तोड़ सारी वर्जनाएँ दूर कितना आ गया हूँ।।

दूर निकल आया मन सबसे।

खुशियाँ मन के द्वार खड़ी थीं पर पीड़ा में उलझा जीवन।।

जाने कौन घड़ी में छूटे लम्हें फिर से मिल जायें।।

दिल के मैखाने में।

जिंदगी पूछती कब है।

दर्द का रिश्ता।

राष्ट्रधर्म।

आवाहन

जग से कब बंजारा होता।

नहीं अकेला रहा सफर में साथ चली हर बार जिंदगी।।

अंतस का अंतर्द्वंद।

लम्हों के घाव।

गीतों का मधुपान करा दो।

दिल में अभी मेरा बसेरा है।

मुक्तक

कौन है सुनता यहाँ।

सीख जाते हैं।

मुक्तक-मौन को इक अर्थ।

दूषित अनुबंध।

कौन जाने क्यूँ अभी तक अंक का हर पृष्ठ रीता।।

व्यंग्य-असली सरकार।

द्वार-चार का गीत अधर पर संध्या लेकर द्वार खड़ी है।।

दो प्रेम पाँखी।

राष्ट्र प्रथम।

तुम ना आये।

पग-पग ढूँढे राह गाँव की।

गोली विज्ञापन की।

विचलित हैं ये गीत हमारे।।

मेरे मन की प्राण वायु।

मुक्तक।

मन के भाव पंक्तियों में।

भुलाना आ गया होता।

धीरे-धीरे।

क्यूँ इतना आसान नहीं।

उम्र ढलती रही कब रुकी है यहाँ।।

बहती हवाओं में।

अदावत।

लहरें चाँदनी से बात अपनी कर रही हैं।

अपने अंतस के पट खोलें।।

मुक्तक- अधरों पर उपकार बहुत है।

समय संग रीत जाता है।

अश्रु पलकों के बहुत कुछ कह गये।।

आज मन के द्वार किसने बीन छेड़ी।।

हमने जीत-हार के गीत हैं लिखे बहुत।।

पास हम आने लगे।

शर्वरी भी गा रही थी।

कहीं दूर सरगम साँसों की आहें अब भी बाकी।।

राग बिखरने से पहले प्रिय वीणा के तार सँभालो।।

पास तेरे आ चुका हूँ दूर अब जाना नहीं है।।

दिन ने माना दिया बहुत कुछ कम रातों ने भी दिया नहीं।।

देख खुशियाँ आ रही हैं।

जब बिछड़ना है हमें कहो कैसे मन के तार बाँधूं।।

सोचते ही रह गये।

अंक में बस प्यार लिखना।

काश समय की बहती धारा मैं मोड़ उधर ले आ पाता।।

चंचल नदिया लहराने दो।।

साथी पर अब चलना होगा।।

आशाओं के पुष्प खिलाओ।।

गात का नव आवरण हो।

देख संध्या ढल रही है।
देख संध्या ढल रही है।
मुक्त हो कर बंधनों से मिल रहे धरती गगन
झूमती हैं नाचती हैं बदलियाँ भी हो मगन
सज रहे गीत मनहर देख सागर के किनारे
चाहतों की तितलियाँ गीत में तुमको पुकारे
आज फिर से मिलन की आस मन में पल रही है
देख संध्या ढल रही है।।
ढल रहा है सूर्य देखो बादलों के अंक में
घुल रही है सांध्य देखो चाँदनी के रंग में
सांध्य का चमका सितारा कह रहा है पास आ
आ मिलें हम इस सफर में देखो अब न दूर जा
इस सफर की राह भी साथ अपने चल रही है
देख संध्या ढल रही है।।
रश्मियाँ भी चाँद की देखो धरा को चूमती
ओढ़ कर आँचल गगन का मस्त हो कर झूमती
पंछियों के शांत स्वर भी कुछ इशारे कर रहे
दूर मन को छाँव के, सुंदर नजारे हर रहे
आस के आकाश की चाह मद्धम पल रही है
देख संध्या ढल रही है।।
चाहता है दिल यहाँ अब बात सब कुछ बोल दूँ
बंद सदियों से हृदय के द्वार सारे खोल दूँ
बोल दूँ भाव सारे जो बसे दिल में हमारे
तुम कहो पंक्तियों में आज भर दूँ चाँद तारे
देख तुमको गगन की बदलियाँ भी जल रही हैं
देख संध्या ढल रही है।।
है तमन्ना चाहतों के गीत सब अर्पित करूँ
और अधरों पर हृदय के प्रीत मैं अंकित करूँ
स्वप्न सिन्दूरी सजाऊँ नैन की पाँखुरी में
और भर दूँ नेह बस इस सुकोमल आँजुरी में
स्वप्न सिन्दूरी लिए चाँदनी भी चल रही है
देख संध्या ढल रही है।।
रात से निस्तार होकर चाँदनी बिखरी यहाँ
रूप का श्रृंगार पाकर कामना निखरी यहाँ
आ भी जाओ गीतों की पंक्तियाँ खो न जायें
रात की आगोश में रश्मियाँ भी सो न जायें
सो न जाये प्रीत की दीपिका जो जल रही है
देख संध्या ढल रही है।।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
09अक्टूबर, 2022

आहों के कुछ चिन्ह बचे हैं यादों में मेरे रहने दो।।

कुछ तो लगाव है।

कितने प्रश्न रुके अधरों पर आधार यहाँ मालूम नहीं।।

आज मिला जब मन से मन का दर्पण मन पर रीझ गया।।

चुप को हथियार बना।

थे स्वप्न नयनों में मगर रात जाने खो गईं।।

जो अगर मैं शब्द होता गीत मैं बनता तुम्हारा।।

लग रहा नैन तेरे राह मेरी जोहते हैं।।

जयद्रथ वध।
जयद्रथ वध
जयद्रथ वध
भाग 1
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद

एक झलक प्रियवर की पाकर जो चमक जाती यहाँ ।।

चुभे हृदय में शूल।।

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