कहा।
जितना सबने हलका समझा
उतना ही गंभीर रहा।।
प्रेम नहीं तो फिर क्या था जो
इक दूजे को परख रहे
बिना कहे दूजे से कुछ भी
मन ही मन मे निरख रहे।
किया उजागर मैंने जब सब
क्या कुछ सबने नहीं कहा।
जितना सबने हलका समझा
उतना ही गंभीर रहा।।
आँसू की कितनी ही बूंदें
पलकों पे आकर सूख गईं
कुछ आँसू को मिला सहारा
औ कुछ दामन से छूट गईं।
छूटे आँसू पलकों से जब
क्या कुछ दिल ने नहीं सहा।
जितना सबने हलका समझा
उतना ही गंभीर रहा।।
क्या कुछ करने की चाहत थी
सब जाने कैसे छूट गया
बहुत सँभाला मैैंने सबसे
बहुत सँभाला मैैंने सबसे
देखा आईना, टूट गया।
घाव सहे मैंने टुकड़ों से
खुद से भी लेकिन नहीं कहा।
जितना सबने हलका समझा
उतना ही गंभीर रहा।।
शायद मैंने उम्मीदों से
ज्यादा का अनुमान किया
रिश्तों को जीने की खातिर
जीवन का अवसान किया।
अपनी शायद भूल यही थी
गुंचे में केवल फूल गुहा।
जितना सबने हलका समझा
उतना ही गंभीर रहा।।
✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
14दिसंबर 2020
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें