कैसे कहो मनाऊँ मैं।

कैसे कहो मनाऊँ मैं। 

जाने कैसी है हलचल
व्यग्र हो रहा मैं पलपल
किसको व्यथा सुनाऊँ मैं
कैसे कहो मनाऊँ मैं ।।

भाव हृदय में रह रहकर
हलचल नई मचाते हैं
रचता हूँ कुछ और यहाँ
और गीत रच जाते हैं
रूठे शब्दों को बोलो
कैसे आज बुलाऊँ मैँ।
किसको व्यथा सुनाऊँ मैं
कैसे कहो मनाऊँ मैँ।।

अनजाना भय व्याप्त हुआ
किसने जाने किसे छुआ
संवादों पर ताले हैं
उर के फूटे छाले हैं
बाँध सबर का टूट रहा
जीवन जैसे रूठ रहा
टूट रहे सपनों को फिर
कैसे कहो सजाऊँ मैं।
किसको व्यथा सुनाऊँ मैं
कैसे कहो मनाऊँ मैं।।

कदम कदम पर क्रंदन है
मौन हृदय का नंदन है
कितने सपने खोएंगे
पलकें कब तक रोयेंगे
चीखूँ या अरदास करूँ
कैसे और प्रयास करूँ
कैसे दर्द दिखाऊँ मैं
किसको व्यथा सुनाऊँ मैं
कैसे कहो मनाऊँ में।।

जो विलंब है आने में
तो इतना उपकार करो
जहाँ जहाँ तम गहरा है
वहाँ वहाँ उजियार करो
ऐसा दो वरदान मुझे
गीत नया रच जाऊँ मैं
अँधियारे में दीप जला
मधुर रागिनी गाऊँ मैं।
किसको व्यथा सुनाऊँ मैं
कैसे कहो मनाऊँ मैं।।

 ©️✍️अजय कुमार पाण्डेय 
        हैदराबाद

उम्मीद नहीं टूटा करती।।

 उम्मीद नहीं टूटा करती।।

ढीली माना डोर हाथ की आस नहीं टूटा करती
एक हार से जीवन की उम्मीद नहीं टूटा करती।।

माना तेज धूप राहों में दूर-दूर तक छाँव नहीं
मन को थोड़ा चैन मिले ऐसा भी कोई गाँव नहीं
माना छाँव दूर है लेकिन राह नहीं रूठा करती
एक हार से जीवन की उम्मीद नहीं टूटा करती।।

मन पर कितने बोझ भले हों काँधे कब झुक जाते हैं
जिनके सपने उच्च शिखर कब बाधा से घबराते हैं
मन को मन थाह मिले जब चाह नहीं रूठा करती
एक हार से जीवन की उम्मीद नहीं टूटा करती।।

कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता
पलकों के यूँ झुक जाने से सपना नहीं गिरा करता
भले उम्मीदों की राह कठिन साँस नहीं छूटा करती
एक हार से जीवन की उम्मीद नहीं टूटा करती।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27मई, 2023

गीत को सम्मान।

गीत को सम्मान।  

हो समर्पण प्रेम में जब तब मधुरतम गान बनता
तब हृदय में प्रेम पनपे गीत को सम्मान मिलता।।

नैन की जब पुण्य बूँदें इस हृदय की सींचती हैं
प्रेम में अभिभूत होकर जब अधर को भींचती हैं
साँस भी उन्मुक्त होकर जब कह पड़े दिल की लगी
और आहों में हृदय की जब भावनाएं हों जगीं
भावनाओं के समर में नेह को जब मान मिलता
तब हृदय में प्रेम पनपे गीत को सम्मान मिलता।।

बूँद पलकों से उतरकर जब कपोलें चूमती हैं
नैन से बिछड़ी मगर जब मस्त होकर झूमतीं हैं
जब बहे गीतों के संग आँसुओं की धार घुलकर
और कह दे भावनाओं से हृदय के तार मिलकर
जब नयन से गीत छलके आँसुओं को मान मिलता
तब हृदय में प्रेम पनपे गीत को सम्मान मिलता।।

लेखनी जब भी मचलकर गीत लिखती कागजों पर
चाँदनी मन की निखरती सुर सजाती बादलों पर
अर्चना के भाव में मन प्रेम को नव धाम देते
मौन गीतों को सफर में इक नया आयाम देते
पाषाण मन के भाव को जब नया भगवान मिलता
तब हृदय में प्रेम पनपे गीत को सम्मान मिलता।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
        19अप्रैल, 2023

रोते-रोते मुस्काता हूँ।।

रोते-रोते मुस्काता हूँ।।

उर पीड़ा के मौन अंश जो, नयन कोर में रहते प्रतिपल
जो स्थापित मन के भावों को, चुभते बनकर अभिशापित दल
बूँद नयन से चरण पखारूं, मैं आहों को समझाता हूँ
रोते-रोते मुस्काता हूँ।।

साँसों से साँसों का बंधन, है आह-आह का अनुबन्धन
निज हृदय सृजित स्मित भावों का, हिय पीड़ा से कैसा बंधन
आँसू के दो चार कणों से, मैं तप्त हृदय नहलाता हूँ
रोते-रोते मुस्काता हूँ।।

दुर्बल मन के कुछ सपनों का, जाने कैसा ये चढ़ाव है
बिखरे मोती मनके सारे, कैसा मन का ये दुराव है
बिखरे मनके मोती चुनता, मन ही मन को समझाता हूँ
रोते-रोते मुस्काता हूँ।।

कुछ सपनों के मर जाने से, रिश्तों में कैसी परवशता
एक कोख से जन्मे मन में, कैसी लघुता कैसी गुरुता
अंतर्मन के कोर में बसे, पाषाणों को समझाता हूँ
रोते-रोते मुस्काता हूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18अप्रैल, 2023

अंतिम मधु प्याला।।

 अंतिम मधु प्याला।।


गहन सिमटती रात अँधेरी, हाथ लिए अंतिम मधु प्याला
तारों का रथ चाँद सारथी, जीवन अपना है मधुशाला।।

कितने द्वार खड़े पीने को, कितने प्याले तोड़ चुके हैं
कितने मदिरालय में रहकर, जीवन मधुघट फोड़ चुके हैं
प्रथम बूँद की कुछ को चाहत, कुछ अंतिम की बाट जोहते
मधु की लाली में नव जीवन, कुछ को प्यासी राह मोहते
कुछ डूबे मधु के सागर में, और बने कुछ जीवन हाला
गहन सिमटती रात अँधेरी, हाथ लिए अंतिम मधु प्याला।।

दिल से दूर हुए हैं कितने, जीवन मधु सा जीनेवाले
मदिरालय ने कितने देखे, आते-जाते पीने वाले
कितने पीकर मस्त हुए हैं, कितने डूब गए जीवन में
कितने साकी रूठ गए हैं, डूबे कितने सिन्धु नयन में
जब-जब छलकी प्याली मन की, तब-तब नयन बने ख़ुद हाला
गहन सिमटती रात अँधेरी, हाथ लिए अंतिम मधु प्याला।।

कुछ मुस्काये नयनों में घुल, कुछ नयन कोर से ढलक गये
कुछ ने मन को दिया सहारा, अरु कुछ राहों में बहक गये
कुछ राहों में घिरकर भटके, कुछ को भय भ्रम ने आ घेरा
कुछ ने सहज भाव स्वीकारा, जीवन जनम मरण का फेरा
कितने मदिरालय खुद बहके, कितनों ने खुद संशय पाला
गहन सिमटती रात अँधेरी, हाथ लिए अंतिम मधु प्याला।।

कुछ को धूप मिली राहों में, कुछ ने पग-पग पाई छाया
कुछ अभाव में जीवन काटा, कुछ को हाथ मिली बस माया
कुछ बंधन में स्वयं बँधे हैं, कुछ को हालातों ने बांधा
कुछ साधक बन स्वयं सधे हैं, कुछ को अनुपातों ने साधा
कितनी मद की प्याली छलकी, अरु टूटी कितनी मधुशाला
गहन सिमटती रात अँधेरी, हाथ लिए अंतिम मधु प्याला।।

अंतिम बूँद प्रखर कितनी है, समझा किसने काल हलाहल
जिसने कंठ धरा है इसको, पग-पग चलता रहा चलाचल
लेकिन अंतिम बूँद मदिर की, प्यासे मन को भरमाती है
मदिरालय के द्वार पहुँचकर, अंतिम सुख क्या दे पाती है
अंतिम सुख की चाह हृदय में, मधु घट सेज सजाती हाला
गहन सिमटती रात अँधेरी, हाथ लिए अंतिम मधु प्याला।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       15अप्रैल, 2023


आयु तन की घट रही पर चाह मन की बढ़ रही।।

आयु तन की घट रही पर चाह मन की बढ़ रही।।

उम्र का पहिया निरंतर चल रहा रफ्तार से
आयु तन की घट रही पर चाह मन की बढ़ रही।।

बीते कितने ही बसंत और कितनी आस है
अतृप्त मन के भाव की और बाकी प्यास है
पल-पल घट रही दूरियाँ उम्र के अनुपात की
और धूमिल हो रही है तेज प्रतिपल गात की
किंतु मन की भावनाएं गीत नूतन गढ़ रही
आयु तन की घट रही पर चाह मन की बढ़ रही।।

बढ़ रहा दायित्व जब से मौन मन का गान है
उम्र के अनुरोध है ये मत कहो अभिमान है
चल रहे हैं पंथ सारे पर शिथिल चाल माना
अनुभवों की रेख पर है जिंदगी का ताना-बाना
मौन हल्की सी हँसी अब झुर्रियों को ढँक रही
आयु तन की घट रही पर चाह मन की बढ़ रही।।

लिख दिए ग्रन्थ कितने और कितने लिख रहे
चाहतों के पृष्ठ में जा गीत कितने छिप रहे
दूर कितना भी सवेरा दीप लेकिन जल रहा
मौन एकाकी हृदय के अंक को पर खल रहा
आहटें हल्की समय की रेत बनकर झर रहीं
आयु तन की घट रही पर चाह मन की बढ़ रही।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        11अप्रैल, 2023





इतिहास

इतिहास।  

हो सुलगती आग भीतर,मौन रहना क्या उचित है
क्या पता किस पृष्ठ का, इतिहास रह जाये अधूरा।।

चल न पाए पंथ पर जो, आज भी पथ जोहते हैं
इक अधूरी आस लेकर, स्वयं का मन टोहते हैं
जो देखते हैं वीथियों पर, स्वप्न के टुकड़े बिखरते
बस देखते हैं वो सफर में, सूर्य को रथ से उतरते
स्वयं बढ़कर हाथ थामो, हो सके अहसास पूरा
क्या पता किस पृष्ठ का, इतिहास रह जाये अधूरा।।

दूर यदि जाओ कभी तो, पास रखना कुछ निशानी
रिश्तों की डोरी बँधी है, उम्र पर है आनी जानी
बाँध कोई कब सका है, वक्त को पाबंदियों में
और रिश्तों के सफर में, मौन को अभिव्यक्तियों में
कुछ शब्द जो ठहरे अधर पर, कब रहा कोई अछूता
क्या पता किस पृष्ठ का, इतिहास रह जाये अधूरा।।

लिख दिये हैं ढेर सारी, पर है अभी बाकी कहानी
कुछ सुनी है हमने तुमसे, और कुछ अपनी सुनानी
एक मन में भाव कितने, और कितनी यादें पल रही हैं
आज कह दो स्वयं आकर, देख संध्या ढल रही है
इस सांध्य के स्मित पलों में, ना चाँद रह जाये अधूरा
क्या पता किस पृष्ठ का इतिहास रह जाये अधूरा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        10अप्रैल, 2023

भारत।

भारत।  

जल थल नभ में गुंजित है, बस एक ही नाम भारत
स्वर्ण स्वर है, स्वर्ण भाव है, स्वर्ण ब्रह्म विशारद
जल थल नभ.....।।

सत्य सनातन शिव मनभावन, त्रेता, द्वापर, कलयुग
पग-पग कुसमित, पथ-पथ सुषमित जैसे है सतयुग
श्री राम, कृष्ण आदि देव, और कण-कण विश्वनाथ
कालेश्वर, ओंकारेश्वर, त्र्यंबकेश्वर, और केदारनाथ
धर्म संस्कृति श्रद्धा सबुरी, आदि परंपरा वाहक
जल थल नभ में गुंजित है, बस एक ही नाम भारत।।

गंगा, यमुना, कृष्णा, कावेरी, कल-कल आदि गोमती
सस्य-श्यामला, पुण्य धरा को, सूर्य किरण हैं चूमती
जन गण मन विश्वास अडिग है, कण-कण इसका पावन
प्रकृति के सब रंग समाहित, ऋतुएं सब मनभावन
इसकी ओर विश्व की नजरें, ज्यूँ तके वृष्टि को चातक
जल थल नभ में गुंजित है, बस एक ही नाम भारत।।

सुबह आरती शाम वंदना, सब भारत नाम पुकारें
वसुधैव कुटुंबकम का प्रण मन में, प्रति पल यही उचारें
वेद, पुराण, उपनिषद, गीता, हैं ज्ञान ध्यान के दाता
शिक्षा, संस्कृति और सभ्यता, जग कितना कुछ है पाता
विश्व रूप है, विश्व गुरु है, है विश्व शांति का द्योतक
जल थल नभ में गुंजित है, बस एक ही नाम भारत।।

कीर्ति पताका फहराई है, सोई सदियाँ जागीं
भेद-भाव, संताप मिटाया, समस्त वेदना भागी
ज्योति जला कर राष्ट्रवाद का, दिया धर्म को जीवन
सत्य शिवम है सत्य सुंदरम, उल्लासित सब अंतर्मन
शंखनाद है पांचजन्य का, है भारत विश्व उद्धारक
जल थल नभ में गुंजित है, बस एक ही नाम भारत।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       10अप्रैल, 2023

शायरी।

महफ़िल में तेरी कभी यूँ भी आयेंगे
हम न होंगे पर वो लम्हे गुनगुनायेंगे

साथ चल न सके जो जुदा हो गये
मोहब्बत के अब वो खुदा हो गये

रात भर चाँद से बात होती रही
तेरे ख्वाब ने मुझको न सोने दिया

कैसे मानूँ के मैं याद आता नहीं
इन आँखों ने कह दी कहानी सभी

मुझसे नजरें चुरा कर भले चल दिये
बस, आईना देखिएगा जरा सोच के

कुछ है बाकी निशानी मेरे प्यार की
बेसबब आईना तुमने चूमा न होता

रात भर हिचकियों ने सताया मुझे
और कहते हैं मैं याद आता नहीं

याद करना ही मोहब्बत की निशानी नहीं देव
भूल जाना भी मोहब्बत हुआ करती है

भूल जाना किसी को बड़ी बात नहीं है देव
फिर याद न आना बड़ी बात हुआ करती है

कौन कहता है कि अब हम उन्हें याद नहीं हैं
कमबख्त हिचकियाँ आज भी सोने नहीं देती

जिंदगी एक दिन तू भी ये मान लेगी
मेरी शख्शियत क्या है पहचान लेगी

हर पल मंजिलों पे नजर रखता हूँ
ऐ जिंदगी हर रोज सफ़र करता हूँ

खुद ही बोले खुद ही खफा हो गये
और कहते हैं हम बेवफा हो गये

अब तो तन्हाईयाँ भी सताती नहीं
तेरी रुसवाईयाँ रास आने लगीं

जिन्हें मेरी परछाइयाँ भी गँवारा नहीं
उम्र भर दुश्मनी क्या निभायेंगे वो

जीवन के अँधियारे में रोशनी की आस हैं दोस्त,
बेचैनियों में भी इस दिल के सबसे पास हैं दोस्त।
मुश्किल हालात में जब कुछ भी नहीं सूझता दिल को,
आँख का अश्रु, अधरों की हँसी, मौन जज्बात हैं दोस्त।

मन का जीवन।

मन का जीवन।  

आज कसौटी पर कितने ही
कटु शब्द ह्रदय चुभ जाते हैं।
मन को जीने की खातिर हम
कितना मन को समझाते हैं।।

कर सज्ज हृदय के मौन सार
कर परिचय मूल्यों के अपार।
भावों में अनुशाषित जीवन
हर्षित, पुलकित, कुसमित उपवन।।
वर्षित प्रेम भाव रस संचित
हम उद्द्यम करते जाते हैं।
मन को जीने की खातिर हम
कितना मन को समझाते हैं।।

थोड़ा खोना थोड़ा पाना
थोड़ा है थोड़े की जरूरत।
संचित कर सपनों की गागर
पृष्ठ उकेरी कितनी मूरत।।
कितने संचित स्वप्न हृदय के
पग-पग नव आस जगाते हैं।
मन को जीने की खातिर हम
कितना मन को समझाते हैं।।

सुख-दुख जीवन के दो पहलू
एक आता एक जाता है।
हार-जीत की पकड़ से कहो
अब कौन भला बच पाता है।।
आस साँस के द्वार खड़ी जब
खुद से खुद को फुसलाते है।
मन को जीने की खातिर हम
कितना मन को समझाते हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07अप्रैल, 2023


पुण्य पथिक।

पुण्य पथिक।  

जो पुण्य पंथ के राही हैं,
वो आस नहीं छोड़ा करते।
लहरों के चंद थपेड़ों में,
पतवार नहीं छोड़ा करते।।

माना के धुंध घनेरी है,
औ रात अभी गहराई है।
माना के सूरज किरणों पे,
हल्की सी बदली छाई है।
रश्मिरथी, जो पुण्य पंथ के,
व्यवहार नहीं छोड़ा करते।
लहरों के चंद थपेड़ों में,
पतवार नहीं छोड़ा करते।।

जो चले यहाँ बस जीत लिखे,
अवसादों में भी गीत लिखे।
रुँधे कंठ हो चाहे लेकिन,
जब लगे गले, मनमीत लिखे।
रिश्तों के मध्य, भँवर फँसकर,
वो तार नहीं तोड़ा करते।
लहरों के चंद थपेड़ों में,
पतवार नहीं छोड़ा करते।।

कौन विश्व में ऐसा बोलो,
जिसका सर सबसे ऊँचा है।
सीना तान खड़ा पर्वत भी,
आकाश तले तो नीचा है।
जीवन में दंभ किया जिसने,
वो धार नहीं मोड़ा करते।
लहरों के चंद थपेड़ों में,
पतवार नहीं छोड़ा करते।।

इक छोटी सी नदिया हमको,
बस बात यही समझाती है।
कुछ राहों के अवरोधों से,
क्या, डूब कहीं खो जाती है।
बढ़ना जिनकी फितरत में हो,
अटकाव, नहीं तोड़ा करते।
लहरों के चंद थपेड़ों में,
पतवार नहीं छोड़ा करते।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       03अप्रैल, 2023





भाव अंतस के।

भाव अंतस के। 

न जाने क्यूँ वहाँ उम्मीद सारी टूट जाती है
लिखे जब भाव अंतस के कलम आँसू बहाती है।।

खिले जब फूल सपनों के नजारे गुनगुनाते हैं
इशारों ही इशारों में वहाँ अपना बनाते हैं
चमन में फूल, कलियाँ हैं नजारे हैं, बहारें हैं
मगर जब पास जाता हूँ नजारे रूठ जाते हैं
कुछ तो बात है ऐसी के पैहम टूट जाती है
लिखे जब भाव अंतस के कलम आँसू बहाती है।।

लिखे जो गीत थे अपने रचे जो साज थे अपने
सजे जब राग अधरों पर देखे नयनों ने सपने
मगर था दोष किस्मत का कहीं जो रागिनी टूटी
अधूरी ख्वाहिशों के बीच बिछड़े राह में अपने
है कुछ तो बात ऐसी कि तराने भूल जाती है
लिखे जब भाव अंतस के कलम आँसू बहाती है।।

समेटे दर्द गीतों में लिखे मन दीन दुनिया के
लिखे जो चोट मन खाये चुभे जो तीर दुनिया के
नहीं था दोष स्याही का नहीं था दोष पृष्ठों का
अधूरी चाह थी मन की अधूरे भाव दुनिया के 
कुछ तो बात है ऐसी के साँसें रूठ जाती हैं
लिखे जब भाव अंतस के कलम आँसू बहाती है।।

 ©✍️अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
         02अप्रैल,2023

खिड़की वाली सीट।

खिड़की वाली सीट।   

वो सीटी से सब कुछ कहना
वो झंडी का इशारा
यूँ लगा जैसे मुझे
मेरे बचपन ने पुकारा।
वो रेल का सुहाना सफर
और उसकी सुहानी यादें
कभी खत्म न होने वाली
वो प्यारी-प्यारी बातें।
खिड़की वाली सीट की चाहत
धूप में जैसे छाँव सी राहत
वो पेड़ों का दूर से पास आना
फिर तेजी से पीछे छूट जाना
उस एक पल में मन
कुछ खोता कुछ पाता है
न जाने क्या-क्या याद आता है।
वो खिड़की से आती हुई
उम्मीदों के झोंके
गुजरी यादों में ले जाती है
ठहरे हुए पेड़, चलता हुआ सूरज
जीवन का भेद समझाती हैं।
वो पटरियों पर दौड़ती जिंदगी
जिसका कोई छोर नहीं दिखता
खिड़की से तलाशती दो आँखें
सच ही तो है रेल की जिंदगी
आगे बढ़ती है जब 
कोई शोर नहीं दिखता।
हर बार हल्की सी मुस्कान
होठों पे लिए हम आते हैं
और कितने ही सपनों को
हम सपनों से मिलवाते हैं

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       01अप्रैल, 2023

फागुन के रंग।

🙏🌹होली की हार्दिक शुभकामनाएं🌹🙏

फागुन का रंग।

नयनन की भूल भुलइया में
पिय अइसन तुमरे खोय गयी
सुध बुध बिसराय गयी मैं तो
बिन बंधन तुमरी होय गयी।।

रात रात भर जागत हैं 
इन अँखियन में अब नींद नहीं
इक तुमरो संग सुहात इसे
दूजा अब कउनो मीत नहीं।

अंग लगा लो अब तो हमको
रंग में तुमरे खोय गयी।
सुध बुध बिसराय गयी मैं तो
बिन बंधन तुमरी होय गयी।।

यहि फागुन फाग रचो अइसन
मन मोहन मोय श्रृंगार करो
रँग जाऊँ तुमरे रंगन में
मोहे कछु अइसन प्यार करो।

अइसन रंग लगा हिय पर
सब रंगन को मैं खोय गयी
सुध बुध बिसराय गयी मैं तो
बिन बंधन तुमरी होय गयी।।

 ©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28मार्च, 2023

हो संभव साथी बन जाना।।

हो संभव साथी बन जाना।।

और नहीं कुछ चाहूँ तुमसे, मुझपर अहसान यही करना
मेरे मन के मौन सफर में, हो संभव साथी बन जाना।।

शांत अचेतन मन में जब तुम्हारे होने का भान उठे
सांध्य क्षितिज सिमटे आँचल में जब अपनेपन का गान उठे
शब्द सिमट अधरों पर आयें तब उनकी प्रति ध्वनि बन जाना
मेरे मन के मौन सफर में, हो संभव साथी बन जाना।।

सर्द रात जब चंदा सिमटे जब तारों के अरमान जगे
जब साँसों के मद्धम लौ पर अरमानों के मधुमास जगे
तब मेरे एकाकीपन में आकर नव दीप जला जाना
मेरे मन के मौन सफर में, हो संभव साथी बन जाना।।

जब पीड़ा की मौन तपिश में अंतर्मन ये उलझा जाये
मधु स्मृतियाँ जब स्वयं पथिक बन राहों में उलझी जायें
मधु स्मृतियों को पुष्पित कर दे वो नूतन पंथ सजा जाना
मेरे मन के मौन सफर में, हो संभव साथी बन जाना।।

जीवन की गोधूली में जब साँसों की डोरी मद्धम हो
धुँधली-धुँधली बेला में जब रिश्तों की डोरी मद्धम हो
तब रिश्तों की डोर थामना अरु नूतन राह दिखा जाना
मेरे मन के मौन सफर में, हो संभव साथी बन जाना।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27मार्च, 2023

संग-संग जब हम गाएंगे।।

संग-संग जब हम गाएंगे।।

निज सपनों के पुण्य पंथ ये
सुरमित सुरभित हो जाएंगे
संग-संग जब हम गाएंगे।।

बाट जोहती इन पलकों को
सुख सपनों से मैं बाँधूँगा
उर में उपजे भाव सभी जो
गीतों में उनको साधुंगा
बादल की उजली किरणों से
सपने सारे सज जाएंगे।।

दिल ये अब तक रहा उपेक्षित
मन वीणा के मृदु तारों से
रहा अपरिचित जीवन अपना
वीणा के मृदु झंकारों से
गूँजेंगे सब भाव हृदय के
गीत अधर पर सज जाएंगे।।

आशाओं के पंथ सजा कर
अपने सपनों को साजेंगे
चंचल मन के भाव सुनहरे
साथ-साथ में हम साधेंगे
चंदा की किरणों से सजकर
स्वप्न लोक तक हम जाएंगे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27मार्च, 2023


लम्हों का दर्द।

लम्हों का दर्द।  

कुछ शब्द गिरे थे उस दिन शायद क्या तुमको अहसास नहीं
कुछ मुझसे छूटे कुछ तुमसे शायद वो लम्हे अब भी पास वहीं
गिरे वहीं पर सपने शायद जब नींद बहुत ही गहरी थी
दोनों के हाथों से गिरकर एक उम्मीद वहीं कहीं ठहरी थी
शब्दों का क्या है कब बिगड़े और कभी फिर बन जाये
घाव कभी देते हैं गहरे और कभी मलहम बन जाये
जब परदेसी हवा चली मौसम का रुख तब बदल गया
जो वक्त हाथ में ठहरा लगता लम्हों में ही फिसल गया
पलकों में कुछ अश्रु ठहर कर चौखट को यूँ देख रहे
मौन सिसकती आवाजों में अपनेपन को खोज रहे
जाने थी वो कौन घड़ी जब मन से मन का मान गिरा
औरों की बातों में आकर खुद अपना सम्मान गिरा
एक कोख के रिश्तों पर कुछ शब्द किसी के भारी क्यूँ
लम्हों के कुछ दोषों से ये सदियाँ हरदम हारी क्यूँ
उगता सूरज रोज निकलता साँझ ढले छिप जाता है
जाते-जाते जीवन के वो कुछ सीख हमें दे जाता है
रात अँधेरी भले घनेरी लेकिन कितनी देर रही है
खिली किरण जब पुनः भोर की रातें कितनी देर रही हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25मार्च, 2023

जीवन पथ से नाता।

जीवन पथ से नाता।  

सुख के कभी पुष्प खिलते हैं
कभी दुखों के अँधियारे
पथ जीवन का शीतल लगता
कभी लगे ये अंगारे
सुख-दुख जीवन के दो पहलू
इक आता इक जाता है
जीवन कब ये रहा अछूता
इनसे सबका नाता है।।

कभी बिना माँगे मिल जाता
कभी चाहतें दूर हुईं
कभी आस चौखट पर आई
कभी स्वयं ही दूर हुई
कभी खिली उम्मीदें सारी
जिनमें मन हँसता गाता
है शिथिल कभी गतिशील कभी
जीवन यूँ बीता जाता।।

कभी अधर पर गीत सुनहरे
कभी आह के सुर सजते
कभी विरह के गीत सताते
कभी प्रेम के सुर सजते
बिछड़ गया जो कभी मिलेगा
मन खोता, मन फिर पाता
नहीं सफर ये रहा अकेला
इससे सबका है नाता।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25मार्च, 2023




मुक्तक- सलीका, प्रतिकीर्ति

मुक्तक- सलीका, प्रतिकीर्ति

कहूँ कैसे के दर्द-ए-गम यहाँ कैसे भुलाया है
कभी गीतों में गजलों में कभी छंदों में गाया है।
बहुत एहसान उन जख्मों का जिनमें जिंदगी रोई
सलीका जिन्दगी जीने का तब जाकर के आया है।।

बहुत मुश्किल नहीं है कि मैं लहरों से उलझ जाऊँ
लिखूँ मैं भाव खुद के और खुद में ही सुलझ जाऊँ।
है प्रतिकीर्ति, जो गढ़ता हूँ मन के भाव पृष्ठों पे
इशारा हो मचल जाऊँ इशारा हो सँभल जाऊँ।।


©✍️अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
         24 मार्च, 2023

रीत को गिरने न देंगे।।

 रीत को गिरने न देंगे।।

आधुनिकता की लहर में बह चले चाहे किनारे
किन्तु भावों के समर में रीत को गिरने न देंगे।।

मन के भावों को कहे जो शब्द वो प्रवाहमय है
आस का अहसास है वो गान का निर्झर निलय है
तान मुरली की मधुर है रास है संगीत है वो
भावों की अभिव्यक्ति है प्रीत का अनुपम विलय है
शब्द के संसार से अनुगीत को गिरने न देंगे
आज भावों के समर में रीत को गिरने न देंगे।।

पंछियों ने तान देकर गीत का आँगन सजाया
आज ऋतुओं ने मचलकर प्रीत का मधुगीत गाया
वेदनायें मिट गईं सब अवसाद के बादल छँटे
शब्द का सानिध्य पाकर मौन ने मधुमास गाया
मौन मन के भाव से मधुगीत को गिरने न देंगे
आज भावों के समर में रीत को गिरने न देंगे।।

गीत मन के भाव सारे और जीवन आचरण हैं
सत्य हैं सौंदर्य हैं ये संहिता के अवतरण हैं
गीत हैं ये वेद मन के कल्पनाएं उपनिषद हैं
पंक्ति बन जो सज रहे हैं गीत जीवन का वरण हैं
मुक्त हों श्रृंगार चाहें गीत को गिरने न देंगे
आज भावों के समर में रीत को गिरने न देंगे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23मार्च, 2023

गीत हो छंद हो या गजल हो कोई, मिले जब समय गुनगुना लीजिए।।



मन के भाव।

गीत हो छंद हो या गजल हो कोई, मिले जब समय गुनगुना लीजिए
भाव को रोकना जब मुनासिब न हो, भाव मन के अपने बता दीजिए
न रुका है समय न रुकेगा कभी, मन में जो कुछ दबी हो जता दीजिए।।

कहने को बात कितनी है कैसे कहें , कुछ तो सलीका बता दीजिए
आये मन पास कैसे सजन आपके , मुझे अपने दिल का पता दीजिए
हर खता आपकी है स्वीकार अब , नई फिर से कोई खता कीजिए।।

प्रतीक्षा के पल और कब तक रहें , नजर से नजर को छुआ कीजिए
रहें और कब तक अकेले यूँ ही, ले के करवट मुझे अब बता दीजिए
दीदार-ए-दिल जब खता कुछ नहीं , तो दिल को बता कर दुआ कीजिये।।

गीत हो छंद हो या गजल हो कोई, मिले जब समय गुनगुना लीजिए।।

 ©✍️अजय कुमार पाण्डेय 
        हैदराबाद 
        22मार्च, 2023


भावों के गाँव से तू, कुछ पंक्तियाँ उधार ले।।

भावों के गाँव से तू, कुछ पंक्तियाँ उधार ले।।

अपने मन में प्रेम की तू कश्तियाँ उतार ले
चार पल की जिन्दगी है हँस के तू गुजार ले
कौन जाने कंठ में कब शब्द का घट शून्य हो
शब्द के प्रवाह में खुद को पार तू उतार ले
भावों के गाँव से तू, कुछ पंक्तियाँ उधार ले।।

ले आये क्या यहाँ जो छूटने का गम तुम्हें
क्या रहा यहाँ हमेशा टूटने का गम तुम्हें
कौन जाने कब भरे कब अंक जाने शून्य हो
इस शून्य के प्रभाव में खुद स्वयं को विचार ले
भावों के गाँव से तू, कुछ पंक्तियाँ उधार ले।।

कब जाने छोड़ दे कहाँ जिंदगी ये साथ भी
छूट कर बिछड़ न जाये राहों में कहीं कोई
हँस रही है जो नजर न जाने कब वो शून्य हो
मौन मन नहीं रहे फिर साँसों में श्रृंगार ले
भावों के गाँव से तू, कुछ पंक्तियाँ उधार ले।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       21मार्च, 2023

चाँद पकड़ कर ले आता।

चाँद पकड़ कर ले आता।  

यदि ये संभव होता मुझसे चाँद पकड़ कर ले आता।।

काश कभी चंदा के रथ तक मेरे हाथ पहुँच पाते
काश सितारों के आँगन तक मेरे सपने जा पाते
काश पलक कोरों को सुख सपनों से नहला पाता
यदि ये संभव होता मुझसे चाँद पकड़ कर ले आता।।

लिखता मन के गीत सुनहरे भावों को जो सुख देतीं
ऐसे शब्द पिरोता उनमें सारे दुख जो हर लेती
शब्दों के गुलशन से कलियाँ चुनता मन को बहलाता
यदि ये संभव होता मुझसे चाँद पकड़ कर ले आता।।

जुगनू से बातें करता तारों से मैं पंथ सजाता
रात अँधेरी चौखट पर उम्मीदों के दीप जलाता
जिन पलकों के सपने वंचित उन पलकों को सहलाता
यदि ये संभव होता मुझसे चाँद पकड़ कर ले आता।।

दूध भात की एक कटोरी दादी-नानी का आँचल
एक निवाला हाथों से खाने को मन अब भी पागल
तुतलाती बोली जब सुनता तारों का मन ललचाता
यदि ये संभव होता मुझसे चाँद पकड़ कर ले आता।।

इक-इक पल से मोती चुनता गुहता यादों की माला
रखता उनको कहीं छुपाकर मन के बीच बना आला
सपने नयन द्वार जब आते माला उनको पहनाता
यदि ये संभव होता मुझसे चाँद पकड़ कर ले आता।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       15मार्च, 2023

अर्पित करने आया हूँ।

अर्पित करने आया हूँ।  

शब्दों के गुलशन से चुनकर कोमल कलियाँ लाया हूँ
गीतों में कुछ पुष्प सजाकर अर्पित करने आया हूँ।।

नहीं पास है सोना चाँदी धन दौलत की चाह नहीं
कल क्या होगा किसने जाना मुझको भी परवाह नहीं
वर्तमान से मिला मुझे जो पूजित करने आया हूँ
गीतों में कुछ पुष्प सजाकर अर्पित करने आया हूँ।।

दुनियादारी बोध नहीं है बीते का अफसोस नहीं
अच्छे का नतमस्तक हूँ मैं बुरा किसी का दोष नहीं
जग से कितना कुछ पाया है अर्हित करने आया हूँ
गीतों में कुछ पुष्प सजाकर अर्पित करने आया हूँ।।

लिखे गीत जो मन को भाये जिसने पग-पग बहलाया
पीड़ा के आवेगों में भी जिसने मन को सहलाया
उन्हीं पँक्ति के आदर्शों को अर्चित करने आया हूँ
गीतों में कुछ पुष्प सजाकर अर्पित करने आया हूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15मार्च, 2023

कुछ नूतन कर जाओ।

कुछ नूतन कर जाओ।  

रीत पुरानी बहुत हुई नई रीत के पंथ बनाओ
युग नई दिशाएं पाये ऐसा कुछ नूतन कर जाओ।।

मिले प्रेरणा इस जग को पुण्य पंथ की ओर चरण हो
मुक्त हृदय, भाव प्रवण हो नव गीतों का आज वरण हो
जीवन के सब पंथ सजे काँटों में भी पुष्प खिलाओ
युग नई दिशाएं पाये ऐसा कुछ नूतन कर जाओ।।

बीता पीछे छूट गया आने वाला वक्त नया है
हर युग की नई कहानी पीछे बोलो कौन गया है
नई कहानी नए राग में इस जग को आज सुनाओ
युग नई दिशाएं पाये ऐसा कुछ नूतन कर जाओ।।

अज्ञानी का तर्क सर्वदा अंतस को दुख देता है
तर्क ज्ञान का मिले जहाँ पर भावों को सुख देता है
ज्ञान श्रेष्ठ संपत्ति जगत में अपने गीतों में गाओ
युग नई दिशाएं पाये ऐसा कुछ नूतन कर जाओ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15मार्च, 2023

पंखुरी गुलाब की सुन तो क्या कह रही।।

पंखुरी गुलाब की सुन तो क्या कह रही।।

प्रेम की छुअन है या गीत कोई गा रहा
मौन मन के भाव को राग में सुना रहा
खिलखिला उठे सभी भाव आज प्यार के
पल विरह के बने भाव अब श्रृंगार के
चाहतों की बात कुछ सुन जरा कह रही
पंखुरी गुलाब की सुन तो क्या कह रही।।

चाँदनी की रश्मियाँ देखो गुनगुना रहीं
जो रुकी बात थी पल में सब सुना रही
रात ने भी रागिनी को मधुर साज दी
तारों ने जुगनू में रश्मियाँ साज दी
रात की रश्मियाँ सुन जरा कुछ कह रहीं
पंखुरी गुलाब की सुन तो क्या कह रही।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14मार्च, 2023

मन की बातें।

 मन की बातें।  

आदि गोमती तट पर जन्मा गंगा तट पर पला बढ़ा
पृष्ठों पर कुछ भाव सजा अपने मन की कह लेता हूँ।।

मर्यादा की खड़ी लकीरें मेरे मन को भाती हैं
अवध धाम की सोंधी खुशबू छन-छन जिनसे आती है
आदि संस्कृति का मैं पूजक नीति धर्म का पालक हूँ
माँ गंगा की गोद पल रहा मैं नन्हा सा बालक हूँ।।

अवध निवासी भक्त राम का हँसता हूँ कह लेता हूँ
पृष्ठों पर कुछ भाव सजा अपने मन की कह लेता हूँ।।

काशी की गलियों में बीता बचपन यौवन यहीं खिला
शिक्षा संस्कृति और सभ्यता संस्कारों का संग मिला
जिसने दिया ज्ञान को जीवन जिसकी माटी है चंदन
देव, दैत्य औ गन्धर्वों की वाणी में जिसका वंदन।।

उसी सभ्यता नगरी की धूल माथ मैं रख लेता हूँ
पृष्ठों पर कुछ भाव सजा अपने मन की कह लेता हूँ।।

लिखे भाव जो मन को भाए जिसने मन को मान दिया
कंटक हो या पुष्प पंथ के सबको है सम्मान दिया
नहीं चाहता हूँ जग से केवल अपने मन की पाऊँ
लिखूँ भाव सब जन मानस के गीतों में उसको गाऊँ।।

शब्दों के कुछ पुष्प उठा श्रेष्ठ चरण में रख देता हूँ
पृष्ठों पर कुछ भाव सजा अपने मन की कह लेता हूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13मार्च, 2023

होली-जोगीरा सारा रा रा.. ।।

जोगीरा सारा रा रा.. ।।

दूर देश में जाइके करें देश के बात
राहुल जी के देश में देत न केहू साथ
जोगीरा सारा रा रा...।।

भारत जोड़न को चले लिए हाथ में हाथ
लेकिन उपचुनाव में मिलल ने केहू साथ
जोगीरा सारा रा रा..।।

माया चुप है, राहुल बोलें, लालू जी हैं दंग
बाबा जी के राज में न मिला किसी का संग
जोगीरा सारा रा रा..।।

दिल्ली की कुर्सी मिले मची हुई है जंग
सबके अपने स्वार्थ हैं आये न कोई संग
जोगीरा सारा रा रा...।।

ममता दंग बंगाल में यूपी में अखिलेश
आएं कैसे साथ में सबक मन में क्लेश
जोगीरा सारा रा रा...।।

होली के त्यौहार की मची हुई हुड़दंग
नेता जी को देख कर शर्माए खुद व्यंग्य
जोगीरा सारा रा रा..।।

बाबा जी के राज में हुआ विपक्ष नाकाम
भगवा रंग सब पर चढ़ा बोलो जय श्री राम
जोगीरा सारा रा रा..।।

खिला कमल चहुँओर है आया भारत संग
पंजा, झाड़ू, साइकिल, सबकी हालत तंग
जोगीरा सारा रा रा..।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय

इस बार करो कुछ होली में।

इस बार करो कुछ होली में।  

मन को मन की चाह जगे इस बार करो कुछ होली में
टूटे मन के तार जुड़ें इस बार करो कुछ होली में।।

नयनों में सूनापन लेकर दूर कहाँ तक जाओगे
खुद से जितना दूर चलोगे उतना खुद को पाओगे
खुद से खुद ही मिल जाये इस बार करो कुछ होली में
टूटे मन के तार जुड़ें इस बार करो कुछ होली में।।

ऊंच नीच का भेद रहे न मन में कोई खेद रहे न
मन से मन यूँ मिल जाये फिर कोई मनभेद रहे न
मन से मन का मेल मिले इस बार करो कुछ होली में
टूटे मन के तार जुड़ें इस बार करो कुछ होली में।।

टूटी सरगम जुड़ जाये बिखरे सारे साज मिला दो
दूर ठहरती आवाजों में फिर अपनी आवाज मिला दो
नहीं अकेला रहे हृदय इस बार करो कुछ होली में
टूटे मन के तार जुड़ें इस बार करो कुछ होली में।।

झूठे वादे झूठी कसमें झूठी शानो शौकत बस
झूठे भाषण झूठे राशन जन गण मन से घातें बस
टूटे भरम जाल सारे इस बार करो कुछ होली में
टूटे मन के तार जुड़ें इस बार करो कुछ होली में।।

कितनी दूर अभी तक आये कितनी दूर अभी जाना
कहीं ख्वाहिशों के मेले औ सपनों का ताना-बाना
पलकों पे फिर स्वप्न सजे इस बार करो कुछ होली में
टूटे मन के तार जुड़ें इस बार करो कुछ होली में।।

गीत गजल कवितायें कितनी कितने लिखे  छंद दोहे
सतरंगी जब भाव हृदय के पंक्ति-पंक्ति मन को मोहे
मन के सब अवसाद मिटे इस बार करो कुछ होली में
टूटे मन के तार जुड़ें इस बार करो कुछ होली में।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08मार्च, 2023

मुक्तक।



यहाँ हर बार जीवन ने लिखी सबकी कहानी है।
किसी की याद में ठहरी किसी की मय जुबानी है।।
लिखे कुछ भाव जीवन ने मेरे हिस्से में ऐसे।
कि बन कर गीत कुछ छाये कुछ आंखों का पानी है।।

किसी से है नहीं शिकवा नहीं कोई शिकायत है।
जमाने की यही शायद पुरानी ही रवायत है।।
भरोसा हो जहाँ ज्यादा वहीं पर दर्द ज्यादा है।
कि कुछ तो बात है ऐसी सभी में ये अदावत है।।

मैं क्या करूँगा।

मैं क्या करूँगा।   

है मिला जग से बहुत कुछ
प्यार भी सत्कार भी
और शब्दों से खिला है
गीत का संसार भी
पर गीत जो गा न पाए
गीत का क्या करूँगा
तुम हमारे हो न पाए
जग मिले क्या करूँगा।।

हैं लोग कहते शब्द में
है छुपा संसार भी
भाव जिस हिय में बसा हो
है वहीं पर प्यार भी
जक हृदय के भाव शंकित
मैं वहाँ क्या करूँगा
तुम हमारे हो न पाए
जग मिले क्या करूँगा।।

वक्त की पाबंदियों से
तुम घिरे हम भी घिरे
वक्त के आगोश से ये
पल न जाने कब गिरे
लम्हा छूटा हाथों से
शोक कर क्या करूँगा
तुम हमारे हो न पाए
जग मिले क्या करूँगा।।

है कहीं कुछ रोकता है
नैन के मृदु कोर को
गिर न जाये मौन होकर
बूँद बंधन तोड़ कर
आस में जब तक रहोगे
मैं न साँसें तजूँगा
दूर पर तुमसे हुआ तो
जग मिले क्या करूँगा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद

कैसे कह दूँ मन को अब भी चाह नहीं है।

कैसे कह दूँ मन को अब भी चाह नहीं है।  

दूर हुए थे जिन गलियों से उन गलियों ने पुनः पुकारा
कैसे कह दूँ उन राहों को अब भी मन की चाह नहीं है।।

कहने को कितनी ही बातें
पलकों में अलसाई रातें
अधरों की मृदु पाँखुरियों पे
मृदुल हास्य की वो सौगातें
रक्त कपोलों के डिम्पल में दिल कल डूबा अब भी हारा
कैसे कह दूँ उन सपनों की अब भी मन को चाह नहीं है।।

दूर क्षितिज पर मन का मिलना
कदम मिलाकर पग-पग चलना
कहना सुनना कितनी बातें
फिर कहने को और मचलना
दूर गगन की छाँव तले जब सांध्य-निशा का पंथ बुहारा
कैसे कह दूँ पुनर्मिलन की अब भी मन को चाह नहीं है।।

वीथी पे कुछ याद पुरानी
भूली बिसरी एक कहानी
कुछ साँसों में बसे अभी तक
और बहे कुछ बन कर पानी
कहीं दूर अंतर्मन पिघला यादों ने है पुनः पुकारा
कैसे कह दूँ उन यादों की अब भी मन को चाह नहीं है।।

वहीं दूर पर भोर सुहानी
खुशियों का अंबार लिए है
रातों की सिलवट की खातिर
पुष्पच्छादित हार लिए है
उसी भाव के अपनेपन ने मधु गीतों को दिया सहारा
कैसे कह दूँ उन गीतों की अब भी मन को चाह नहीं है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02मार्च, 2023

है नमन उस पंथ को जिस पंथ सेनानी चले।

है नमन उस पंथ को जिस पंथ सेनानी चले।।

भेंट कर अपनी जवानी उम्र को जीवन दिया,
पुष्प राहों में बिछा कर कंटकों को चुन लिया।
है हमें जिसने दिखाया भोर की पहली किरण,
अंक में जिसने हमारे हैं भरे सुंदर सुमन।

है नमन उस पंथ को जिस पंथ बलिदानी चले,
है नमन उस पंथ को जिस पंथ सेनानी चले।  

हैं सँवारे स्वप्न जिसने हर सिसकती आह में,
और तन को है सँवारा हर दहकती आग में।
जिनके जज्बों ने दिखाया दर्द को भी रास्ता,
जिनके मन में राष्ट्र से बस प्रेम का था वास्ता।

है नमन उस अंक को जिस अंक बलिदानी पले,
है नमन उस पंथ को जिस पंथ सेनानी चले।  

जिसने मृत्यू से सदा पूछा क्या उसका पता,
मृत्यू खुद सम्मुख रही जिसके नतमस्तक सदा।
दौड़ता जिनकी नसों में राष्ट्र का अभिमान था,
और जिनके नैन में नव स्वप्न का निर्माण था।

है नमन उस पंथ को जिस पंथ अभिमानी चले,
है नमन उस पंथ को जिस पंथ सेनानी चले।  

है दिया जिसने हमेशा मंत्र केवल जीत का,
राष्ट्र को जिसने सिखाया मंत्र सबसे प्रीत का।
साँस में जिनकी हमेशा राष्ट्र का गुणगान था,
राष्ट्र ही अभिमान था बस राष्ट्र ही सम्मान था।

है नमन उस पंथ को जिस पंथ सम्मानी चले,
है नमन उस पंथ को जिस पंथ सेनानी चले।  

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28फरवरी, 2023
 

कुछ जीवन के गीत लिखे हैं।।

कुछ जीवन के गीत लिखे हैं।


जीवन के कुछ प्रतिमानों के नए-नए नित अनुमानों के
मैंने भी नवरीत लिखे हैं कुछ जीवन के गीत लिखे हैं।।

कुछ में मन के मीत लिखे हैं
कुछ में मन क्यूँ हुए पराए
कुछ में छूटा संग किसी का
कुछ में मन ने जो अपनाए
जीवन में कुछ व्यवधानों के नए-नए नित प्रतिमानों के
मैंने भी नवरीत लिखे हैं कुछ जीवन के गीत लिखे हैं।।

सावन में बूँदों को गाया
पतझड़ में पातों को हमने
कुछ में है खुशियों को गाया 
तो कुछ में घातों को हमने
कभी मिले कुछ अपमानों के और कभी कुछ सम्मानों के
मैंने भी नवरीत लिखे हैं कुछ जीवन के गीत लिखे हैं।।

शब्दों से कुछ शब्द निकाले
और समय से कुछ पल हमने
आये जितने प्रश्न उभरकर
उनसे ही ले कर हल हमने
मन के सारे अरमानों के साँझ ढले कुछ अवसानों के
मैंने भी नवरीत लिखे हैं कुछ जीवन के गीत लिखे हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        26फरवरी, 2023

तुम मन के द्वारे आये हो।

तुम मन के द्वारे आये हो।  

सुप्त हो चलीं जब-जब स्मृतियाँ ये मन भटका अँधियारों में
तब यादों का लिए पिटारा तुम मन के द्वारे आये हो।

किन सपनों ने मुझे डुबोया किन सपनों ने दिया सहारा
किसमें जीता किसमें हारा मुझको कुछ मालूम नहीं था
पल दो पल का साथ मिला था या जनमों का संग हमारा
कितना समय हमारा रहता मुझको कुछ मालूम नहीं था
गरल सिक्त की पीड़ाओं में मन जब मूर्छित हुआ जा रहा
तब अमृत का लिए पिटारा तुम मन के द्वारे आये हो।।

जब सर्पीले स्वप्न पलक के कोरों में कुछ चुभे जा रहे
आशाओं के पंख झुलसकर कहीं बदन में छुपे जा रहे
लगे दोष माथे पर सारे मन को जिसका भान नहीं था
पुष्प बिछा काँटों पर सोना ऐसा भी अनुमान नहीं था
विरह वेदना शापित नख से मन जब छलनी हुआ जा रहा
तब मधुगंधों का कोष लिये तुम मन के द्वारे आये हो।।

कितने देहरी कितने चौखट और कितनी हैं सीमाएं
हर जीवन की अपनी रेखा है सबकी अपनी परिभाषाएं
लक्ष्मण रेखा जब-जब खींची सब रिश्ते नाते रूठ गये
समय ने ऐसे लाँघी देहरी बंधन बाँधे छूट गए
एकाकी का घाव लिए जब सांध्य क्षितिज में छुपा जा रहा
तब अनुबंधों की संधि लिए तुम मन के द्वारे आये हो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23फरवरी, 2023

एक गीत मुझको दे सके न।

एक गीत मुझको दे सके न। 

एक तुमसे गीत जीवन का था कभी माँगा मगर
है यही अफसोस के एक गीत मुझको दे सके न।।

थी बड़ी लंबी डगर और रास्ते भी थे हजारों
पर उभरते प्रश्न मन के रोकते थे राह मेरे
चाहता था मन यही इक बार तुमको फिर पुकारुँ
पर अधूरे शब्द कुछ थे चुभ रहे थे कंठ मेरे
एक तुमसे शब्द जीवन का था कभी माँगा मगर
है यही अफसोस के एक शब्द मुझको दे सके न।।

अंजुरी थी रिक्त लेकिन पुष्प तुमको सौंपना था
दूर राहें हो न जायें एक पल को रोकना था
रोक पर मैं न पाया आवाज थी कितनी लगाई
पर रुँधे थे शब्द शायद दे न पाये जो सुनाई
आस के कुछ पल वहाँ पर हमने कभी माँगा मगर
है यही अफसोस के इक पल भी मुझको दे सके न।।

एक अंतिम भेंट की उम्मीद पग बाँधे हुए थी
इसलिए नजरें अभी तक द्वार पर ठहरी हुई हैं
भोर की उम्मीद मन में रात भी बाँधे हुए थी
इसलिए कुछ चाँदनी की रश्मियाँ पसरी हुई हैं
बस यही उम्मीद लेकर ये रात थी जागी मगर
है यही अफसोस एक उम्मीद भी तुम दे सके न।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21फरवरी, 2023



तुमने ओढ़ रखे थे जाने कैसे तिमिर आवरण।।

तुमने ओढ़ रखे थे जाने कैसे तिमिर आवरण।।

कितनी बार द्वार पर देखा हमने सबसे नजर छुपाकर
लेकिन तुमने ओढ़ रखे थे जाने कैसे तिमिर आवरण।।

आस पास जितने घेरे थे सबमें कुछ तो बहस छिड़ी थी
घूर रहीं थीं कितनी नजरें कितनी नजरें झुकी पड़ी थीं
कुछ में था अफसोस उमड़ता कुछ में थोड़ा सा अपनापन
कुछ नजरों में आस भरी थी कुछ नजरों में था सूनापन
कितनी बार द्वार पर देखा हमने सबसे नजर बचाकर
लेकिन तुमने ओढ़ रखे थे...।।

हमने कितने व्योम उड़ाए सपनों के निज आसमान में
मन ने भी थे राह सुझाये मन को मिलन के अनुमान के
अभिलाषित भी हुआ हृदय ये झुरमुट से जब चाँद खिला था
तारों ने भी राह सजाई जुगनू को सम्मान मिला था
मन ने कितनी बार पुकारा मन को मन ही मन अकुलाकर
लेकिन तुमने ओढ़ रखे थे...।।

जितनी बार जलाये हमने दीपक मन के अँधियारों में
उतनी बार हुई है खंडित बाती मन के गलियारों में
फिर भी हमने मन को अपने बार-बार जितना समझाया
मन को सब कुछ रहा विदित पर चाहा लेकिन समझ न पाया
बिखरे मन को जोड़ रहा था तेरी आहट से बहलाकर
लेकिन तुमने ओढ़ रखे थे...।।

मुझे पता है तुम आओगी सांध्य ढले जब थक जाओगी
माथे पर कुछ खड़ी लकीरें लिए दूर तक क्या जाओगी
शायद मैं फिर रहूँ ना रहूँ गीत हमारे पर गाओगी
पलकों से बस नीर बहेंगे चाह के भी न सो पाओगी
कितनी बार जताना चाहा मन ने गीतों में गा गाकर
लेकिन तुमने ओढ़ रखे थे...।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        19फरवरी, 2023

धुँधले अक्षर उन पन्नों के।

धुँधले अक्षर उन पन्नों के।  

आज वीथियों पर यादों के मुड़े-तुड़े कुछ पन्ने देखा
धुँधले अक्षर उन पन्नों के सुना रहे थे कोई कहानी।।

हाथ लगाया उस पन्ने को जमी धूल को जैसे झाड़ा
उभर के अक्षर नैन में चुभे जैसे तैसे उसे सँभाला
रुँधे कंठ से सारे बोले बतलाओ क्या दोष हमारा
समय जो लिखा नाम पटल पर हमने तो बस उसे पुकारा

माथे की रेखायें उभरी अंतस भी बोला अकुलाकर
कितनी रहीं अधूरी बातें साँसों को है जिसे सुनानी

कुछ ने मन का द्वार खँगाला औ कुछ ने मन का वातायन
कुछ ने मन को दुत्कारा है औ मन का कुछ ने अभिवादन
छपे प्रेरणा बन नयनों में कुछ में थोड़ी नींद रह गई
एक पृष्ठ में कितनी बातें कुछ धुँधली उम्मीद रह गईं

उम्मीदों को दिया सहारा कुछ सूने मन को समझाकर 
कुछ धुँधली बातें खिल आयीं कुछ बातें रह गईं बतानी

कुछ अक्षर इतने धुँधले थे जो नयनों को दिख नहीं पाये
कुछ की साँसें घुटी-घुटी थी मन की बात नहीं कह पाये
कुछ उमड़े अधरों को छूकर कुछ ने आँखों को फुसलाया
कुछ ने मन को राह दिखाई कुछ ने मन को फिर बहलाया

कुछ आँसू का रूप धर लिये गिरे बूँद नयनों से बहकर
कुछ माटी में कहीं खो गये कुछ की बाकी रही निशानी

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18फरवरी, 2023

हनुमान चालीसा- देहु भक्ति का दान।

हनुमान चालीसा- देहु भक्ति का दान।  

मन में सुमिरन कीजिये, सदा नाम हनुमान।
स्वास्थ्य सुख समृद्धि बढ़े, बनते बिगड़े काम।।

जय जय जय हनुमान पुकारें।
कष्ट मिटे जीवन उद्धारे।।1।।

जिनके मन में बसे प्रभु राम,
उनके कष्ट हरें ये तमाम।।2।।

तन सिंदूरी लाल लँगोटी।
इनकी कृपा सबहि पर होती।।3।।

कलयुग के प्रभु एक अधारा।
जीवन के सब संकट टारा।।4।।

अंग वज्र है काँध जनेऊ।
सबपर कृपा न कछु संदेहू।।5।।

हाथ गदा है भाव कृपालू।
प्रभु से बड़ा न कोय दयालू।।6।।

शंकर सुवन केशरी नंदन।
कोटि कोटि है प्रभु अभिनंदन।।7।।

वेद पुराण उपनिषद ज्ञाता।
तुम्हरी शिक्षा जग विख्याता।।8।।

मंगलवार धरा पर आए।
सबका मंगल करते जाए।।9।।

भिन्न-भिन्न धरि रूप दिखाए।
दुर्गम काज सब सुगम बनाए।।10।।

सियाराम के तुम रखवारे।
हम भी आये प्रभु के द्वारे।।11।।

हमको अपनी भक्ति दीजिए।
इतनी कृपा हमपर कीजिए।।12।।

अतुलित बल है बुद्धि विशाला।
सकल जगत के प्रभु रखवाला।।13।।

संकट मोचन अंतर्यामी।
हम सबके प्रभु तुम हो स्वामी।।14।।

भक्त पियारे राम दुलारे।
सबके मन के काज सँवारे।।15।।

जो भी द्वार तिहारे आता।
बिन माँगे वो सब फल पाता।।16।।

सच्चे मन से जो भी आवे।
मनचाहा वो सब फल पावे।।17।।

तुम्हरी कृपा जिन पर होई।
बड़हि विवेक ज्ञान सुख होई।।18।।

जिनपर होए सत्य सनेहू।
पूरन काज न कछु संदेहू।।19।।

हम याचक हैं प्रभु तुम दाता।
तुम ही हो प्रभु भाग्य विधाता।।20।।

हम अग्यानी बालक तेरे।
दूर करो प्रभु सकल अँधेरे।।21।।

ज्ञान ध्यान का दीप जलाओ।
जग के सब अँधियार मिटाओ।।22।।

तुम्हरे भजन जे मन गाँवहि।
मनचाहा जीवन फल पाँवहि।।23।।

तुम हो जग के कष्ट निवारक।
प्रभु तुम दुख दरिद्र के नाशक।।24।।

रघुपति के सब कष्ट निवारे।
मैं भी आया द्वार तिहारे।।25।।

मुझ पर भी अब दृष्टि करो प्रभु।
मेरे भी सब कष्ट हरो प्रभु।।26।।

तुम हो सत्य जगत ये झूठा।
तुमसा और नहीं है दूजा।।27।।

तुमको भजे ज्ञान वो पावे।
जीवन में सुख समृद्धि आवे।।28।।

तुम्हरी शरण जे भी आवे।
रोग व्याधि से मुक्ती पावे।।29।।

जिन पर अपनी किरपा दीन्हा।
उनकर सबहिं कष्ट हर लीन्हा।।30।।

जे भी राम नाम को गावे।
तुमसे प्रतिपल किरपा पावे।।31।।

तुम ही हो प्रभु के रखवाले।
सकल कष्ट को हरने वाले।।32।।

हम अनपढ़ नादान बड़े हैं।
द्वार तिहारे आन खड़े हैं।।33।।

हमको भी प्रभु बुद्धि दीजिए।
अवगुण सभी प्रभु हर लीजिए।।34।।

यहिं जीवन को तुम ही तारो।
भवसागर से पार उतारो।।35।।

भटक रहा मन कौन सहारा।
तुम ही प्रभु बस एक अधारा।।36।।

सूझ रहा नहिं अब पथ कोई।
तुम्हरे सिवा नहिं है कोई।।37।।

तुम्हरे सिवा और न जानूँ।
तुमको ही मैं सबकुछ मानूँ।।38।।

करहुँ कृपा हमपर भी दाता।
तुम्हरे चरण नवाहुँ माथा।।39।।

तुम्हरी कृपा जिन पर होई।
सकल काज सम्पूरण होई।।40।।

घट-घट में प्रभु व्याप्त हो, तुम ही एक महान।
हमरी ये विनती सुनो, देहु भक्ति का दान।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16फरवरी, 2023




एक किनारा।

एक किनारा।  

मन की नैया बीच भँवर में ढूँढ़ रही है एक किनारा
कभी मिलेगा साहिल इसको कहीं मिलेगा इसे सहारा।।

जीवन के हर पथ पर कितने
स्वप्न खड़े हैं हाथ पसारे
कुछ नयनों में आन बसे हैं
कुछ पलकों को करे इशारे
कुछ बूँदों में बहे बिखर कर कुछ ने आकर इसे सँवारा
मन की नैया बीच भँवर में ढूँढ़ रही है एक किनारा।।

जग में कितने मेले सारे
कब जाने मन किसमें हारे
किसमें जाने क्या मिल जाये
किसमें जाने कौन पुकारे
जग के इस मेले में जाने क्या लग जाये मन को प्यारा
मन की नैया बीच भँवर में ढूँढ़ रही है एक किनारा।।

दूर क्षितिज पर सूर्य ढल रहा
धरती से आकाश मिल रहा
सांध्य पलों में जीवन में अब
मन से मन को मौन पल रहा
देर रात धीरे से आकर सिमटा लेती है जग सारा
मन की नैया बीच भँवर में ढूँढ़ रही है एक किनारा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13फरवरी, 2023

एक कहानी पीर पुरानी रही अधूरी लिखते-लिखते।।

एक कहानी पीर पुरानी रही अधूरी लिखते-लिखते।।

वही डगर है जहाँ कभी हम
छोड़ चले थे बचपन अपना
इसी राह पर चलते-चलते
टूटा था जो देखा सपना
थी सपनों की रात सुहानी जाग रही थी रैन तरसते
एक कहानी पीर पुरानी रही अधूरी लिखते-लिखते।।

कहीं कसक थी मन के भीतर
धड़क रही थी जो धड़कन में
रही सुलगती प्यास हृदय की
आशाएं मन की सावन में
बूँदें झर-झर रहीं बरसते प्यासा मन पर रहा तड़पते
एक कहानी पीर पुरानी रही अधूरी लिखते-लिखते।।

हाथों की रेखाओं में भी 
जाने कैसी जंग छिड़ी थी
लिए लेखनी वक्त खड़ा था
मगर वक्त की किसे पड़ी थी
किया बेरुखी वक्त से हृदय देख रहा मन उसे बिखरते
एक कहानी पीर पुरानी रही अधूरी लिखते-लिखते।।

आज शून्य में विचर रहा है 
सिमट गईं सब आहें मन की
सन्नाटे में बिखर रहा मन 
बिछड़ रहीं अब साँसें तन की
हाय कहूँ क्या दूर हुए क्यूँ प्रेम डगर पर चलते-चलते
एक कहानी पीर पुरानी रही अधूरी लिखते-लिखते।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        11फरवरी, 2023

श्री राम हमारे अग्रज हैं श्री कृष्ण हमारे नायक हैं।।

श्री राम हमारे अग्रज हैं श्री कृष्ण हमारे नायक हैं।।

वसुधैव कुटुंबकम के पोषक जग को राह दिखाने वाले
ऊंच-नीच का भेद छोड़ कर हम सबको अपनाने वाले
त्याग धर्म है मूल हमारा हम कुरुक्षेत्र के नायक हैं
रामायण के अनुगामी हैं औ हम गीता के गायक हैं

हम धीर धरा सा रखते हैं औ हम संयम के पाले हैं
कैसी भी बाधाएं आये हम नहीं बिखरने वाले हैं
जीवन पथ की बाधाओं को हँस-हँस कर झेला करते है
कुरुक्षेत्र के रणभूमि में भी हम अरि से खेला करते हैं

अपने सम्मुख जो भी आया हम हँस कर गले लगाते हैं
धर्म-जाति से ऊपर उठकर हम तो सबको अपनाते हैं
नहीं किसी से बैर मानते हम सबसे मिलकर रहते हैं
शरणागत पर वार कभी हो हम आगे बढ़कर सहते हैं

सत्य सनातन मूल मंत्र है पहले हँसकर समझाते है 
कुरु वंश के दरबारों में हम देवदूत बन जाते हैं
अनुचित वारों प्रतिकारों को इक हद तक ही हम सहते हैं
नीति नियम के पालन करते हम मर्यादा में रहते हैं

शास्त्र हमारे दिल में रहता हम शस्त्र हाथ में रखते हैं
हम अमृत के पोषक हैं पर बन नीलकंठ विष चखते हैं
हम मुरली की तान छेड़ते पर नाग नाथना आता हैं
सागर की उच्छृंखल लहरों पर सेतु बाँधना आता है

हम गोपालक हम मनमौजी पर चक्र सुदर्शन धारी हैं
जब-जब विपदा पड़ी धरा पर हमने ही धरती तारी है
हम गीता के अनुयायी हैं हम पहला वार नहीं करते
लेकिन दुश्मन बात समझ ले हम दूजा वार नहीं सहते

साधु संत ऋषियों मुनियों से हमने तो जीना सीखा है
अपने धर्म ग्रन्थ से हमने ये जीवन जीना सीखा है
रामायण के अनुगामी हैं औ हम गीता के गायक हैं
श्री राम हमारे अग्रज हैं श्री कृष्ण हमारे नायक हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       10फरवरी, 2023

कौन है जो इस निशा में लिख रहा है गीत सुंदर।।

कौन है जो इस निशा में
लिख रहा है गीत सुंदर।।

कौन है जो इस निशा में
लिख रहा है गीत सुंदर।।

रूप की कैसी छटा है 
चाँदनी शरमा रही है
रात भी अपने सफर में
स्वयं ही भरमा रही है
ये पौन मद्धम मनचली
बह रही क्यूँ आज रुककर
कौन है जो इस निशा में
लिख रहा है गीत सुंदर।।

नैन ये किसके यहाँ पर
कर रहे हैं छेड़खानी
कौन है जिसने सिखाया
मौसमों को बेइमानी
हर रहे है भाव मन के
गीत ये किसके निखरकर
कौन है जो इस निशा में
लिख रहा है गीत सुंदर।।

रश्मियाँ भी देखती है
रूप सुंदर आज छुपकर
लग रहा जैसे घुला हो
चाँदनी में आज केसर
आज मेघों की घटाएं
झर रही हैं नेह बनकर
कौन है जो इस निशा में
लिख रहा है गीत सुंदर।।

द्वार पर है रात ठहरी
सौम्य मन की आस लेकर
आँजुरी में पुष्प भर कर
अंक में मधुमास लेकर
लग रहा है स्वयं रतिपति
दे रहे हों छंद चुनकर
कौन है जो इस निशा में
लिख रहा है गीत सुंदर।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09फरवरी, 2023

जाने क्या-क्या बहस छिड़ी है सत्ता के गलियारों में।।

जाने क्या-क्या बहस छिड़ी है सत्ता के गलियारों में।।

कितने सपने सिमट रहे हैं दीप तले अँधियारों में
जाने क्या-क्या बहस छिड़ी है सत्ता के गलियारों में।।

भूख कहीं है कहीं गरीबी और कहीं मारामारी
दूर खड़ी हो राह देखती बंद द्वार पर बेकारी
लेकिन अवसर सिमट रहे हैं चंद चुने मनुहारों में
जाने क्या-क्या बहस छिड़ी है सत्ता के गलियारों में।।

महँगाई की बात यहाँ अब कोई मोल नहीं रखता
जनता के टूटे सपने का शायद मूल्य नहीं रहता
अपने खाते काजू किशमिश थाली गिनते नारों में
जाने क्या-क्या बहस छिड़ी है सत्ता के गलियारों में।।

एक समस्या सुलझ न पायी दूजी नई बना लेते
ध्यान हटाने को जनता के वादा नया सुना देते
वोट के लिये मौन तोड़ते चौकों में चौबारों में
जाने क्या-क्या बहस छिड़ी है सत्ता के गलियारों में।।

कहीं गूँजते नारे कैसे कहीं टूटती मर्यादा
जोड़-तोड़ के खेल-खेल में वोटों की चिन्ता ज्यादा
पहले मुख के बोल बिगड़ते झुकते फिर मनुहारों में
जाने क्या-क्या बहस छिड़ी है सत्ता के गलियारों में।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07फरवरी, 2023

त्याग किसे कहते हैं।

त्याग किसे कहते हैं।  

चले पूछने आज धरा से, बोलो त्याग किसे कहते हैं।
जिसने जीवन सौंप दिया, उससे अनुराग किसे कहते हैं।।
पग-पग जिसने गीत लिखे हैं, जीवन के सुर अरु वाणी से।
जिसने स्वर को जन्म दिया है, कहते राग किसे कहते हैं।।

जिसके छूने भर से माटी पल में सोना हो जाता है
जिसका आँचल मिल जाने से दुनिया का सब सुख आता है
जिसकी एक झलक पड़ते ही खुद कष्ट सभी मिट जाते हैं
जिसकी एक छुअन अंतर्मन के कष्ट सभी हर जाता है
दुख में जिसने सुख को पाला, सुख का राग किसे कहते हैं
चले पूछने आज धरा से, बोलो त्याग किसे कहते हैं।।

पग-पग जिसने गीत लिखे हैं, जीवन के सुर अरु वाणी से।
जिसने स्वर को जन्म दिया है, कहते राग किसे कहते हैं।।


जिसे नेह से नैन निहारा उसका ही सम्मान हो गया
जिसकी नजर उतारी पल-पल पूरण सारा काम हो गया
गीले बिस्तर में भी जिसको सुख का सब अहसास मिला है
उँगली जो भी पकड़ चला है वो जीवन में राम हो गया
अंगारों पर चली उम्र जो उससे दाग किसे कहते हैं
चले पूछने आज धरा से, बोलो त्याग किसे कहते हैं।।

पग-पग जिसने गीत लिखे हैं, जीवन के सुर अरु वाणी से।
जिसने स्वर को जन्म दिया है, कहते राग किसे कहते हैं।।


जिसने नभ सा प्रेम जताया दूर खड़ा हो दिया सहारा
जिसने प्रस्तर काट-काट कर सपनों का है पंथ बुहारा
जिसकी स्वेद बूँद जीवन के काँटों में पुष्प खिलाती है
जिसने भाव छुपा कर सारे ओट खड़ा हो पंथ निहारा
जिसकी उबटन स्वेद बूँद उससे तनुराग किसे कहते हैं
हो चले पूछने आज धरा से, बोलो त्याग किसे कहते हैं।।

पग-पग जिसने गीत लिखे हैं, जीवन के सुर अरु वाणी से।
जिसने स्वर को जन्म दिया है, कहते राग किसे कहते हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06फरवरी, 2023

दिल क्यूँ लगाया।

दिल क्यूँ लगाया।  

तुमने कैसा है साथ मुझसे निभाया
जाना ही था जो तो ख्वाब क्यूँ दिखाया

दो कदम साथ चलना मुनासिब नहीं जब
क्यूँ साथ रहने की हसरत दिल में जगाया

छोड़ना ही था दिल को यूँ मँझधार में
उल्फत का यकीं फिर इसे क्यूँ दिलाया

जिन गीतों में तेरे कहीं भी नहीं था
गीत अधरों पे मेरे क्यूँ फिर सजाया

देव अंजाम से अब परेशान क्यूँ हो
खुद ही बेदर्द से जब दिल था लगाया

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        05फरवरी, 2023

सपनों को आज जलाया।

सपनों को आज जलाया।  

कल तक आहें रहीं खोजती
जिन यादों के धुँधले पन्ने।
जिनमें पल-पल रहीं उलझतीं
पलको के कुछ खोये सपने।।
यादों के उन अवशेषों को
ढोता कब तक आज भुलाया।
निज पलकों पर सजे नहीं जो
उन सपनों को आज जलाया।।

रात-रात भर जाग-जाग कर
सुबह सवेरे झाँक-झाँक कर।
मन के द्वार चले आते थे
भावों को जो तड़पाते थे।।
पल-पल अंतस जो घिसते थे
उनको मैंने आज सुलाया।
जिसने मन को घाव दिया है
उन सपनों को आज जलाया।।

पल-पल कितने प्रश्न खड़े थे
अवरोधों से मौन पड़े थे।
राहें जैसे बंद पड़ी थीं
उम्मीदें सब मौन खड़ी थीं।।
पल-पल जो चुभते रहते थे
उन प्रश्नों को आज जलाया।
जिसने अंतस को भेदा है
उन सपनों को आज जलाया।।

जब संकल्पों की थी बारी
नहीं लिया कुछ जिम्मेदारी।
लेकिन जिसने दंश दिया है
लेगा उनकी कौन सुपारी।।
पल-पल जिसने दर्द दिया है
रात-रात भर मुझे रुलाया।
जिसने मेरी नींदें लूटीं
उन सपनों को आज जलाया।।

आज स्वयं को जान सका हूँ
अपना मन पहचान सका हूँ।
आज किसी से नहीं शिकायत
जग से कुछ भी नहीं अदावत।।
भींगीं पलकें रहीं सिसकती
पोंछ नयन उनको समझाया।
जिनसे पलकें-बोझिल-बोझिल
उन सपनों को आज जलाया।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02फरवरी, 2023


दोहे।

दोहे।।

ज्ञान दान प्रभु दीजिये, सबका हो सम्मान।
मंगलमय सब काज हो, दो इतना वरदान।।1।।

सकल पाप का नाश हो, बढ़े सत्य का मान।
मिल जुल कर सब जन रहें, नहीं रहे अभिमान।।2।।

सिरहाने पर है खड़ी, देख सुनहरी भोर।
नवयुग के निर्माण को, आलस सारे छोड़।।

गई निशा नव दिन चढ़ा, नई करो शुरुआत।
नया-नया अनुमान हो, नई-नई हो बात।।

मन ही स्वयं का शत्रु है, मन ही मन का मीत।
जैसी मन की भावना, वैसी बनती रीत।।

ढूँढे मन जो आपना, कितना कुछ मिल जाय।
गहरे पानी बीच से, जैसे मोती पाय।।

संतों की संगत मिले, मिटे सकल अभिमान।
सफल मनोरथ हों सभी, बढ़े ज्ञान सम्मान।।

दूर कुसंगति से रहें, करें नहीं अभिमान।
कीर्ति सकल जग में बढ़े, बढ़ता जग में मान।।

ज्ञान मिला सम्मान भी, हुआ जगत में नाम।
लेकिन मन के मैल को, मिला नहीं आराम।।

ज्ञानी अतिज्ञानी बना, हुई ज्ञान से रार।
अर्ध ज्ञान ने कर दिया, सब कुछ बंटाधार।।

भटक-भटक कर दिन ढला, तड़प रही है रैन।
मैं के चक्कर में सभी, भूल रहे सुख चैन।।

मनवा तो चंचल यहाँ, उड़ि-उड़ि इत उत जाय।
मन पर जो काबू करे, सच्चा सुख वो पाय।।

जैसा मन का भाव है, मिलता वैसा संग।
मन की इच्छा के बिना, होत नहीं सत्संग।।

ज्ञान धन संपत्ति बढ़े, करे नहीं अभिमान।
अभिमानी जो मन हुआ, मिलत नहीं सम्मान।।

सत्य सनातन सर्वदा, जहाँ धर्म का मान।
जीवन फलता फूलता, विश्व करे यशगान।।

प्रकृति ने सबको दिया, एक बराबर धूप।
जैसा मन में भाव है, वैसा खिलता रूप।।

सच्चे मन से लीजिए, हरपल प्रभु का नाम।
सुख वैभव समृद्धि बढ़े, बनते बिगड़े काम।।

प्रेम दिनन मत बाँधिये, ये वो जीवन डोर।
रिश्तों को सुंदर करे, जैसे पावन भोर।।

प्राची की पहली किरण, आयी मन के द्वार।
धीरे-धीरे खुल रहे, बंद हृदय के द्वार।।

द्वार हृदय के खोलकर, सबका करिये मान।
भाव हृदय के शुद्ध हो, स्वतः बढ़े सम्मान।।

बीते कल को भूलकर, नूतन हो शुरुआत।
आशायें हों सारथी, नई बने फिर बात।।

लोभ मोह मद क्रोध सब, करते मन की हानि।
जीवन सुंदर चाहिये, ये अवगुण पहचानि।।






©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01फरवरी, 2023

नीलकंठ कहलायेगा।

सभयसिंधुगहिपदप्रभुकेरे।
छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥।
गगन समीर अनल जल धरनी।
इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी॥1॥
   समुद्र नेभयभीतहोकरप्रभु के चरण पकड़करकहा- हेनाथ! मेरे सबअवगुण (दोष)क्षमाकीजिए।हे नाथ! आकाश,वायु,अग्नि, जल और पृथ्वी-इन सबकी करनीस्वभाव से ही जड़ है॥1
नीलकंठ कहलायेगा। 

बीत गई कितनी सदियाँ जब परछाईं तक छू न सके
चाहा कितना जोर लगाया अनुमानों तक छू न सके।
हुआ असंभव कद को पाना और पहुँच के बाहर था
मरे शब्द अधरों से गिरकर चाहा कितना जी न सके।।

भाव प्रभु श्री राम सा मिलना है इतना आसान नहीं
चक्र सुदर्शन धारी बनना सोच सके आसान नहीं।
त्याग तपस्या के बल से ही इनके पथ को पा सकते
द्वेष भाव औ बैर भरा हो तो पथ ये आसान नहीं।।

कलयुग का है खेल सभी ये मन सबका भरमाया है
अपने-अपने मन विवेक से सबने भाव बनाया है
जो अक्षर बोध समझ न पाये चले व्याकरण समझाने
अपना घर तो सँभल न पाया प्रभु पर प्रश्न उठाया है।।

माना तुम हो सही गलत वो क्या वो कद छू सकते हो
तुम कहते हो गलत किया है क्या तुम वो कर सकते हो।
जिन्हें वोट की चिंता रहती त्याग तपस्या क्या जानें
जन-जन के मन में बसने को क्या सोने सा तप सकते हो।।

एक शब्द के अर्थ बहुत हैं सबको है मालूम यहाँ
द्विअर्थी संवादों में जो सदा खोजते मर्म यहाँ।
मनमाफिक सब अर्थ बना कर दुनिया को भरमाते हो
अपने जिह्वा की फिसलन पर बोलो क्या सकुचाते हो।।

मर्यादा की खातिर जिसने सुख जीवन का त्याग दिया
जितनी ही विपदाएं आयीं हँस कर बस सम्मान किया।
हमें सिखाया जिसने जीवन व्यर्थ नहीं गँवाते हैं
विपदाओं के महासमर में कभी नहीं घबराते हैं।।

एक न सत्य धर्म की खातिर खुद पर कितना दाग लिया
जिस कोख से जन्म लिया था उसी कोख का त्याग किया।
हर संभव संकट को जिसने हँसकर खुद पर झेला है
गोवर्धन उँगली पर रखकर विपदाओं से खेला है।।

मात-पिता भाई का रिश्ता इक ने सबको सिखलाया
धर्म-अहिंसा सत्य सनातन इक से जग ने है पाया।
इक ने वचन बद्धता दी है दूजे ने है ज्ञान दिया
इक ने मूल्य सिखाया जग को दूजे ने सिद्धांत दिया।।

इक ने राजधर्म सिखलाया दूजा कूटनीति में माहिर
इक ने नीति धर्म सिखलाया इक की सेवा जग जाहिर।
दो नामों में मंत्र सभी है न जादू न टोना जंतर
यही शास्वत सत्य यही है और यही जगत में सुंदर।।

तनिक असुविधा होते ही जो सिर पर व्योम उठाते हैं
झूठी शानो शौकत पर जो फूले नहीं समाते हैं।
सत्ता सुख की खातिर क्या है वचनबद्धता क्या जानें
सत्ता के गलियारों का जो रस्ता केवल पहचानें।।

इन पर प्रश्न उठाना है तो इन जैसा बनना होगा
जितना त्याग किया जीवन में त्याग वही करना होगा।
आसानी से कब मिलता है उम्मीदों को पंख यहाँ
सेज फूल की यदि चाहो काँटों पे भी चलना होगा।।

अपने भीतर झाँकेगा जो वही सत्य जी पायेगा
सागर का मंथन जब होगा अमृत तब ही आयेगा
दूर खड़े हो प्रश्न उठाना रहता है आसान सदा
लेकिन विष जो धरे कंठ में नीलकंठ कहलायेगा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        31जनवरी, 2023

खिली कली मन की मुरझाई।

खिली कली मन की मुरझाई। 

रंग फिजा ने कैसा बदला
खिली कली मन की मुरझाई।।

साँझ ढले मन के पनघट पर
कैसी फिसलन जान न पाया
खाली घट मैं लिए खड़ा था
सागर था, पहचान न पाया
कुछ सपनों की चाहत गहरी
नयनों की प्यासी धरती पर
जाने फिर क्यूँ स्वप्न गिरे
रक्तिम गालों की धरती पर
अधरों ने जब कहना चाहा
बात हुई सब सुनी सुनाई
रंग फिजा ने कैसा बदला
खिली कली मन की मुरझाई।।

राहें तक-तक पलकें हारीं
कितने जीवन पार हो गए
सूना-सूना मन का आँगन
सावन बीता क्वार हो गए
जितने महल बने ख्वाबों के
द्वार पलक के आकर ठहरे
चाहा कितनी बार सजा लूँ
पर जाने थे कैसे पहरे
द्वार ठहर कर देख रहा मन
सूने आँगन की परछाईं
रंग फिजा ने कैसा बदला
खिली कली मन की मुरझाई।।

संझा चाह मिलन की लेकर
रात-दिवस से रही उलझती
दूर क्षितिज पर उम्मीदें थीं
साँसें पल-पल रहीं कलपती
दूर सभी रस्ते ठहरे थे
जाना है किस ओर न जाने
रुँधे कंठ ले सांध्य खड़ी थी
आँसू का आवेग न माने
संझा आज स्वयं के घर में
क्या कहती क्यूँ हुई पराई
रंग फिजा ने कैसा बदला
खिली कली मन की मुरझाई।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30जनवरी, 2023

सपने कुछ हमने भी बोए।

सपने कुछ हमने भी बोए।

यादों के कुछ मौन पलों में
बूँद पलक के द्वारे आए
कुछ ने मन को बहलाया
आहों को कुछ भरमाए
कुछ बूँदों में चैन मिला है
कुछ में हमने जीवन खोए
फिर भी आस रही पलकों से
सपने कुछ हमने भी बोए।।

रही हथेली रिक्त भले ही
नहीं शिकायत रही समय से
लम्हों से कितने दर्द मिले
नहीं शिकायत करी समय से
गिरे हाथ से लम्हे कितने
लेकिन दामन नहीं भिंगोए
फिर भी आस रही पलकों से
सपने कुछ हमने भी बोए।।

रूक जाता तो कैसे जीता
थमने का कुछ मोल नहीं था
रुक कर आँसू ही पीता जो
सपनों का कुछ मोल नहीं था
बने बिगड़ते सपने लेकर
जग जाने क्या, कितना रोए
फिर भी आस रही पलकों से
सपने कुछ हमने भी बोए।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28जनवरी, 2023

मुक्तक।

मुक्तक।  

समंदर के किनारों ने लहर से और क्या पाया
कभी ठोकर थपेड़े औ कभी अवसाद है पाया।
हजारों जख्म खाते हैं मगर चुपचाप रहते हैं
समेटे दर्द कितने ही नया पर गीत है गाया।।
*******************************

भले हों बंदिशें कितनी राहें खुल ही जाती हैं
दिलों को जीत लेती हैं साँसें खिल ही जाती हैं।
नहीं अफसोस रहता है मिले जब साथ अपनों का
चलें जब साथ मिलकर के राहें मिल ही जाती हैं।।
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मिले जो दर्द तुमसे अब नहीं उसका मुझे गम है
तुमसे जख्म जो पाये वही अब मेरे मरहम है
मगर इक कशमकश सी है मुझे जो सालती रहती
मुकम्मल जिन्दगी है या अभी कुछ और भी गम है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       27जनवरी, 2023

जाना है क्या ये जीवन।

जाना है क्या ये जीवन।  

प्रभु आपकी शरण में आया तो जाना जीवन
प्रभु आसरा मिला जब जाना है क्या ये जीवन।।

भटका हुआ था जीवन खोई हुई थी राहें
क्या जाने किस गली में खोई हुई थी चाहें
आशीष जब मिला तो पाया है मैंने जीवन
प्रभु आसरा मिला जब जाना है क्या ये जीवन।।

अपना क्या जगत में जो मिला है सब तुम्हारा
अनजाने रास्तों पे है बस आपका सहारा
बस आपकी कृपा से पाया है मन का मधुवन
प्रभु आसरा मिला जब जाना है क्या ये जीवन।।

प्रभु पंथ भी तुम्हीं हो औ तुम ही हो ठिकाना
भूलूँ मैं राह जब भी तू ही रास्ता दिखाना
प्रभु आपकी कृपा से महका है मन का उपवन
प्रभु आसरा मिला जब जाना है क्या ये जीवन।।

झूठा जगत है सारा बस एक तू ही सच्चा
नादान हूँ अभी मैं क्या जानूँ क्या है अच्छा
आशीष पाया जब से अंतस हुआ ये पावन
प्रभु आसरा मिला जब जाना है क्या ये जीवन।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        26जनवरी, 2023

साज दिल के।।

साज दिल के।  

चली कैसी ये पवन 
आज तुझसे मिल के
कि बजने लगे हैं
सभी साज दिल के।।

नहीं जोर अब तो
दिल पर है कोई
जागने लगीं अब
रातें जो सोईं
नया पाया जीवन
तुझसे ही मिल के
कि बजने लगे हैं
सभी साज दिल के।।

नये ख्वाब आंखों में
अब आने लगे हैं
खोई थी राहें जो
हम पाने लगे हैं
नए गीत अधरों पे
सजे तुमसे मिल के
कि बजने लगे हैं
सभी साज दिल के।।

यही दिल की चाहत
कि कोई जनम हो
तुमसे शुरू हो औ
तुम पर खतम हो
सजा दिल का उपवन
मेरा तुमसे मिल के
कि बजने लगे हैं
सभी साज दिल के।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        24जनवरी, 2023

अवधी गीत- दहेज कुप्रथा।

अवधी गीत- दहेज कुप्रथा।  

पाई-पाई जोड़ि-जोड़ि के करईं व्यवस्था मुश्किल से
जोड़ईं हाथ मूड़ नवावईं माँगइ मोहलत तंग दिल से।

कइसन जग में रीत चलल बा पैसा ही भगवान भइल
बिटिया जनमब यहिं युग में बोला का अपमान भइल।

मंदिर-मंदिर चौखट-चौखट केतनी अरज गोहार लगायेन
तब जाई के ओनकर घर मे सुंदर सी एक बिटिया पायेन।

किलकारी सुनि के बिटिया के दुख सारा बिसराई दिहिन
बिटिया के न बोझ समझिहा घर भर के समझाई दिहिन।

अइसन लागइ देखि के ओहके परी धरा पे उतरी हौ
अउ दादी-दादा नानी-नाना के आँखे के पुतरी हौ।

आँखी से जो आंसु गिरइ तो काम छोड़ि सब दौड़ई लागईं
कोरा में लेई के सब केयू आँसू ओकर पोंछई लागईं।

बीतत समय देर केतना पढ़ि लिखी बिटिया भई सयानी
सोचि विदाई बिटिया के बहई आँख से झर-झर पानी।

लेकिन जग के रीति पुरानी केयू बिटिया के कब राखि सकल
केतनउ चाहई अपने मन में समय के का केऊ बान्हि सकल।

योग्य देखि के बिटिया खातिर ब्याहें के इंतजाम किहिन
रुपया-पैसा, गहना-गुरिया यथाशक्ति वरदान दिहिन।

एककई बिटिया जानि के लरिका वालन मुँह बाढ़ई लाग
छवउ महीना नाहि बिता कि फिर से पैसा माँगई लाग।

एक दुइ बार त ओनके मन के सारी इच्छा पूर किहिन
करजा वरजा काढ़ि के कइसेउ हाथे पइसा लाई धरिन।

एक त बियाहे के करजा ऊपर से ई नई समस्या
अब त जीवन लागई लाग अपने मां इक नई समस्या।

कुछ दिन ले बरदाश्त किहिन फिर पानी सर से ओर होइगा
हर आये दिन नई माँग अब मुश्किल दाना-पानी होइगा।

रोज-रोज के मार पीट से मन सब कर उकताई गवा
जवन सोन एस मोह बिटिया के उ कइसन मुरझाई गवा।

हद त होइगा एक दिन लरिका बिटिया के पहुंचाई दिहिन
नई कार के लिस्ट हाथ पे लाई के उनके थमाई दिहिन।

अब हमसे बरदाश्त न होई बाबू आखिर केतना करब
रोज-रोज के इनकर लालच अउर ताड़ना अब न सहब।

मोह के खातिर बिटिया के अब नई कार मँगवाई दिहिन
बेचि के आपन बिस्सा ओनकर घर पइसा पहुंचाई दिहिन।

लेकिन लालच अइसन मन में नवा पाप संचार भयल
मार-पीट आये दिन ताना अब जीवन के आहार भयल।

मूड़ पकरि के बिटिया रोवइ अउर न कउनो रस्ता सूझै
हाथ जोड़ि के कहेस प्रभु से अगले जनम न बिटिया कीजै।

एक दिन ई संदेश मिलल के बिटिया के सब जारि दिहिन
छाती पीट के माई रोवइ बिटिया के हमारे मार दिहिन।

कोर्ट कचहरी भयल मुकदमा सब अपराधी जेल ग्याल
लेकिन बिटिया के दोष रहा का जेकरे साथे पाप भयल।

लालच के खातिर दुनिया में मनई केतना अंधा होई गा
सूट-बूट से ऊपर बाटई भीतर से मुदा मंगा होई गा।

का बिटिया के जीवन के यहिं समाज मे मोल नहीं
केहू बतावइ कि समाज में का जीवन अनमोल नहीं।

दहेज प्रथा की आड़ में कितना जीवन ई बरबाद भइल
शिक्षा, संस्कृति अउर सभ्यता ई सबकर अपमान भइल।

गर सम्मान मिली नारी के जीवन ई खुशहाल रही
चीर द्रौपदी के खींची जे ऊ जीवन बदहाल रही।

कुरुक्षेत्र होई जाये जीवन कौरव जइसन हाल होई
मूल रही न जीवन के कुछ ई दुनिया बेहाल रही।

सृष्टि के निर्माता नारी अउ जीवन के पालन कर्ता 
इनके ही सम्मान से घर के सारा दुख दरिद्र हरता।

दहेज प्रथा उ दीमक हौ जो समाज के चलि डाली
जो एकर अंत न होई मनुज सभ्यता छलि डाली।

कहे देव अब गाँठ बान्हि ल बात यही अनमोल अही
जेहिं घर नारी जीवन कलपी वहिं घर के कउनो मोल नहीं।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय "देववंशी"
       हैदराबाद
       23जनवरी, 2023

अवधी गीत-कर्म वचन न चंगा होइहैं।।

 अवधी गीत- कर्म वचन न चंगा होइहैं।।

गंगा, यमुना, आदि गोमती अरु सरयू के का हाल भइल
कतहु पे कचरा कतहु पे टेनरी अउर कतहु अपमान भइल
कतहु पे नाली गिरत अहइ अउर कतहु पे केऊ पानी रोकई
कतहु पे काटई पेड़ रूख अउर कतहु पे केऊ गंदा झोंकई
अइसन ही जो हाल रही तो निर्मल कबहु न गंगा होइहैं
अंतस कबहु शुद्ध न होई मन कर्म वचन न चंगा होइहैं।।

गंगोत्री से निकली हैं अउर हरिद्वार पे धरती आइन
जड़ी, बूटी पर्वत से लाइन दुनिया के जीवन दिखलाइन
जउने-जउने राह चलिन कुलि राह पवित्र कई देहलिन
रोग, दरिद्र दूर करिन अउ खुशहाली घर-घर देहलिन
इनके अपमान जहाँ होई मन वु कबहु न चंगा होइहैं
अंतस कबहु शुद्ध न होई मन कर्म वचन न चंगा होइहैं।।

खेती-बाड़ी अउ लरिकन-बच्चन तुहिं जीवन के मूल्य अहियु
शिक्षा, संस्कृति, धरम, सभ्यता, नैतिकता के मूल अहियु
तोहरी गोदिया में खेल कूद के भारत के माटी सोन भयल
राम, कृष्ण, गौतम, नानक, गीता, पुराण अनमोल मिलल
एक बूँद से तोहरे मिल के गड़ही भी गंगाजल होइहैं
बिन तोहरे मन ई शुद्ध न होई मन कर्म वचन न चंगा होइहैं।।

जउने-जउने रस्ता चललू वहिं के माटी हरियाई दिहु
लोभ, मोह अउ पाप के मन से बहरे रस्ता दिखलाई दिहु
काशी, प्रयाग अउर गंगा सागर धरती पे स्वर्ग बसाइयू तू
शंखनाद करि कुरुक्षेत्र में पांडव के युद्ध जिताइयू तू
जेकरे मन मां पाप बसल हौ सकल जगत मां नंगा होइहैं
अंतस कबहु शुद्ध न होई मन कर्म वचन न चंगा होइहैं।।

कहे देव बस पानी नाहीं तू भारत के प्राण वायु अहियु
दुख-दरिद्र दूर करे जो अइसन तू वरदान अहियु
तोहरे पानी के अंजुलि भर के देवलोक भी धन्य भयल
आशीष मिलल बा हम सबके हमरो जीवन भी धन्य भयल
जो तू रहबियु मैली अब भी भारत के मन ई गंदा होइहैं
अंतस कबहु शुद्ध न होई मन कर्म वचन न चंगा होइहैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       22जनवरी, 2023

अवधी गीत-मन सोचई पहिले।

अवधी गीत-मन सोचई पहिले।  

बहुत कठिन बा का दुनिया मे
अपने मन के काबू करना
जग से अच्छी बातें सीखब
ओहके फिर से लागू करना
हरदम मन मे दुविधा कइसन
चाहेस केतनी बार कि कहिले
लेकिन कइसे बात कही सब
सोच नाई पायेस मन पहिले।।

कउनो गलती ओहर रहल
अउ कउनो गलती यहर रहल
तनिक बिगाड़ ओहर भयल
अउ तनिक बिगाड़ यहर भयल
तोहसे भी कुछ सहल गइल न
एहरौ मनवा कुछ न सहले
लेकिन कइसे बात कही सब
सोच नाई पायेस मन पहिले।।

अब पछताए होय काऊ जब
चिड़िया चुगी गयी खेत सकल
तुहई बतावा तब का करिता
मनवा में जब वहम रहल
कइसे मेल उहाँ संभव हो
केऊ न कदम बढावईं पहिले
कइसे ई सब सहल होई
सोचई अब तो मन ई पहिले।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21जनवरी, 2023

अवधी गीत-गलत हमेशा गलत रही।

अवधी गीत-  गलत हमेशा गलत रही।  

नवा जमाना देख के मन में
कइसन-कइसन भाव जगल
लालच, लोभ, मोह में पड़ि कर
अइसन वइसन चाह जगल।

बॉलीवुड के देखि सिनेमा
लोगन के मन बदलत बा
धरम करम के प्रति लोगन के
भाव चित्त से उतरत बा।

केहू कहे बेसरम रंग हौ
लगे केहू के सब उद्दंड
औ केहू के लागत बाटई
पूजा-पाठ भक्ति पाखंड।

दुसरे के घर देखि हवन
आपन खिड़की बंद करईं
शंख-नाद सुनि के सारे
काने के अपने बंद करईं।

केहू कहत हौ भोले जी के
दूध चढ़ाउब व्यर्थ इहाँ
राम-नाम के पाठ केहू के
लागत बाटई व्यर्थ यहाँ।

टीका-चंदन मंदिर-मंदिर
अपराधिन के डेरा बोलेन
वेद-पुराण ऋषि मुनि के
बदनाम करे खातिर मुँह खोलेन।

नवा जमाना देखि के ओनकर
मनमाना सब ढंग भईल
कलि तक साड़ी ठीक रहल
अब काहे के तंग भईल।

देह देखाइब बॉलीवुड में
लागत हौ सम्मान भईल
नीति शास्त्र के बात इहाँ
जइसन के अपमान भईल।

फिल्मन के नङ्गेपन पर
कहें, जनता इहे देखइ चहे
केऊ नँगा होइके आपन फोटो
पेपर-पेपर बेचई चाहें।

जब तक सब चुप रहल इहाँ
छेड़-छाड़ त खूब भईल
बॉयकाट के हवा चलल तो
खटिया काहें टूट गईल।

भिनसारे केयू कहेन आई के
नशा वशा केऊ नही करित
संझा होतइ दूसर बोलेन
थोड़-थाड़ सब कबहु करित।

कहे अजय यदि निक दिन चाहा
चाल, चरित्र अउ चित्र संभाला
राष्ट्र, धर्म, शिक्षा संस्कृति के
मूल के आपन ध्येय बना ला।

राम, कृष्ण, गीता रामायण
भारत के सब मूल तत्व हौ
इनकर अपमान इहाँ पर
जे करई ऊ दुष्चरित्र हौ।

गलत हमेशा गलत रही
केतनउ चाहा ठीक न होई
जेकरे मन में भाव गलत हौ
कबहु राष्ट्र के मीत न होई।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20जनवरी, 2023



जो तुम्हारे हृदय को जगा न सकूँ।।

जो तुम्हारे हृदय को जगा न सकूँ।।

गीत लिखना यहाँ व्यर्थ होगा सभी
जो तुम्हारे हृदय को जगा न सकूँ।।

दीप की रोशनी में सुबह हो गयी
रात भर चाँदनी छटपटाती रही
चाँद चलता रहा रात भर आस में
चाँदनी दूर से ही बुलाती रही।

चाँद के दर्द का अर्थ होगा नहीं
भाव उसके तुम्हें जो जता न सकूँ
गीत लिखना यहाँ व्यर्थ होगा सभी
जो तुम्हारे हृदय को जगा न सकूँ।।

जिन्दगी में सभी कुछ मिला कब यहाँ
कुछ न कुछ तो कहीं पर कमी रह गयी
मिल न पाया सहारा सदा बाँह का
कुछ न कुछ आस मन की दबी रह गयी।

बेसहारे रहेंगे इरादे सभी
आज उसको तुम्हें जो बता न सकूँ
गीत लिखना यहाँ व्यर्थ होगा सभी
जो तुम्हारे हृदय को जगा न सकूँ।।

चाह जिसकी हृदय को हमेशा रही
वो मुझको तुम्हारे हृदय में मिला
मन भटकता रहा इस नगर में सदा
देख तुमको हुआ खत्म वो सिलसिला।

स्वर्ग भी अब मिले व्यर्थ होगा सभी
जो तुम्हारे हृदय को लुभा न सकूँ
गीत लिखना यहाँ व्यर्थ होगा सभी
जो तुम्हारे हृदय को जगा न सकूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       18जनवरी, 2023

जाने क्यूँ, कुछ छूट जाता है।

जाने क्यूँ, कुछ छूट जाता है।

कुछ अधूरी ख्वाहिशें 
कुछ अधूरी चाहतें
स्वप्न के कुछ पल यहाँ
मौन कदमों के निशाँ
कुछ मचलती राहतें
दूर होती आहटें
वक्त से न जाने क्यूँ
एक लम्हा रूठ जाता है
जाने क्यूँ, कुछ छूट जाता है।।

नेह के कुछ पल यहाँ
संग बीते कल वहाँ
एक हल्की सी छुअन
प्यार की मीठी चुभन
वो नजर का फेरना
और फिर से देखना
फिर पलक के कोर से
बूँद बन, टूट जाता है
जाने क्यूँ, कुछ छूट जाता है।।

वो धूप में बाहर निकलना
बारिशों के संग फिसलना
वो चाँदनी रातें सुहानी
नानी-दादी की कहानी
देर तक चलती वो बातें
छोटी लगती थी वो रातें
चाँद का आँगन उतरना
फिर-फिर याद आता है
जाने क्यूँ, कुछ छूट जाता है।।

जा के आँचल से लिपटना
और फिर उसमें सिमटना
वो खिलौने को मचलना
और कदमों को पटकना
माँगना आकाश तारा
और कहना जग हमारा
वो दूध की छोटी कटोरी
फिर सब याद आता है
जाने क्यूँ, कुछ छूट जाता है।।

शाम को घर से निकलना
दोस्तों के संग टहलना
वो समोसे की लड़ाई
एक दूजे की खिंचाई
साइकिलों पर दूर जाना
अभाव में भी सब कुछ पाना
वो दिलों की चाहतें
अब भी तड़पाता है
जाने क्यूँ, कुछ छूट जाता है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       17जनवरी, 2023

शायद।

शायद।  

मेरे मन की बातों को वो खेल समझते हैं शायद
झूठे वादों को दुनिया में मेल समझते हैं शायद

कुछ खामोशी गहरी होती क्यूँ इतना आभास नहीं
शोर मचाने को दुनिया में मेल समझते हैं शायद

नयनों के सूनेपन के भावों को कब समझा है
पलक झपकने को दुनिया में मेल समझते हैं शायद

यादों में कुछ गीत बसे हैं जिनकी याद सुहानी है
गीत मचलने को दुनिया में मेल समझते हैं शायद

कह देना मुश्किल लगता चुप रहना आसान नहीं
बेफिकरे इस दुनिया को खेल समझते हैं शायद

मन ने दर्द जिया पग-पग पर नहीं शिकायत करी कभी
सहनशीलता को दुनिया में खेल समझते हैं शायद

कुछ सपनों का इन आँखों से गहरा कुछ तो नाता है
इस नाते को दुनियावाले मेल समझते हैं शायद

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17जनवरी, 2023

फिर से मुझको स्वप्न वो मत दिखाओ।।

फिर से मुझको स्वप्न वो मत दिखाओ।।


छोड़ कर जिन रास्तों को आ गया हूँ
फिर मुझे उन रास्तों पर मत बुलाओ
जिस स्वप्न से बस अभी जागा हूँ मैं
फिर से मुझको स्वप्न वो मत दिखाओ।।

ढल चुकी रात जो गहरी अंधेरी
उस रात से मेरा नहीं अब वास्ता
जिन दिशाओं से अभी छूटा हूँ मैं
अब उन दिशाओं से नहीं है वास्ता।

जिन रास्तों में दर्द से गुजरा हूँ मैं
फिर मुझे उन रास्तों को मत दिखाओ
जिस स्वप्न से बस अभी जागा हूँ मैं
फिर से मुझको स्वप्न वो मत दिखाओ।।

वादे मन के द्वार पर घुटते रहे 
यादों ने उनको कभी देखा नहीं
कुछ घुटे से दर्द अब भी राह तकते
है रास्ते क्या कंठ ने सोचा नहीं।

हैं घुटे उस दर्द के नासूर जो भी
उनकी आहों को मुझे मत सुनाओ
जिस स्वप्न से बस अभी जागा हूँ मैं
फिर से मुझको स्वप्न वो मत दिखाओ।।

आज मन की गाँठें सारी खुल गईं
सब दर्द की आहें हृदय में धुल गईं 
मन पे कोई बोझ अब कुछ भी नहीं
खोई मन की साँस सारी मिल गईं।

कंठ में थी घुटी जो साँसें कल तक
फिर से उनको कंठ में मत दबाओ
जिस स्वप्न से बस अभी जागा हूँ मैं
फिर से मुझको स्वप्न वो मत दिखाओ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16जनवरी, 2023

जीत का मंत्र।

जीत का मंत्र।   

सूर्य की रश्मियों से
तेज लो प्रकाश लो
मुट्ठियों को खोल कर 
सारा तुम आकाश लो
शास्त्र वीर काँधों पे 
शस्त्र तुम सजा लो अब
उठो के शत्रु सामने है 
तेज तुम दिखा दो अब
तेज हो प्रभाव हो
वीर हो बढ़े चलो
जीत का ये मंत्र है 
चले चलो चले चलो।।


राष्ट्र की पुकार है 
भागवत का सार है
शत्रु जब हो सामने 
प्रचंड तू प्रहार कर
भीम सा प्रभाव हो 
न मन पे कुछ दबाव हो
शत्रु के रक्त से 
धरा का तू श्रृंगार कर
मन में न अभाव हो
वीर हो बढ़े चलो
जीत का ये मंत्र है 
चले चलो चले चलो।।

वार तू प्रचंड कर 
स्वयं पर घमंड कर
हो जहाँ खड़े रहो 
चट्टान से अड़े रहो
नेह के प्रभाव तुम 
आज सारे त्याग दो
इस धरा को आज तुम 
शत्रुओं से पाट दो
वक्त की यही पुकार 
वीर हो बढ़े चलो
जीत का ये मंत्र है 
चले चलो चले चलो।।

राह में रुके नहीं
शीश ये झुके नहीं
युद्धवीर बन चलो
राह अब थके नहीं
राष्ट्र की अखंडता का
तुम ही तो प्रमाण हो
जीत के नव राग से
शांति का निर्माण हो
शांति का आधार बन
वीर हो बढ़े चलो
जीत का ये मंत्र है
चले चलो चले चलो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14जनवरी, 2023


चाहता हूँ वेणियों मै गूँध दूँ आकाशतारा।।

चाहता हूँ वेणियों मै गूँध दूँ आकाशतारा।।


आज साँसों ने मचलकर है पुनः तुमको पुकारा
चाहता हूँ वेणियों में गूँध दूँ आकाशतारा।।

माँग में तेरे सजा दूँ नेह की सारी कलायें
पाश में भरकर उतारूँ मैं तिरी सारी बलायें
माथ पर तेरे सजा दूँ भोर का पहला सितारा
चाहता हूँ वेणियों मै गूँध दूँ आकाशतारा।।

नैन मैं मैं आज भर लूँ प्रेम की हर भंगिमा को
इस हृदय को मैं सजाऊँ चाहतों की लालिमा से
और भर दूँ इस भुवन में आज मैं मधुमास सारा
चाहता हूँ वेणियों मै गूँध दूँ आकाशतारा।।

पुष्प से मधुरस चुराकर आज अधरों पर लगा दूँ
बाल रवि की रश्मियों को इन कपोलों पर सजा दूँ
आज रच दूँ गात पर मैं धरा का श्रृंगार सारा
चाहता हूँ वेणियों मै गूँध दूँ आकाशतारा।।

पास बैठो मैं भरूँ पिय अंक में मृदु रत्न सारे
भरे पुष्पित भाव मन में स्वयं रतिपति जो सँवारे
नव्य कलियों की दमक से आज भर दूँ अंक सारा
चाहता हूँ वेणियों मै गूँध दूँ आकाशतारा।।

यूँ सजा कर रूप तेरा चाहता तुमको निहारूँ
धूप-बाती प्रेम की ले आरती तेरी उतारूँ
और आलिंगन धरूँ मैं नेह का अमृत पिटारा
चाहता हूँ वेणियों मै गूँध दूँ आकाशतारा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       10जनवरी, 2023

झूठे ज्योति पुंज के साये में देखा अँधियार बहुत है।।

झूठे ज्योति पुंज के साये में देखा अँधियार बहुत है।।

अपने मन से भार उतारा दूजे के सिर माथ चढ़ा कर
हाहाकारी इस जीवन में अपना पद अरु मान घटाकर
दूजे के भावों को छलकर जीना मुश्किल यहाँ बहुत है
झूठे ज्योति पुंज के साये में देखा अँधियार बहुत है।।

मन के झूठे अनुरोधों पर साँसें भी असमर्थ हुई हैं
ढँक कब पाया झूठ-तर्क सब आहें सारी व्यर्थ हुई हैं
किन्तु मोह के आगे सारे जीवन के प्रतिबंध गिरे हैं
जैसे पतझड़ ऋतु आते ही शाखों से सब पुष्प झरे हैं।

पतझड़ ऋतु में पुष्पाच्छादित उपवन का मनुहार बहुत है
झूठे ज्योति पुंज के साये में देखा अँधियार बहुत है।।

पग-पग जीवन एक पहेली कुछ सुलझे कुछ सुलझ न पाये
कुछ उलझे निज परिभाषा में चाहा मन पर समझ न पाये
जाने कैसी अनुशंसा में निज मन ये उलझा जाता है
खोल न पाये गाँठ हृदय की बंधन कब सुलझा पाता है।

अनुशंसा में उलझे मन को खलता ये व्यवहार बहुत है
झूठे ज्योति पुंज के साये में देखा अँधियार बहुत है।।

बाँध हवा को पाना मुश्किल कितने ही आये चले गये
जितने महाबली उभरे थे सब समय चक्र में छले गये
दूजे मन को दूषित कर के कब मिलता है सम्मान यहाँ
शकुनी की चालों को मिलता सदा उचित परिणाम यहाँ।

गीता के हर उपदेशों का निज मन पर उपकार बहुत है
झूठे ज्योति पुंज के साये में देखा अँधियार बहुत है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08जनवरी, 2023

मेरे कुछ गीत उल्फत के राहों में अधूरे हैं।।

मेरे कुछ गीत उल्फत के राहों में अधूरे हैं।।

लिखना था तुम्हारे संग चाहा पर न लिख पाया
अधूरे गीत अधरों पर रुके पर मन न गा पाया
रुकी जो चाहतें मन में अभी तक वो सताती हैं
विरह ने गीत जो गाया अभी तक मन न सह पाया।

मिलन के स्वप्न नयनों में अभी तक वो अधूरे हैं
मेरे कुछ गीत उल्फत के राहों में अधूरे हैं।।

वो खुशबू आज भी मन के कोनों में महकती हैं
वो साँसें आज भी पल-पल आहों में दहकती हैं
आहों में अभी तक भी तुम्हारी चाह जिंदा है
यादों के चिरागों की वो धीमी लौ तड़पती है।

जली बाती चिरागों की मगर सपने अधूरे हैं
मेरे कुछ गीत उल्फत के राहों में अधूरे हैं।।

जाना जो जरूरी था तो इतना ही बता जाते
नहीं जो रीत थी कोई निगाहों को जता जाते
न लेता दोष सर माथे गिरे जो हाथ से लम्हे
कि अपने हाथ से खुद ही मिटा कर नाम तो जाते।

गिरे कुछ हाथ से लम्हे बचे जो हैं अधूरे हैं
मेरे कुछ गीत उल्फत के राहों में अधूरे हैं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07जनवरी, 2023


बुझ गयी दीपिका रिश्तों की मरीचिका।।

बुझ गयी दीपिका रिश्तों की मरीचिका।।


देर तक रहे खड़े नैन ये भरे-भरे
चाहतें मुखर हुईं राहतें सिफर हुईं
दर्द को मिली डगर थी कहाँ किसे खबर
आस भी सिमट गई राह भी सिमट गई
चूर थक के हो गये दूर सबसे हो गये
कह सके न बात को सह सके न घात को
शून्य को निहारते स्वयं को पुकारते
कंठ थे भरे-भरे हम रहे खड़े-खड़े
नेह सभी लुट गये मौन हुई गीतिका
बुझ गयी दीपिका रिश्तों की मरीचिका।।

सांध्य जब मुखर हुई रात ने छुपा लिया
सब दिवस के दर्द को आह ने दबा लिया
साँस थी घुटी-घुटी आहटें छुपी-छुपी
शब्द जो कहे नहीं दूर से समझ गए
कुछ कहे, कहे नहीं, मौन रह पलट गए
और शोर ने कहा बात जो समझ गये
शून्य को निहारते बात क्या सँभालते
सोच में पड़े-पड़े हम रहे खड़े-खड़े
स्वप्न सभी लुट गये जागती रही निशा
बुझ गयी दीपिका रिश्तों की मरीचिका।।

जब नहीं है वास्ता क्यूँ चले मन रास्ता
दूर जब सभी हुए दोष सब बरी हुए
रात की करवटें कह सकी न सिलवटें
दंश जब वहाँ छुए दूर अंक से हुए 
कह सकी न रात कुछ बुझ गये सभी दीये
दीप जो जले रहे सोचते पड़े रहे
कर्ज क्या उतारते भोर को पुकारते
रात भर जले-जले यही सोचते रहे
मुक्त कंठ हो गए राख हुई गीतिका
बुझ गयी दीपिका रिश्तों की मरीचिका।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06जनवरी, 2023


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