पुकार।
भारत माता के हाथों में
जाने कैसी रेखा है
जब भी देखा है इसको
दो-दो भारत देखा है।
चमक-दमक के पीछे इक भागे
दूजी सीधी राह चले
एक चली है दरबारों में
दूजी बस फुटपाथ चले।
कहीं शब्द की गहराई है
और कहीं है हलकापन
कहीं स्वार्थ की परछाईं है
और कहीं है अपनापन।
कहीं विचारों की टकराहट
और कहीं दीवानापन
कभी किसी से प्रेम निखरता
और कभी बेगानापन।
अवसरवादी राजनीति की
पल पल झलक दिखाती है
मुंह में राम बगल में छूरी
फिर भी खुद पर इतराती है।
शहरों के रस्तों ने अकसर
पगडंडी को घेरा है
गांव शहर की ओर चला पर
शहरों ने मुंह फेरा है।
लोकतंत्र के पैमानों पर
वादों के कितने फ़ेरे हैं
सत्ता के आमद की खातिर
जनता पर कितने घेरे हैं।
इक भारत वादा करता है
दूजा उसकी बाट जोहता
एक इशारा करता जब भी
दूजा उसकी थाह टोहता।
एक चले है अपनी धुन में
दूजा पाँव सँभल कर रखता
एक भरा है चकाचौंध से
दूजा राह सँभल कर चलता।
दोनों के इस अंतर को
आखिर कब तक सहना होगा
पगडंडी के सब वादों को
पूरा अब करना होगा।
वरना इस अंतर की खाई
और यहाँ जो बढ़ जाएगी
अपनी ही छवि धूमिल होगी
मान प्रतिष्ठा खो जाएगी।
लोकतंत्र के सरोकार का
मान यहां करना होगा
संविधान की प्रस्तावना का
सम्मान यहां करना होगा।।
✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
03नवंबर, 2020
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