इक कसक।

  इक कसक।

जो गुनगुनाया ना गया
वो राग बन गया हूँ मैं।
जल के भी जो ना बुझी
वो आग बन गया हूँ मैं।।

जिधर भी देखो धुंध का
इक आवरण लिपटा हुआ
दर्द भी नासूर बनकर
अब मौन है, चिपटा हुआ।

अपने ही इस देह में
वनवास बन गया हूँ मैं।
जल के भी जो ना बुझी
वो आग बन गया हूँ मैं।।

सूर्य से पहले सफर में
हर बार मैं तो चल पड़ा
साथ ना आया कोई
था देर तक फिर भी खड़ा।

जिंदगी में इंतज़ार की
पहचान बन गया हूँ मैं।
जल के भी जो ना बुझी
वो आग बन गया हूँ मैं।।

जज्बात की रौ में बह
फिर मौन जब कुछ कह उठा
रिश्ते कुछ ऐसे बुझे
बस थोड़ा सा धुंआ उठा।

बच गए जज्बातों की
राख बन रह गया हूँ मैं।
जल के भी जो ना बुझी
वो आग बन गया हूँ मैं।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       24अक्टूबर
,2020

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