खयाल तेरी तरफ गया

खयाल तेरी तरफ गया

हुई उदास शाम तो खयाल तेरी तरफ गया
बात हुई आम तो खयाल तेरी तरफ गया

इक आह सी दबी रही दिल के कोर में कहीं
टीस जब उठी खभी खयाल तेरी तरफ गया

कदम-कदम पे जिंदगी ये जंग सी रही सदा
जब कभी ये दिल डरा खयाल तेरी तरफ गया

के उम्र भर सफर मेरा हादसों से था भरा
बेचैन जब हुआ कभी खयाल तेरी तरफ गया

दिल पे किसका जोर है देव कब तेरा हुआ
बात इश्क की चली खयाल तेरी तरफ़ गया

✍️ अजय कुमार पाण्डेय

चाहत

चाहत

ये जीवन एक रस्ता है तो इसकी चाहतें तुम हो,
जो साँसों की जरूरत है तो इसकी राहतें तुम हो।

नहीं तुम बिन कोई मंजिल नहीं कोई किनारा है
जो भाये इन किनारों को वो इसकी आदतें तुम हो

नहीं मुमकिन गुजारूँ जिंदगी तन्हा मैं आहों में
ये तन्हाई मिटा दे जो वो इसकी आहटें तुम हो

बिछे हैं हर कदम जो फूल मेरे गीतों की राहों में
जो मेरे गीत साँसें हैं तो इनकी राहतें तुम हो

कहाँ जाऊँ छुड़ाकर हाथ नहीं कोई सहारा है
बसे हो देव पलकों में अब इसकी आदतें तुम हो

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15 फरवरी, 2024

अनकही एक कहानी

अनकही एक कहानी

एक संशय हृदय में पनपता रहा इक कहानी अधूरी कहीं रह गयी,
चाह कर बात अधरों पे आ न सकी रात भी मौन हो अनकही रह गयी।

उम्र लिखती रही रेत पर गीतिका छंद फिर भी अधूरे सिसकते रहे,
मोम बन साँस पल-पल पिघलती रही रोशनी के लिए मन मचलते रहे।
एक संशय अधूरा सिसकता रहा इक जवानी अधूरी कहीं रह गयी,
चाह कर बात अधरों पे आ न सकी रात भी मौन हो अनकही रह गयी।

एक वादा न खुद से सँभाला गया साथ हो कर भी मधुरात हो न सकी,
चाँद का हर सफर ये अधूरा रहा ऊँघती ही रही रातें सो न सकी।
चाँदनी संशयों में उलझती रही रातरानी अधूरी कहीं रह गयी,
चाह कर बात अधरों पे आ न सकी रात भी मौन हो अनकही रह गयी।

रात दिन याद के मेघ छलते रहे इक तमन्ना हृदय में पिघलती रही,
चाहतों को नजर कुछ लगी इस तरह हर तमन्ना कलेजा मसलती रही।
कोर को रात दिन मेघ छलते रहे हर निशानी अधूरी कहीं रह गयी,
चाह कर बात अधरों पे आ न सकी रात भी मौन हो अनकही रह गयी।

भोर की आस में रात सो ना सकी जब हुई भोर तो नींद ही छल गयी,
याद के पृष्ठ पर चित्र उभरे मगर कैसे कहते के प्रीत ही छल गयी।
पृष्ठ के चित्र सारे बिछड़ते रहे तूलिका ही अधूरी कहीं रह गयी,
चाह कर बात अधरों पे आ न सकी रात भी मौन हो अनकही रह गयी।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14 फरवरी, 2025

रुक ना जाना तुम मुसाफिर

रुक ना जाना तुम मुसाफिर।  

शून्य से निकला सफर ये मौन इन पगडंडियों पर
सफर लंबा ये माना रुक ना जाना तुम मुसाफिर।।

चलते चलते खो ना जायें परछाईयाँ रास्तों पर
और विस्मृत हो न जायें यादें मन के रास्तों पर
हो चले जब तोड़ कर सब मोह माया बंधनों को
फिर पलट कर देखना क्या बीती को इन रास्तों पर।।

स्मृतियों के पदचिन्हों से दूर तू निकला यहाँ पर
सफर लंबा ये माना रुक ना जाना तुम मुसाफिर।।

द्वार से कितनी दफा तुम लौट कर आये वहाँ से
खटखटाये तुम न जाने द्वार अपनी भावना से
जब हो मरुस्थल सी दशा अंक में कुछ भी नहीं हो
खिलखिला कर पूछना प्रश्न स्वयं अपनी आत्मा से।।

आशियाँ तुझसे यहाँ फिर खोजता किसको यहाँ पर
सफर लंबा ये माना रुक ना जाना तुम मुसाफिर।।

जान ले इस पंथ पर पीछे जाने का ना रास्ता
है साथ ना तेरे कोई फिर क्या किसी से वास्ता
तू अकेला कब यहाँ पगडंडियाँ तेरी मीत हैं
झूम कर फिर चल यहाँ अपना ढूँढ़ ले तू रास्ता।।

लौट कर आता कहाँ वो वक्त जो निकला यहाँ पर
सफर लंबा ये माना रुक ना जाना तुम मुसाफिर।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद

विधना का लेख

विधना का लेख

दो कड़ियाँ जोड़ सकूँ जीवन की इतनी सी बस चाहत थी,
लेकिन विधना के लिखे लेख को चाहा बदल नहीं पाया।

तिनका-तिनका जोड़ा प्रति पल लाखों जतन यहाँ कर डाले,
अपने मन को मार-मार कर औरों के बस सपने पाले।
कुछ चाहा लेकिन किया नहीं अरु अपने मन की जिया नहीं,
उलझे ऐसे यहाँ जगत में के पैबंदों को सिया नहीं।

दो पैबंद लगा लूँ मन में बस इतनी सी ही चाहत थी,
लेकिन विधना के लिखे लेख को चाहा बदल नहीं पाया।

कितना चाहा दूर हो सके मन विचलन की हर राहों से,
कितना चाहा मुक्त हो सके मन फिसलन से हर आहों से।
हों कंटक कितने भले तने में पुष्प खिला ही करता है,
दूर रहें कितने भी अपने पर हृदय मिला ही करता है।

मन से मन को पुनः मिला लूँ बस इतनी सी ही चाहत थी,
लेकिन विधना के लिखे लेख को चाहा बदल नहीं पाया।

कुरुवंशों के सभी पाप को संवादों से धोना चाहा,
श्रेष्ठ जनों की पुण्य छाँव में दो पल को बस सोना चाहा।
लेकिन मन में दुर्योधन हो असत्य सदैव ही पलता है,
अधम पाप मन में बैठा हो तो प्रथम स्वयं को छलता है।

संबंधों के भाव सँभालूँ बस इतनी सी ही चाहत थी,
लेकिन विधना के लिखे लेख को चाहा बदल नहीं पाया।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09 फरवरी, 2024

मुक्तक

जब-जब भी तू बढ़ेगा तेरे पास आऊँगा।
मैं रास्तों से तेरे सभी काँटे हटाऊँगा।
यहाँ जिंदगी की दौड़ में जब दोनों हों खड़े,
फिर तुझसे हार कर भी मैं तो जीत जाऊँगा।

जो मैं हूँ इक पतंग तो तू डोर है मेरी।
एक छोर मैं खड़ा तो दूजी छोर तू खड़ी।
अब बिन तेरे ये जिंदगी की जंग है कठिन,
जो हर कदम तू साथ है तो जीत है मेरी।

गीत में तू बसी प्रार्थना में बसी।
चाहतों में सजी कामना में सजी।
साँस की आस तुझसे जुड़ी इस तरह,
कल्पना में सजी भावना में बसी।

तुम्हारे वास्ते माँगूँ कहो तुम ही मैं क्या माँगूँ।
काँटे राह के चुन लूँ दुआयें जीत की माँगूँ।
करो गर तुम इशारा तो बनूँ परछाइयाँ तेरी,
तुम्हारी नींद मैं सोऊँ तुम्हारी नींद मैं जागूँ।

तब जाकर बनती है कविता

तब जाकर बनती है कविता

भावों का सागर उमड़े जब तब जाकर बनती है कविता
आहों में भी प्रेम सजे जब तब जाकर बनती है कविता।

कहीं हृदय के प्रेमांगन में भावों का सागर लहराये,
जब कोई साँसों का बंधन मन के भावों को छू जाये।
कभी अधर पर मुस्कानों की हल्की रेख कहीं खिंच जाये,
जब पलकों के किसी कोर पर आँसू धीरे से मुस्काये।
साँसें जब अल्हड़ हो जायें तब जाकर बनती है कविता।

जब लोगों से भरी भीड़ में सूना कोना मन को भाये,
पलकों के द्वारे पर अकसर कोई पल-पल आये जाये।
एकाकीपन मन तड़पाये गीत विरह का मन को भाये,
मन का बोझ सँभल ना पाये आँसू पलकों में भर जाये।
छन से सपना जब गिर जाये तब जाकर बनती है कविता।

मन के पावन नीलगगन में जब यादों की बदली छाये,
खुली पलक का कोई सपना रातों में करवट दे जाये।
तकिये की सिलवट में जब-जब चिट्ठी की वो खुशबू आये,
जब पुस्तक के किसी पृष्ठ में सूखा हुआ पुष्प मिल जाये।
सूखी पंखुरियाँ जब महके तब जाकर बनती है कविता।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        05 फरवरी, 2024


बिन संघर्षों के जीवन में पाया उसका मोल नहीं

बिन संघर्षों के जीवन में पाया उसका मोल नहीं

कुरुक्षेत्र का रण जीवन है पग-पग अगणित बाधाएँ
मोड़-मोड़ अवरोध बड़े हैं मोड़-मोड़ पर विपदाएँ।
विपदाओं के शीर्ष शिखर या शूल भरे हों राहों में,
सूख रहे हों कंठ तपिश से ज्वाला से या आहों से।
अलसाई आँखों की खातिर सपनों का कुछ मोल नहीं।

कंकड़-कंकड़ डाला घट में तब पानी ऊपर आया,
कितने छाले फूटे होंगे तब जाकर मंजिल पाया।
कितनी रातें जागी होंगी तब सपनों का महल बना,
पत्थर कितने तोड़े होंगे तब ये रस्ता सरल बना।
सहज भाव से यदि मिल जाये पानी उसका मोल नहीं।

दर्द नहीं जिनके जीवन में मोल खुशी का क्या जानें,
पीड़ा जिनको समझ न आई पीर किसी की क्या जानें।
जिन रिश्तों ने दर्द न झेला अपनापन क्या जानेंगे,
अपनों से जो जीते केवल खुशी हार की क्या जानेंगे।
बिन अपनों के मिली जीत का जीवन में कुछ मोल नहीँ।

कर्तव्यों के महाकुंभ में प्रतिदिन एक नहावन है,
इसकी डुबकी यहाँ जगत में गंगा जल सा पावन है।
प्रतिदिन घाट सजाता जीवन प्रतिदिन बहती जलधारा,
बूँद-बूँद कर में अंकित होती रहती अमृत धारा।
कर्तव्यों के बिना मिले जो अधिकारों का मोल नहीं।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03 फरवरी, 2024

कर्तव्य पथ

कर्तव्य पथ

हार पर चीत्कार क्यूँ हो जीत का उल्लास क्यूँ हो,
जो मिला है आज पथ पर प्रभु शीश पर उसको धरूँ,
सामर्थ्य इतना दो मुझे कर्तव्य पथ पर चल सकूँ।

पथ कंटकों से हों भरे अवरोध हों चाहे भरे,
चाहे शिलाएं शीर्ष तक या सूझे कुछ भी न परे।
ये रात काली हो भले या काल सी लंबी भले,
हों बंद सारे रास्ते और रोशनी कुछ ना मिले।

अब क्यूँ अँधेरों से डरूँ जब शीश प्रभु का हाथ हो,
सामर्थ्य इतना दो मुझे कर्तव्य पथ पर चल सकूँ।

दर्द का साम्राज्य हो या वेदना चारों तरफ हो,
भ्रम का पारावार हो अनभिज्ञता चारों तरफ हो।
थक चुके हों पैर चाहे या शूल कितने हों चुभे,
टिमटिमाती रोशनी के दीपक भले बुझते रहें।

वेदना अज्ञानता में प्रभु ज्ञान का उपहार हो,
सामर्थ्य इतना दो मुझे कर्तव्य पथ पर चल सकूँ।

अब हो भला चाहे बुरा परिणाम सब स्वीकार है,
मैं दोष माथे पर मढूँ मुझको नहीं अधिकार है।
जो कुछ मिला मुझको जगत में आपका आशीष है,
द्वार पर प्रभु आपके प्रतिपल झुका मेरा शीश है।

कर्तव्य पथ पर चल सकूँ शीर्ष मेरा व्यवहार हो,
सामर्थ्य इतना दो मुझे कर्तव्य पथ पर चल सकूँ।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28 जनवरी, 2024



बनारस

बनारस

दुनिया खातिर मात्र शहर है,
अपनी तो है जान बनारस।
इटली पेरिस सबके होंगे,
अपनी तो है शान बनारस।
गली मुहल्ले घाट बनारस,
सड़क-सड़क पर हाट बनारस।
गंगा का है घाट बनारस,
जीवन का है ठाठ बनारस।
साड़ी है श्रृंगार बनारस,
है भक्ति का संसार बनारस।
शिक्षा का है केंद्र बनारस,
कण-कण है सर्वेन्द्र बनारस।
मस्ती का है नाम बनारस,
घर-घर इसका धाम बनारस।
वेदों का है मंत्र बनारस,
ज्ञान-ध्यान है तंत्र बनारस।
इक दूजे का प्यार बनारस,
गीता का है सार बनारस।
मस्ती में मशगूल बनारस,
सृष्टी का है मूल बनारस।
सत्य कामना सोच बनारस,
जीवन, मृत्यु मोक्ष बनारस।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
         22 जनवरी, 2024



बदली यादों की

बदली यादों की

हमने मन के हर भावों को,
गीतों का रूप दिया साथी।
मेरे मन के इन गीतों को,
आ धीरे से सहला जाना।
यादों की बदली जब छाए,
बरखा बन साथी आ जाना।

कुछ दूर रहे कुछ पास रहे,
कुछ भूल गये कुछ याद रहे।
कुछ पलकों के दरवाजे पे,
गुमसुम-गुमसुम चुपचाप रहे।
कुछ बूँदें बनकर बिखर गए,
कुछ गिरने को बेताब रहे।
बेताबी के उन भावों को,
गीतों का रूप दिया साथी।
बेताबी के इन भावों को,
तुम धीरे से बहला जाना।
यादों की बदली जब छाए,
बरखा बन साथी आ जाना।

गलियों-गलियों बस्ती-बस्ती,
हर मोड़-मोड़ पे देखा है।
जंगल-जंगल शहरों-शहरों,
पग-पग इक जीवन रेखा है।
परबत-परबत सागर-सागर,
जानी पहचानी रेखा है।
रेखाओं की पृष्ठभूमि में,
रंगों से भाव भरा साथी।
रेखाओं के इन रंगों में,
कुछ तुम भी रंग मिला जाना।
यादों की बदली जब छाए,
बरखा बन साथी आ जाना।

जब सांध्य ढले गोधूली में,
सूरज मद्धम हो जायेगा।
दूर क्षितिज जब सागर तल में,
चुपके-चुपके खो जायेगा।
जीवन की गोधूली में जब,
पतझड़ का मौसम आयेगा।
पतझड़ के वो सूखे मौसम,
फिर पुष्पित हो जायें साथी।
पलकों के नील सरोवर में,
फिर नूतन स्वप्न खिला जाना।
यादों की बदली जब छाए,
बरखा बन साथी आ जाना।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22 जनवरी, 2024





माहिया

माहिया

ये दिल की बातें हैं
दिल ही तो जाने
बीती जो रातें हैं

रात में नहीं आना
लाखों पहरे हैं
दिल को ये समझाना

दिल को क्या समझाऊँ
दिल की बातों को
कैसे मैं बतलाऊँ

ये बात नहीं अच्छी
झूठ नहीं कहता
ये प्रीत नहीं कच्ची

दिल तो बेचारा है
हाल वहाँ पर जो
वो हाल हमारा है

वो दिन फिर आयेंगे
दूर नहीं होंगे
हम जब मिल जायेंगे

✍️अजय कुमार पाण्डेय

व्याकरण की पृष्ठभूमी पर उठाती उँगलियाँ।

व्याकरण की पृष्ठभूमी पर उठाती उँगलियाँ।

कुछ शब्द के अनुरोध को पंक्तियाँ स्वीकार कर,
व्याकरण की पृष्ठभूमी पर उठाती उँगलियाँ।
जो लिखी ही न गयी हो आज तक किसी पृष्ठ पर,
हैं उठाते प्रश्न उस पर तिलमिलाती बदलियाँ।

सत्य पर पहरे लगाकर झूठ अब इतरा रहा,
धुंध का लेकर सहारा रश्मि को ठुकरा रहा।
आँधियाँ फिर से मचलकर द्वार का पथ रोकती,
धूल धूसर हो यहाँ पर रश्मियों को टोकतीं।

जो असल में ही नहीं है व्यर्थ ही स्वीकार कर,
व्याकरण की पृष्ठभूमी पर उठाती उँगलियाँ।

जब उजाले खौफ खायें रश्मियाँ छुपने लगें,
जब अँधेरे झूम कर आकाश को ढकने लगें।
राह में जब पौन के ही पत्थरों का ढेर हो,
नेह के बदले दिलों में पल रहा जब बैर हो।

अब अँधेरों के कथानक व्यर्थ ही स्वीकार कर,
व्याकरण की पृष्ठभूमी पर उठाती उँगलियाँ।

शीर्ष ही जब दे प्रलोभन निम्न क्यूँ उद्द्यम करे,
श्रेष्ठ भी तब ज्ञान को अज्ञानता के सम करे।
योग्यता के पैर में जब हो कँटीली बेड़ियाँ,
व्यर्थ के आधार पर बनने लगी हैं श्रेणियाँ।

ज्ञान अस्वीकार कर अब स्वार्थ अंगीकार कर,
व्याकरण की पृष्ठभूमी पर उठाती उँगलियाँ।

धर्म पर आक्षेप लगने जब लगे अज्ञानता से,
तुच्छता बढ़ने लगे जब समर्पित मान्यता से।
झूठ के आकाश में जब पल रही अभिव्यक्तियाँ,
फिर सुनेगा कौन मन के नेह की अभिवृत्तियाँ।

धर्म सम्मत पंथ के हर ज्ञान को व्यापार कर,
व्याकरण की पृष्ठभूमी पर उठाती उँगलियाँ।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16 जनवरी, 2024






मुक्तक

मुक्तक

कि इन पलकों में सपनों को सँजोना चाहता हूँ मैं।
के खुशियों की फुहारों से भिंगोना चाहता हूँ मैं।
कहूँ कितना मैं भटका हूँ दिलों की राजधानी में,
पलक के कोर में छोटा सा कोना चाहता हूँ मैं।

हजारों बात हैं लेकिन न कोई बात आयी है।
तुम्हारी याद न आये न ऐसी रात आयी है।
मिरे सपने मेरी यादें हैं सभी कुछ साक्षी इसके,
बिना तेरे सितारों की नहीं बारात आयी है।

कि लिखे जो गीत चाहत के सुनाना चाहता हूँ मैं।
हमारे दिल में है क्या-क्या जताना चाहता हूँ मैं।
बिना तेरे सफर दिल का अधूरा मुझको लगता है,
बस इतनी बात इस दिल की बताना चाहता हूँ मैं।

पुराने दोस्त यादों की विरासत साथ रखते हैं।
नजर से टोह रखते हैं नजाकत साथ रखते हैं।
बिना बोले हृदय की बात सारी जान जाते हैं,
दिल को जीत लेती हो वो आदत साथ रखते हैं।

सफर हो खुशनुमा सबका इबादत रोज करता हूँ।
खुशी की चाह रखता हूँ नजर को तेज रखता हूँ।
हजारों ख्वाहिशों का बोझ काँधों पे लिये हरदम,
छुपा कर ख्वाहिशें अपनी सफर हर रोज करता हूँ।

तुम्हारे बीच मेरे बीच अभी कुछ बात बाकी है।
है कहीं कुछ तो बचा ऐसा कि जो जज्बात बाकी है।
ये मेरी हिचकियाँ मुझको यूँ ही सोने नहीं देती,
कहीं दिल में तुम्हारे अब भी मेरी याद बाकी है।

बिना तेरे निगाहों को कहीं अच्छा नहीं लगता।
कहे कुछ भी कहीं कोई मगर अच्छा नहीं लगता।
कैसी कशमकश है मेरे दिल की राजधानी में,
हजारों हैं निगाहों में मगर सच्चा नहीं लगता।

समझता हूँ दिलों की मैं तुम्हारी भावनाओं को।
समझता हूँ इशारों को तुम्हारी कामनाओं को।
नहीं समझो के पत्थर हूँ कहीं मजबूरियाँ कुछ हैं,
समझता हूँ हमारे दिल की सारी आशनाओं को।

मेरे हर गम-खुशी में बस तुम्हारा नाम आयेगा।
मेरे हर गीत गजलों में तुम्हारा नाम आयेगा।
अब मिले बदनामियाँ कितनी मुझे चाहे जमाने में,
मेरी बदनामियों में भी तुम्हारा नाम आयेगा।

ना है शिकवा जमाने से नहीं कोई शिकायत है।
नहीं रुसवाईयाँ कोई नहीं कोई अदावत है।
जैसा भी हूँ मैं वैसा तुम्हारे सामने ही हूँ,
के तुम मानो या न मानो नहीं कोई मिलावट है।

दिल में कितनी कहानी छुपाये हुए।
कितने लम्हें हुये गुनगुनाये हुए।
बिन तेरे अब कहीं गीत सजते नहीं,
कितनी सदियाँ हुईं ये जताये हुए।

एक वादा मिलन का अधूरा रहा।
हर इरादा नयन का अधूरा रहा।
उम्र भर इक कमी सी कहीं रह गयी,
उम्र को गुनगुनाना अधूरा रहा।

वक्त का क्या पता कब गुजर जायेगा।
रेत सा हाथ से कब बिखर जायेगा।
इस घड़ी में चलो एक हो जायें हम,
कौन जाने कहाँ कब बिछड़ जायेगा।

मैं वही तुम वही और वही रास्ता।
कैसे कह दें नही अब कोई वास्ता।
बिन कथानक कहानी अधूरी है ये,
बन सकेगी नहीं फिर कोई दास्ताँ।

दौड़ता ही रहा जिस खुशी के लिये
वो खुशी आज तक भी मिली ही नहीं।
चलते-चलते यहाँ पांव थकते रहे
छाँव लेकिन कहीं भी मिली ही नहीं।
दिन गुजरता रहा रात होती रही
चांदनी पर कभी भी खिली ही नहीं।

नयन के कोर ये यूँ ही नहीं गीले हुए होंगे।
हृदय की भावनाएं दर्द से गीले हुए होंगे।
कि हिचकी बताती है तुम्हारे दिल के हालत को,
बिन मौसम हुई बरसात नयन गीले हुए होंगे।

तुम्हारे पास कहने के बहाने कम नहीं होंगे।
तुम्हारे चाहने वाले दिवाने कम नहीं होंगे।
बहुत अफसोस होगा तुमको इक दिन इस अदावत पे,
बहुत होंगे तुम्हारे पास लेकिन हम नहीं होंगे।

के नदिया को समंदर के मुहाने की जरूरत है।
ये लहरों के मचलकर पास आने की जरूरत है।
नहीं ऐसा के नदिया को समंदर ही सहारा है,
समंदर को भी नदिया के सहारे की जरूरत है।

सुहाने थे पुराने दिन वो अकसर याद आते हैं।
बिताए पल जो अकसर साथ में वो याद आते हैं।
चले जाते हैं अकसर छोड़ कितने बीच राहों में,
मगर इन दूरियों में भी दिलों को पास लाते हैं।


कुछ पल खातिर आ जाओ

कुछ पल खातिर आ जाओ

तप्त हृदय को शीतल कर दे, कुछ ऐसा भाव जगा जाओ,
जाना तो इक रोज यहाँ है, कुछ पल खातिर ही आ जाओ।

धूल धूसरित यादें मन की, झुरमुट में छुपी कहानी है,
तुम से तुम तक जो जाती है, वो हमको आज सुनानी है।
यादों के मान सरोवर में, नील कमल वही खिला जाओ,
जाना तो इक रोज यहाँ है, कुछ पल खातिर ही आ जाओ।

शब्द-शब्द की सीमायें हैं, भावों पर अवरोध नहीं है,
कितने गीत लिखे जगती पर, इसका भी अब बोध नहीं है।
शब्दों की हर सीमाओं का, तुम बोध कराने आ जाओ,
जाना तो इक रोज यहाँ है, कुछ पल खातिर ही आ जाओ।

आँसू भी अच्छे लगते हैं, जब तक खुशियों के होते हैं,
गिर पड़ते हैं बिछड़ कोर से, आहों को वो कब ढोते हैं।
आँसू के हर इक भावों का, अब मर्म बताने आ जाओ,
जाना तो इक रोज यहाँ है, कुछ पल खातिर ही आ जाओ।

इस दुनिया से जाने वाले, यादों में जिंदा रहते हैं,
और कभी मन की खिड़की से, पृष्ठों पर छपते रहते हैं।
बन जाये ना कहीं कथानक, अपनी पहचान बता जाओ,
जाना तो इक रोज यहाँ है, कुछ पल खातिर ही आ जाओ।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       06 जनवरी, 2024




काशी के महिमा

काशी के महिमा

काशी के बारे में का का बताई
महिमा यह नगरी के कइसे सुनाई।
जिहइं ओर देखा हौ रेला पे रेला
गली चौक चौराहा न केहू अकेला।
गाड़ी चलई जइसे हाथी चलत बा
एहकी से ओहकी गली सब मिलत बा।
कहीं हौ कचौड़ी कहीं हौ समोसा
कड़ाही-कड़ाही छनत हौ भरोसा।

गंगा के तीरे पे चाही के चुस्की
संझा सवेरे मचे खाली मस्ती।
भोले के महिमा से जीवन मिलत बा
कहउँ ओर देखा शहर इ खिलत बा।
गली हो मोहल्ला हौ सांडन के रेला
मस्ती की नगरी में हरदम हौ खेला।
नहीं कौनो चिंता न कौनो फिकर बा
हर-हर औ बम-बम के इतना असर बा।

गमछा कमर में और कान्हे अँगौछा
फैशन इहाँ हौ नजर के बस धोखा।
अन्धियारे में यहिं के एतना उजास बा
के गाली में बोली में देखा मिठास बा।
न इहाँ गैर कोई और न कोई पराया
यहीं हो कि रहि गा इहाँ जे भी आया।
कण-कण में भोले हैं कण-कण जीवन बा
ई बाबा के नगरी हौ इहाँ मृत्यु मिलन बा।

बंधन से पापों से मुक्ति दिलाई
सत्यम शिवम सुंदरम हौ भलाई।
काशी के बारे में का का बताई
महिमा यह नगरी के कइसे सुनाई।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        26 दिसंबर, 2024

मुक्तक

मुक्तक

कुछ गलती तेरी थी साथी और कुछ गलती मेरी थी।
कुछ उम्मीदें तेरी टूटी और कुछ टूटी मेरी थीं।
इस हृदय के सूनेपन ने वीथी पर देखा जब मुड़कर,
कुछ तेरी यादें छूटी थीं और कुछ छूटी मेरी थीं।

इन यादों को सिरहाने रख जब कभी अकेले हो लेता हूँ।
दुनिया की इस महफ़िल में साथी मैं भी खुद को खो लेता हूँ।
क्या कहना क्या सुनना साथी अब और नहीं अफसोस मुझे है,
अब स्वयं अकेले हँस लेता हूँ और अकेले रो लेता हूँ।

भीड़ भरी तन्हाई में मैं मौन अकेले रह लेता हूँ।
आहें आँसू रस्में कसमें सभी अकेले सह लेता हूँ।
है बहुत जताया इस दुनिया ने हमदर्दी अब और नहीं,
मन ही मन बातें करता हूँ मन से मन की कह लेता हूँ।



देख कर गीत तुमको मचलने लगे

देख कर गीत तुमको मचलने लगे

पृष्ठ पर शब्द खुद ही सँवरने लगे,
देख कर गीत तुमको मचलने लगे।

दूर रह ना सके पास आने लगे,
बेसबब गीत दिल गुनगुनाने लगे।
चाह कर दूर मन से नहीं हो सके,
क्या कहें रात भर क्यूँ नहीं सो सके।

जागती रात करवट बदलने लगे,
स्वप्न खुद गीत बनकर मचलने लगे।

दो अलग राह कब तक अकेली चले,
सोचती हर घड़ी अब मिले तब मिले।
मोड़ तक जा कदम खुद ब खुद रुक गये,
देख कर छाँव दिल की वहीं झुक गये।

वो मिलन सोचकर मन सिहरने लगे,
भाव खुद गीत बनकर मचलने लगे।

एक मन को सिवा कुछ नहीं आसरा,
मन नहीं गा सके गीत जब दूसरा।
जब सभी भाव मन के सिमटने लगे,
खुद की आगोश में खुद लिपटने लगे।

सोच कर ये मिलन जब बहकने लगे,
गात खुद गीत बनकर मचलने लगे।
पृष्ठ पर शब्द खुद ही सँवरने लगे,
देख कर गीत तुमको मचलने लगे।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25 दिसंबर, 2024

विदाई की घड़ी

विदाई की घड़ी

इस विदाई की घड़ी में वेदना बन गीत छलके,
गीत की उन पंक्तियों से देख लो घबरा न जाना।

मै नहीँ हूँ तुम नहीं हो है समय का खेल सारा,
क्या करेंगे जान कर अब कौन जीता कौन हारा।
इस समय के खेल में जब आह बनकर गीत छलके,
अश्रु की उस भावना से देख लो घबरा न जाना।

इस हृदय के कोर में जो पत्र अब तक हैं अधूरे,
रो पड़ेंगे पत्र सारे हो सके न क्यूँ वो पूरे।
वो अधूरी कामना फिर गिर पड़े जब अश्रु बनके,
गीत की उन पंक्तियों से देख लो घबरा न जाना।

हो रहें हम दूर कितने पर जमाना जानता है,
जो रचे हैं गीत हमने गुनगुनाना जानता है।
गीत की उन पंक्तियों से जब हृदय में प्रीत छलके,
प्रीत की उन पंक्तियों से देख लो घबरा न जाना।

ये विरह की भी घड़ी है दे रही कुछ तो निशानी,
आँख भी जल में विलय हो लिख रही मन की कहानी।
इस विलय से दर्द को जब हार में भी जीत छलके,
जीत की उन पंक्तियों से देख लो घबरा न जाना।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22 दिसंबर, 2024



ऐसे ही बस हँसते रहना

ऐसे ही बस हँसते रहना

कसमें वादे प्यार वफ़ा सब,
आहें आँसू मिलन जुदाई।
लांछन मेरे आभूषण हैं,
सह लेंगे सारी रुसवाई।
तुमसे कोई द्रोह नहीं है,
बस इतना है तुमसे कहना।
ऐसे ही बस हँसते रहना।

कहो अकेले अब भी छुपकर,
गीत हमारे क्या सुनती हो।
दूर क्षितिज संध्या मुस्काये,
स्वप्न नये क्या फिर बुनती हो।
लहरों के संग-संग अब भी,
दूर किनारे, क्या जाती हो।
बारिश के पानी में अब भी,
बालों को क्या लहराती हो।
बारिश जब-जब मन बहकाये,
बूँदों के संग-संग बहना।
ऐसे ही बस हँसते रहना।

मेरे हिस्से पुण्य अगर हो,
तेरे आँचल में सब भर दूँ।
रोक रहा यदि बंधन कोई,
मुक्त सभी बंधन मैं कर दूँ।
बातें हों या ताने जग के,
हँसकर सारे मैं सह लूँगा।
छूट गये जो सभी सहारे,
बिना सहारे भी रह लूँगा।
मुझको अब अफसोस नहीं है,
अफसोस नहीं तुम भी करना।
ऐसे ही बस हँसते रहना।

धन्य-धन्य तुम प्रेम ग्रंथ के,
सारी शर्तों को है त्यागा,
कितने युद्ध लड़ूँगा खुद से,
हारा हूँ पर नहीं अभागा।
भूल पुरानी यादें सारी,
तुम जीवन में बढ़ते जाना।
मैं तो हूँ इक कवि अनजाना,
मुझको है किसने पहचाना।
मेरे गीतों को जब सुनना,
पलकों को तुम वश में रखना।
ऐसे ही बस हँसते रहना।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21 दिसंबर, 2024

एक उम्र का सफर

एक उम्र का सफर

अजनबी है राहें और अजनबी ये जिंदगी,
एक उम्र का सफर यहाँ तय कर रहे सभी।
क्या जाने किस गली में ही मिल जाये जिंदगी,
एक उम्र का सफर यहाँ तय कर रहे सभी।

चलना कहाँ ठहरना कहाँ कब अपने हाथ था,
ये वक्त उम्र भर कहो कब किसके साथ था।
एक पल में जो मिली है हमें वो है जिंदगी,
एक उम्र का सफर यहाँ तय कर रहे सभी।

किस्मत ये कब किसी की कहो हरपल सगी हुई,
कल तक जो साथ-साथ थी कल और की हुई।
किस्मत से जो मिला है हमें वही है जिंदगी,
एक उम्र का सफर यहाँ तय कर रहे सभी।

क्या जाने मोड़ कौन सा हम सबको जुदा करे,
अपने-अपने हिस्से का हक़ हम अदा करें।
एक दूजे की करें यहाँ हँसकर के बंदगी,
एक उम्र का सफर यहाँ तय कर रहे सभी।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       17 दिसंबर, 2024

आओ ऐसे प्यार करें

आओ ऐसे प्यार करें 

पीर पुनः कहानी बनकर इन नयनों से बह न जाये,
गीत बनाकर हर पीड़ा को अधरों से मनुहार करें,
आओ ऐसे प्यार करें।

जो कुछ मुझमें बाकी है तुम पर सभी निछावर कर दूँ,
अपनी खुशियाँ देकर के पीर सभी तुम्हारे हर लूँ।
तुमको देखूँ तुमको समझूँ तुमपर ही सबकुछ वारूँ,
अपने जीत समर्पित कर दूँ तुमसे ही पग-पग हारूँ।
हार-जीत के उन्मादों में कोई कसर नहीं रह जाये,
कर के अपनी जीत समर्पित खुद पर हम उपकार करें,
आओ ऐसे प्यार करें।

केवल पृष्ठों में रहकर गीत हमारे रह ना जायें,
व्यर्थ यूँ ही अश्रुओं में घुल स्वप्न अपने बह न जायें।
चुप रह न जायें भावनाएँ मौन आहों में सिमटकर,
ना बीत जाये उम्र अपनी मौन यादों में लिपटकर।
गीत अपनी भावनाओं का अधूरा नहीं रह जाये,
हम छंद से इसको सजाकर जीवन का श्रृंगार करें,
आओ ऐसे प्यार करें।

तुम मेरा आकाश ले लो मैं धरा ले लूँ तुम्हारी,
मुक्त हो सब बंधनों से लेकर चलें अपनी सवारी।
ना फिक्र साँसों की रहे और न फिक्र आहों की रहे,
मिलकर कहें हम भाव सारे अब तक रहे जो अनकहे।
जो अनकहे थे भाव मन के अनकहे ही रह न जायें,
हम भावनाओं को सजाकर जीवन को उपहार करें,
आओ ऐसे प्यार करें।

 ✍️अजय कुमार पाण्डेय 
        हैदराबाद 
        15 दिसंबर, 2024


दर्द काली रात का

दर्द काली रात का

दर्द काली रात का क्यूँ आज तक जाता नहीं,
दर्द को उस जख्म को क्यूँ वक्त सहलाता नहीं।

घुल गया उस रोज जाने रात में कैसा जहर,
दूर तक फैली हुई थी रात की काली पहर।
रात की उस कालिमा का रंग क्यूँ जाता नहीं,
दर्द काली रात का क्यूँ आज तक जाता नहीं।

लग गयी उस रोज जाने रात को कैसी नजर,
नींद की आगोश में जब सो रहा सारा शहर।
रात में क्यूँ चीख थी क्यूँ वक्त बतलाता नहीं,
दर्द काली रात का क्यूँ आज तक जाता नहीं।

मौत का तांडव मचा था हर गली हर मोड़ पर,
जा रही थी जिंदगी हर साँस आँचल छोड़कर।
साँस के उस घाव को क्यूँ आज सहलाता नहीं,
दर्द काली रात का क्यूँ आज तक जाता नहीं।

जो हुआ उस रात उसमें रात की क्या थी खता,
मौत हत प्रभ ढूँढती थी जिंदगी का खुद पता।
उस पते पर पत्र कोई क्यूँ आज पँहुचाता नहीं,
दर्द काली रात का क्यूँ आज तक जाता नहीं।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        11 दिसंबर, 2014




मुक्तक

मुक्तक

दो बूँद खुशी के क्या छलके दुनिया ने बेहाल किया।
नख से लेकर शिख तक जाने क्या सबने पड़ताल किया।
ऐसे उलझे खोज-बीन में नयन कोर हालातों के,
गालों पर आने से पहले खुशियों ने हड़ताल किया।
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बहुत मुश्किल है परदेसी गाँवों को भुला पाना।
बहुत मुश्किल है खेतों को गलियों को भुला पाना।
भले हो रोशनी कितनी शहर की बंद गलियों में,
बहुत मुश्किल अँधियारों के दीपक को भुला पाना।
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आईने को देखता जब हैरान देखता हूँ।
इस गली में हर शख्स परेशान देखता हूँ।
तलाश में सुकूँ की भटका हूँ इस कदर मैं,
निकल के अपने घर से अब मकां देखता हूँ।
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मुश्किलें हैं माना जिंदगी का सफर आसान तो नहीं।
पर जिंदगी की मुश्किलों से इतना परेशान तो नहीं।
क्या हो जायेगा किसी का दो घड़ी साथ चल देंगे हम,
दो कदम को साथ चलने से किसी का नुकसान तो नहीं।
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इक रोशनी की चाहत में अब तलक जलता रहा हूँ मैं।
पत्थर था पर बन के मोम अकसर पिघलता रहा हूँ मैं।
मिली होगी किसी को जिंदगी जरा ही दूर जाने पर,
तुझे पाने की ख्वाहिश में अभी भी चलता रहा हूँ मैं।
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बहुत खोया हूँ राहों में तुम्हारे पास आने को।
बहुत खोजा हूँ मैं खुद को महज अहसास पाने को।
चल सकता हूँ अकेले मैं यहाँ दुनिया की राहों में,
मगर चाहत है इस दिल की तुम्हारा साथ पाने को।
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मौन तुम्हारा पथ तकते हैं।

मौन तुम्हारा पथ तकते हैं।

शोर मचाते सन्नाटों में मौन रात की नई कहानी,
पलकों की आहट में छिपकर बैठी ज्यूँ आँखों का पानी।
आते जाते पल छिन पल छिन सूनी आँखों को मलते हैं,
मौन तुम्हारा पथ तकते हैं।

रोज भोर इक नई कहानी लेकर आँगन में आती है,
जागे नयनों के सपनों को नूतन आहट दे जाती है।
टुकड़ा कहीं धूप का छिपकर भावों को सहला जाता है,
झोंका मस्त पवन के आकर साँसों को महका जाता है।
दर्द रात का सभी भूलकर नव उम्मीदों को गढ़ते हैं,
मौन तुम्हारा पथ तकते हैं।

यादों के मानसरोवर में दो हंस मौन जब मिलते हैं,
अंतस के नील सरोवर में नव प्रेम पुष्प फिर खिलते हैं।
दूर कहीं मन की बस्ती में सूनी आस जगा जाती है,
बीते सभी उपालंभों को हौले से समझा जाती है।
नई भोर में नई आस ले सारा दिवस सफर करते हैं
मौन तुम्हारा पथ तकते हैं।

उम्र घटेगी भले हमारी लेकिन मन में प्रेम बढ़ेगा,
यहाँ जलेगा हृदय हमारा वहाँ तुम्हारा मन तड़पेगा।
भीड़ भरे एकाकीपन में बीते लम्हों को खोजेंगे,
दूर जहाँ तक नजर पड़ेगी केवल तुमको ही ढूँढेंगे।
मन के भाव पृष्ठ पर लिख कर तुमको सब अर्पित करते हैं,
मौन तुम्हारा पथ तकते हैं।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07 दिसंबर, 2024


बाकी है वरदान अभी

बाकी है वरदान अभी

जीवन के कितने बसंत औ कितने पतझड़ बीत गए,
कभी भरे थे घट जीवन के और कभी ये रीत गए।
आधी गुजर चुकी सदियाँ आधी और गुजर जाएगी,
जीवन के इस महा परिधि में बाकी है वरदान अभी।

कितने सपने जोड़े मन ने कितने सपने टूट गए,
कितने अंकित हुए हृदय में कितने पथ में छूट गए।
इन हाथों ने कितने पकड़े कितने रिश्तों को जोड़े,
कितने श्वेत कबूतर मन ने नील गगन में जा छोड़े।

नील गगन में उड़ते-उड़ते बाकी बची सँवर जाएगी,
जीवन के इस महा परिधि में बाकी है वरदान अभी।

कितनी आग चुराई हमने कितनी आग बचाई है,
इस जीवन के हवन कुंड में समिधा स्वयं बनाई है।
सब कुछ देकर अपना हमने कितना कुछ अपनाया है,
खोने की क्या बात करें जब पग-पग इतना पाया है।

खोते पाते जीवन की बाकी सदी गुजर जाएगी,
जीवन के इस महा परिधि में बाकी है वरदान अभी।

बने बिगड़ते रिश्तों के मूल तत्व हम समझ न पाये,
समझ न पाई दुनिया या हम दुनिया को समझ न पाये।
कितने भाव समेटे मन में कितने मौन निहारे हैं,
कितने छोड़े यहाँ डगर में कितने पंथ बुहारे हैं।

तटबंधों को तोड़ लहर सागर में जा मिल जायेगी,
जीवन के इस महा परिधि में बाकी है वरदान अभी।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30 नवंबर, 2024


फिर कुहासे भरे दिन आ गये।

फिर कुहासे भरे दिन आ गये।

सूझता कुछ भी नहीं दूर तक अब तो सफर में,
जा छुपी है धूप साथी कौन जाने किस नगर में।
धूम्र साँसों से निकलती दिन ख़ुश्कियों के आ गये,
आ देख साथी फिर, कुहासे भरे दिन आ गये।

सूर्य प्राची से यहाँ अब दूर तक दिखता नहीं,
धुंध की इन चादरों पर काव्य कुछ लिखता नहीं।
ओढ़ चादर धुंध की क्या-क्या छुपाने आ गये,
आ देख साथी फिर, कुहासे भरे दिन आ गये।

दूर तक हैं खिलखिलाते पुष्प सरसों के यहाँ,
बालियों में गेहूओं की ओस लिपटी है यहाँ।
शीत के अहसास के कितने फसाने आ गये,
आ देख साथी फिर, कुहासे भरे दिन आ गये।

दूर जोड़ी सारसों की गीत कोई गा रही,
बुन रही है श्वेत स्वेटर दादी गुनगुना रही।
झुर्रियों की गोद के सपने सुहाने आ गये,
आ देख साथी फिर, कुहासे भरे दिन आ गये।

श्वेत धुँधली चादरों से आसमां को नापता,
बर्फ के अहसास से कोई धरा को बाँधता।
भोर से ले सांध्य तक अलावों के दिन आ गए,
आ देख साथी फिर, कुहासे भरे दिन आ गये।

बाँधता मन की गली को सिलसिला फिर बात का,
है मचलती कामना मधुमास वाली रात का।
पाश के अनुरोध के कितने बहाने आ गये,
आ देख साथी फिर, कुहासे भरे दिन आ गये।

शीत अधरों से निकल यूँ धूम्र बन कर छा रही,
धुंध की आगोश से ज्यूँ रेलगाड़ी आ रही।
साँस के छल्ले बनाने के बहाने आ गये,
आ देख साथी फिर, कुहासे भरे दिन आ गये।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29 नवंबर, 2024

समर्पण

समर्पण

जिस पथ ने स्नेह दिया मुझको, उसको मन प्राण समर्पित है,
जिस पथ ने मुझको ठुकराया, उसको भी गान समर्पित है।

जीवन के हर पथ पर मन ने, जो पाया उसका मान किया,
विष पाया या अमृत पाया, अधरों ने उसका पान किया।
जिसने अधरों को तृप्त किया, उसको मन प्राण समर्पित है,
जिसने अधरों को तप्त किया, उसको भी गान समर्पित है।

पग साथ चले कुछ चले नहीं, कुछ साथ रहे कुछ रहे नहीं,
कुछ पुष्प खिले कुछ खिले नहीं, कुछ भाव कहे कुछ कहे नहीं।
जिसने भावों को व्यक्त किया, उसको मन प्राण समर्पित है,
जिसने मन को अभिशप्त किया, उसको भी गान समर्पित है।

दो शब्द गीत के क्या गाये, आहों से गूँज उठा जीवन,
दो पुष्प हृदय के यूँ पनपे, आहों से खीझ उठा उपवन।
जिन गीतों में मधुपान किया, उसको मन प्राण समर्पित है,
जिसने मन का अपमान किया, उनको भी गान समर्पित है।

जो सपने जीवन के उलझे, अब उनका क्यूँ अफसोस करूँ,
शब्दों पर अपने ना ठहरे, अब उनसे क्यूँ अनुरोध करूँ।
जिसने पलकों को सहलाया, उसको मन प्राण समर्पित है,
जिसने आँसू को ठुकराया, उसको भी गान समर्पित है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27 नवंबर, 2024



 


मेरे दिल तक नहीं पहुँची

मेरे दिल तक नहीं पहुँची

पता था वो ही इस दिल का वही अपना ठिकाना था,
मगर चिट्ठी लिखी तुमने मेरे दिल तक नहीं पहुँची।

वो ही थे रास्ते अपने वो ही अपनी दिशाएं थीं,
वो ही मौसम सुहाने थे वही बहती हवायें थीं।
वही था आसमां अपना जहाँ कल आना जाना था,
मगर चिट्ठी लिखी तुमने मेरे दिल तक नहीं पहुँची।

कहीं चाहत के सपने थे कहीं कुछ कामनाएं थी,
कहीं यादों के झरने थे कहीं कुछ प्रार्थनाएँ थीं।
कहीं कुछ भावनाएं थीं जिन्हें अपना बनाना था,
मगर चिट्ठी लिखी तुमने मेरे दिल तक नहीं पहुँची।

कि इन गीतों में इस दिल के कहीं कुछ याद है बाकी,
कहीं कुछ तो अधूरा है जो ये फरियाद है बाकी।
अभी यादों की कतरन से वही रिश्ता पुराना था,
मगर चिट्ठी लिखी तुमने मेरे दिल तक नहीं पहुँची।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27 नवंबर, 2024

दोहा


लोभ मोह मद क्रोध या, सत्य धर्म आचार।
संगत जैसी राखिये, वैसा हो व्यवहार।।

मिथ्या आडंबर सभी, मिथ्या सारा खेल।
मन से मन नाहीं मिले, पूरा होत न मेल।।

✍️अजय कुमार पाण्डेय

सर्व भव निरोगः



सर्वे निरोगः सर्व आनंदम श्रेष्ठम चरित्रम जीवन वसंतम।
श्रीज्ञान श्रेष्ठम नाथनाथम श्रीमद्भागवत शरणम प्रपद्ये।।
 
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद

चौपाई

चौपाई

वेद ग्रन्थ जे प्रतिदिन सुनहीँ। चित्त शांत मन सुंदर बनहीं।।
पढ़हिं सुनहि अनुमोदन करहीं। पुण्य भाव मन धारण करहीं।।

राम कथा जीवन आधारा। छुटहि क्लेश मन हो विस्तारा।।
प्रभु चरणों में जो मन हारा। भवसागर से उतरहिं पारा।।

भक्ति भाव से प्रभु को मोहहिं, रंग रूप मन सुंदर होयहिं।
राम नाम से नाता जोड़हिं, तन मन जीवन उपवन होयहिं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17 नवंबर, 2024

भाई

भाई

दूर हो जाऊँ सबसे या ये छूट जग जाये,
एक बस साथ तेरा मुझको भाई मिल जाये।

बिन तेरे क्या करूँ मैं ले के जग के खजाने,
न भाये तेरे बिन मुझको ये सारे जमाने।
हो साथ तेरा अगर तो मरुथल भी खिल जाये,
एक बस तुम्हारा साथ मुझको भाई मिल जाये।

साथ जब तक है तेरा दुनिया की खुशियाँ सभी,
हर अँधेरे राह की रोशन रहीं गलियाँ सभी
ज्यूँ कड़कती ठंड में सुनहरी धूप खिल जाये,
एक बस तुम्हारा साथ मुझको भाई मिल जाये।

कामना कुछ भी नहीं है अब किसी आकाश की,
एक बस इच्छा यही है चाह तेरे पास की।
हाथ तेरा हाथ में जब बंद राह खुल जाये,
एक बस तुम्हारा साथ मुझको भाई मिल जाये।

जिंदगी ये छाँव है

जिंदगी ये छाँव है

सुख-दुख हर्ष-शोक सब जिंदगी के पड़ाव हैं
धैर्य पूर्व सब सहो तो जिंदगी ये छाँव है

दो कदम के रास्ते हैं दो कदम के फासले
दो कदम जो बढ़ सको तो जिंदगी ये गाँव है

कट रही है जिंदगी अब जैसी भी अच्छी बुरी
दौर-ए-उम्र में सदा ये जिंदगी चुनाव है

एक मोड़ उलझनें हैं एक मोड़ राहतें
एक मोड़ चल पड़े तो जिंदगी बहाव है

हर किसी की मुट्ठी में है देव उसका आसमां
मन को जो न भा सके तो जिंदगी अभाव है

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       12 नवंबर, 2024

सुख का वनवास न हो

सुख का वनवास न हो

माना दुख की रात घनी है सुख का पर वनवास न हो।

दुख ने लंबे डग भर कर के सुख का पथ अवरोध किया,
अपना कौन पराया क्या है दुख ने इसका बोध दिया।
दुख ने माना पग बाँधा है लेकिन मन में वास न हो,
माना दुख की रात घनी है सुख का पर वनवास न हो।

जीवन भर कब कौन रहा है इक दिन सब खो जाता है,
जब-जब जो-जो होना है वो तब-तब सो हो जाता है।
अपने कर्तव्यों के पथ में कोई भी अवकाश न हो,
माना दुख की रात घनी है सुख का पर वनवास न हो।

साथ- साथ कितने चलते हैं कितने ही खो जाते हैं,
नयन कोर में बसे रहे कुछ, कुछ मिलकर खो जाते हैं।
चेहरों की भीड़ में लेकिन दर्पण का उपवास न हो,
माना दुख की रात घनी है सुख का पर वनवास न हो।

बीत चले कितने ही मधुऋतु यादों का बस गुंजन हो,
रीत चले कितने ही मधुघट प्यालों पर बस चुंबन हो।
इक दूजे का साथ रहे बस भले नया मधुमास न हो,
माना दुख की रात घनी है सुख का पर वनवास न हो।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08 नवंबर, 2024

छठ

छठ क्या है

क्या बताऊँ छठ क्या है
इसे शब्दों में बाँध पाना असंभव है।
छठ भावनाओं का सागर है,
छठ प्रेम प्रतिज्ञा की गागर है।
छठ त्याग का प्रतीक है,
छठ सुहाग की जीत है।
छठ भक्ति का सागर है
जिसमें पुण्य जन्म के मिलते हैं।
छठ माँ का वो आँचल है,
जिसकी छाँव तले हम पलते हैं।
छठ त्याग, तपस्या, समर्पण है,
छठ भावनाओं का दर्पण है।
ये महज व्रत नहीं है ये,
जीवन का आधार है।
ये पर्व सनातन का स्तंभ है,
ये नैतिकता का व्यवहार है।
इसकी महिमा शब्दों में मुश्किल है
रेलों की भीड़, बसों की भीड़
चेहरों की उत्सुकता, बच्चों की रौनक है,
छठ महज पर्व नहीं है ये जीवन है।
उगते सूरज को सभी पूजते हैं,
हम डूबते सूरज को भी पूजते हैं।
इसमें कोई छोटा बड़ा नहीं होता
कोई ऊंच नीच नहीं होता है
भावनाओं से रिश्तों को सींचते हैं।

चाँद से प्रश्न

चाँद से प्रश्न

मैंने पूछा चाँद से कि रोटियाँ क्यूँ गोल हैं,
कुछ न बोला चाँद मुझको देखता बस रह गया।

वो एक नन्हीं गोद में नेह की आगोश में,
देखती थी चाँद को चाहती थी पास हो।
बंद मुट्ठी में छुपा कर थी रखीं कुछ रोटियाँ,
और पलकों के किनारों पर सजी कुछ लोरियाँ।

मैंने पूछा चाँद से लोरी क्यूँ अनमोल हैं,
कुछ न बोला चाँद मुझको देखता बस रह गया।

साँझ के अंतिम सिरे पर दर्द कुछ खामोश सा,
गिन रहा था उँगलियों पर वक्त की नादानियाँ।
ओढ़ चादर धुँधलके की छुप रहा था दिन वहीं,
धुंध में भी दिख रही थी वक्त की नाक़ामियाँ।

मैंने पूछा चाँद से कि साँझ क्यूँ अनबोल हैं,
कुछ न बोला चाँद मुझको देखता बस रह गया।

रोटियों में चाँद था या चाँद जैसी रोटियाँ,
खोजती थी लोरियों में तोतली सी बोलियाँ।
लोरियों को ओढ़ यहाँ भूख जब सो जायेगी,
और कह देंगी रोटी कल खिलाने आयेंगी।

मैंने पूछा चाँद से रोटी का क्या मोल है,
कुछ न बोला चाँद मुझको देखता बस रह गया।

एक बस्ती में उजाला एक में अँधियार क्यूँ,
पूछती है रोशनी का है यहाँ व्यापार क्यूँ।
एक सी थाली सभी की और चंदा एक सा,
मौन हो कैसे यहाँ अपनी नजर को फेरता।

मैंने पूछा चाँद से किसका सारा खेल है,
कुछ न बोला चाँद मुझको देखता बस रह गया।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01 नवंबर, 2024

कोशिश



कदम-कदम पे मुश्किलें हैं चलना भी सीखिए।
फूल ही नहीं काँटों में गुजरना भी सीखिए।
हर किसी को नहीं मिलता है मुकम्मल आसमां,
जिंदगी को जीना है तो मरना भी सीखिए।

कशिश

कशिश

वक्त की रेत पर ये उम्र लिख रही कथा,
शब्द-शब्द भाव और अर्थ-अर्थ है व्यथा।
एक तीर हम खड़े हैं एक तीर चाहतें,
एक तीर मुश्किलें हैं एक तीर राहतें।
मन में एक द्वंद था मुक्त था कि बंद था,
हम मगर समझ सके न घाव वो प्रचंड था।
चाह थी बहुत मगर, न चीख ही निकल सकी,
जिंदगी बहुत सहज न चाह कर सुलझ सकी।

आइना था सामने देख हम सके नहीं,
मन में जमी धूल को साफ कर सके नहीं।
रात के प्रभाव में सांध्य को ही खो दिये,
भूल ही कुछ ऐसी थी न चाह कर रो दिये।
यूँ अश्रु कोर से बहे के स्वप्न सारे गिर गये,
चाँदनी सजी न थी कि धूल में ही मिल गये।
चाह थी बहुत मगर न चाँदनी सँवर सकी,
जिंदगी बहुत सहज न चाह कर सुलझ सकी।

पाँव जब उठे कभी तो रास्ते बिसर गये,
थाम भी सके न वक्त रेत से फिसल गये।
स्वप्न नैन कोर तक आये पर रुके नहीं,
जाने कैसी जिद थी चाह कर झुके नहीं।
सोचते-सोचते ही साँझ देखा ढल गयी,
जब तलक ये सोचते उम्र ही निकल गयी।
जिंदगी पड़ाव पर न चाह कर ठहर सकी,
जिंदगी बहुत सहज न चाह कर सुलझ सकी।

चार काँधे देख कर जिंदगी सहज लगी,
मौन जब हुई नजर आँखें भी सुभग लगीं।
कारवाँ को देख कर रास्ते भी चल दिये,
कल तलक जो दूर थे साथ-साथ हो लिये।
कारवाँ था साथ में साँस-साँस थम गई,
देख कर के मौन हर आँख-आँख नम हुई।
उम्र भर कशिश रही न चाह कर निकल सकी,
जिंदगी बहुत सहज न चाह कर सुलझ सकी।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22 अक्टूबर, 2024

भूली-बिसरी यादें

भूली-बिसरी यादें

जब यादें पलकों से छनकर बूँदें बन बह जाती हैं,
भूली बिसरी कितनी बातें बिना कहे कह जाती हैं।

मोड़ अधूरा राह अधूरी कुछ भी तो मालूम नहीं,
कौन राह पर चली जिंदगी साँसों को मालूम नहीं।
जब राहें कदमों को छूकर खुद बोझिल हो जाती हैं,
भूली बिसरी कितनी बातें बिना कहे कह जाती हैं।

दूर क्षितिज पर किरण पिघलती मौन सांध्य के आँचल में,
यादें इंद्रधनुष बनती हैं उम्मीदों के बादल में।
दूर किरण संध्या में घुलकर लुकछिप-लुकछिप जाती है,
भूली बिसरी कितनी बातें बिना कहे कह जाती हैं।

बाँह पसारे रात मचलती धीमे-धीमे मदमाती,
कहे अनकहे मधुमासों के गीतों में भींगी जाती।
मदमाते गीतों में बसकर अधरों को छू जाती हैं,
भूली बिसरी कितनी बातें बिना कहे कह जाती हैं।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18 अक्टूबर, 202र

मुक्तक

कितना देखा भाला लेकिन कुछ भी जान नहीं पाये।
थी पहचानी गलियाँ लेकिन कुछ अनुमान नहीं पाये।
पल-पल भेष बदलते देखा क्या जाने क्या अनजाने,
अपनी ही परछाईं को भी हम पहचान नहीं पाये।
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रात-रात भर जागीं पलकें क्या जाने कब सोई हैं।
दिन को क्या मालूम यहाँ पर रातें कितना रोई हैं।
अपनी ही परछाईं पर जब अपना कोई जोर नहीं,
नहीं किसी से शिकवा हमको नहीं शिकायत कोई है।
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क्या बतलायें तुमको हमने क्या खोया क्या पाया है।
दर्द मिले या आँसू हमने हँसकर सब अपनाया है।
लेकिन इस किस्मत में शायद जलना कुछ तो बाकी था,
जब भी हँसना चाहा हमको खुशियों ने ठुकराया है।

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इक पलड़े पर रिश्ते ठहरे इक पलड़े पर सपने थे।
इक पलड़े पर खुद की खुशियाँ इक पलड़े पर अपने थे।
ऐसा द्वंद हुआ पलड़ों में सपने सारे टूट गये,
क्या बतलाऊँ पलड़ों को जो सपने टूटे अपने थे।
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बदला-बदला दौर यहाँ है पहले से हालात नहीं।
बाद तिरे कितने आये पर पहले से जज्बात नहीं।
देखी हमने दुनिया सारी देखे कितने सावन भी,
लेकिन तुम बिन इस मौसम में पहले वाली बात नहीं।
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माना कदम थके हैं लेकिन जल्दी कदम बढ़ाऊँगा।
क्षण भर को फिसला हूँ लेकिन जल्द खड़ा हो जाऊंगा।
मेरे गिरने से मत सोचो हमने सब कुछ हार दिया,
खुद से अपना वादा है मैं जल्दी मंजिल पाऊँगा।
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कहा किसी ने सुना किसी ने सच तो कोसों दूर रहा।
जिनको केवल सत्य पसंद था क्यूँ झूठ उन्हें मंजूर रहा।
जो कहते थे साथ चलेंगे चाहे कितनी बाधा हो,
चार कदम भी चल न पाये रिश्ता क्यूँ मजबूर रहा।
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बातों-बातों में समझाना अच्छा लगता है।
हँसकर बालों को सुलझाना अच्छा लगता है।
अकसर खो जाता हूँ गहरी नीली आँखों में,
तेरा आँखों में उलझाना अच्छा लगता है।



ख्वाहिशें

ख्वाहिशें

चंद ख्वाहिशों का बोझ लिए रोज निकलता हूँ मैं।
ठोकरें खाता हूँ गिरता हूँ फिर सँभलता हूँ मैं।
इन अंधेरों का मुझको है अब नहीं खौफ कोई,
रोशनी के लिए हर रोज थोड़ा पिघलता हूँ मैं।

मुस्कुराहट

मुस्कुराहट

गम जमाने के अब रास आने लगे हैं
मुश्किलों में सही पास आने लगे हैं
जरूरत नहीं महफिलों की मुझे है
तेरी खुशियों में ही मुस्कुराने लगे हैं


अफसोस नहीं

अफसोस नहीं

टूटा जितनी बार हृदय ये उतनी बार सँभाला इसको,
एक बार जो टूटा फिर तो कोई भी अफसोस नहीं है।

दो बूँद पलक पर आकर ठहरे, हमने उसको समझा गहना,
अपनों से या मिले पराये, हमने हर आहों को पहना।
साँसों की बस डोर सँभाली, नहीं किसी पर जोर कभी था,
दूर क्षितिज पर जो सपने थे, देखा उनका छोर नहीं था।

पलकों के सूने आँगन में, कितनी बार पुकारा इसको, 
टूटा जो फिर आज सपन ये, पलकों का कुछ दोष नहीं है,

मोहपाश कुछ काम न आया, कितनी बार शब्द से सींचा,
रेशे-रेशे बिखर न जायें, हृदय लगाकर इनको भींचा।
लेकिन चंचल हृदय अधिक था, बाहों को अधिकार नहीं था,
जिसको दिल ने अपना समझा, रिश्तों का आधार नहीं था।

मोहपाश से निकल न पाया, कितनी बार निकाला इसको,
ढीली हुई पकड़ हाथों की, बाहों का कुछ दोष नहीं है।

निष्ठुर है चंचल छाया है, परिचय आकर्षण की सीमा,
स्नेह समर्पण मुद्राएं सब, क्या जाने किसका पथ धीमा।
जीवन लोहे की पटरी है, हर राहों को नापा इसने,
धूप ताप बारिश झेली है, तब जाकर पथ बाँधा इसने।

खुद ही अनुबन्धन में उलझे कितना ही सुलझाया इसको,
ढीली हुई पकड़ हाथों की, बाहों का कुछ दोष नहीं है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13 अक्टूबर, 2024

कविता

कविता

वक्त के हर दौर का आधार बनी है कविता।
कभी शोला तो कभी अंगार बनी है कविता।
कितने गाये हैं और कितने लिखे गीतों में,
पृष्ठों पर शब्दों का आकार बनी है कविता।

कभी रिश्ते तो कभी परिवार बनी है कविता।
रूठे रिश्तों की भी मनुहार बनी है कविता।
उम्र के हर दौर का व्यवहार जहाँ मिल जाये,
यहाँ पे हर दौर का व्यवहार बनी है कविता।

कहीं शिक्षा, तो कहीं व्यापार बनी है कविता।
वेदों की ग्रंथों का भंडार बनी है कविता।
हर भाव में जिसके सभी रूप सिमट जाते हैं,
ऐसे हर भावों का विस्तार बनी है कविता।

रूप दुल्हन का बनी श्रृंगार बनी है कविता।
प्रेम के हर रूप का उपहार बनी है कविता।
जिसके आने से मौसम में भी रंगत छाये,
वो पावन दीपों का त्यौहार बनी है कविता।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13अक्टूबर, 2024

तुम बिन अब तो ये घर हमको खाली खाली लगता है।

तुम बिन अब तो ये घर हमको खाली खाली लगता है।

बिस्तर सूना-सूना सोफा खाली-खाली लगता है,
तुम बिन अब तो ये घर हमको खाली खाली लगता है।

सिलवटें बदलती करवट अब जाने क्या-क्या कहती हैं,
तकिए के लिहाफ से आँखें खोई-खोई रहती हैं।
चद्दर की तह भी अब तो मुश्किल से ही खुल पाती है,
गद्दे और चद्दर की बाहें मुश्किल से मिल पाती है।

चौकी का हर कोना अब तो खाली-खाली लगता है,
तुम बिन अब तो ये घर हमको खाली खाली लगता है।

कुछ बातों पर गुस्सा करना कुछ पर मन की कह लेना,
सुनने से पहले कितनी बातों का निर्णय कर लेना।
नाराज हुए तो भी आशीषों से झोली भर देना,
पलक कोर से तकना फिर उम्मीदों को जीवन देना।

पलकों के कोरों में अब कुछ खाली-खाली लगता है,
तुम बिन अब तो ये घर हमको खाली खाली लगता है।

तकती हैं चौखट को आँखें हर आहट पर उठती हैं,
आते जाते हर कदमों पे बरबस जाकर रुकती हैं।
और प्रतीक्षा है सपनों की पलकों के निज आँगन में,
आशीर्वादी पुष्प मिलेंगे फिर से मुझको दामन में।

आ जाओ अब आँगन मुझको अपना खाली लगता है,
तुम बिन अब तो ये घर हमको खाली खाली लगता है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12 अक्टूबर, 2024

मेहमान

मेहमान

क्या जाने क्या खता थी बदनाम हो गया हूँ।
ऐसा जला हूँ खुद से इल्जाम हो गया हूँ।
न रास अब तो आती है राहतें कोई भी,
घर में अपने अब तो मेहमान हो गया हूँ।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        

है विनती रघुराई

है विनती रघुराई

यह विनती तुमसे रघुराई। हरहु क्लेश विषाद मन माहीं।।
भरहु आस विश्वास भरोसा। मिटइ सबहिं के मन के दोषा।।
धरम भाव सब के मन लावा। उपजहिं सबहि हृदय समभावा।।
सुमति भाव जिनके मन छाई। अनुदिन बढ़े प्रेम अधिकाई।।

कुटिल भाव सब नष्ट हो, अंतस हो शुभ धाम।
शुद्ध चित्त सुमिरन करें, ले कर प्रभु का नाम।। 

सदाचार सुंदर पथ जग में। कटे कष्ट सबही यहि डग में।।
पग-पग कंटक कितनो भारी। राम नाम सब कंटक टारी।।
कलयुग में प्रभु नाम अधारा। छूटहिं क्लेश प्रेम विस्तारा।।
जिनके हिरदय प्रेम बसे है। उनके हिरदय राम बसे हैं।।

भक्ति भाव जा मन बसे, हृदय बसे अनुराग।
ज्ञान ध्यान संपति बढ़े, होत हृदय बड़भाग।।

जपहुँ राम सुंदर मन होई। मिटे कष्ट सुंदर तन होई।।
जपहुँ प्रभु नाम हैं बहुतेरे। ये विपत काल कबहुँ न घेरे।।
श्रद्धा सबुरी त्याग समर्पण। चित्त शुद्ध मन होवे दर्पण।।
निर्मल मन हो सत्य सनातन। जीवन का कण-कण हो पावन।।

जीवन का आधार है, प्रभु का सुंदर नाम।
यहिं जीवन के मूल हैं, कृष्ण कहो या राम।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08अक्टूबर, 2024




स्वप्न

स्वप्न

दुनिया के बाजार में जीवन और नहीं खिलौना है।
किसी मोड़ पर कुछ पाना है किसी मोड़ कुछ खोना है।
दर्द खुशी सपने आँसू कब यहाँ हमेशा टिकते हैं,
एक पलक खुशियों के आँसू दूजे सपन सलोना है।

पलकों ने सपने छाँटे हैं

पलकों ने सपने छाँटे हैं

बाँट दिए हैं पुष्प सभी अब,
आँचल में बाकी काँटे हैं,
पलकों ने सपने छाँटे हैं।

निकल पड़ी दो बूँद ठहर जब,
पलकों को अहसास हुआ है।
सूनापन पसरा नयनों में,
आहों का उपवास हुआ है।

निज पलकों में अश्रु निवेदन,
साँसों में बस सन्नाटे हैं।

व्यापारी हो गयी व्यवस्था,
जाने कैसी लाचारी है।
गीत पुराने अधरों के सब,
स्वर में कैसी नाकारी है।

सरोकार सब नये हो गये,
हिस्सों ने अपने बाँटे हैं।

नहीं चेतना आवाहन में,
स्वर व्यंजन अब नहीं रागते।
वेद ग्रंथ गीता रामायण,
चौराहे अब नहीं बाँचते।

आयातित साँसों में घुलकर,
अपनों ने ही पथ काटे हैं।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01 अक्टूबर, 2024

भजन



सखि मन अनुबंध कियो जबसे, मन में प्रभु प्रीत समाय गयी,
सुध बुध बिसराय गयी सबहीं, बस तुमसे प्रीत लगाय गयी।
जागत सोअत बस नाम रटे, कछु और नहीं मन भावत है,
सब चैन गँवाय गयी मन से, बस चैन तुमहि में पावत है।
जस मीरा को स्वीकार किये, प्रभु हमको भी आ स्वीकारो,
बस तुमसे ही सब आस बँधी, आकर हमरो भी उद्धारो।
जग लोभ मोह से पीड़ित है, मन प्रतिपल है अवसाद ग्रसित,
प्रभु पुनि उपदेश सुना जाओ, मन क्षोभ-क्रोध से होत त्रसित।
जस द्रौपदि की प्रभु लाज रखो, सुख चैन छोड़ के बाँह धरो,
हमरी भी विनती स्वीकारो, सर पर हमरे भी छाँह करो।
जस अर्जुन को उपदेश दियो, मन से अज्ञान प्रभु सबहि हरो,
अँधियारे में मन भटकत है, अवसाद सबहि प्रभु आय हरो।
अब और नहीँ पथ सूझत है, आकर अब राह दिखा जाओ,
सब किंतु-परन्तु हटे मन के, आकर प्रभु आस बँधा जाओ।

©✍️ अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
         24 सितंबर, 2024

श्री राम स्तुति

श्री राम स्तुति

श्री राम राष्ट्र नायकम, पुण्य भाव दायकम,
समस्त पाप नाशकम, पुण्यता प्रदायकम।

समस्त भाव भंगिनम,  सदैव प्रेम संगिनम,
नमामि प्रेम सागरम, नमामि मोक्ष नागरम।

समस्त पुण्य रक्षनम, सदैव पाप भंजनम
कोदण्ड हस्त धारिकम, भुवो पाप तारकम।

ललाट शोभि चंदनम, स्वभाव श्रेष्ठ वन्दनम,
सदैव धर्म धारणम, नमामि राम ईश्वरम।

समस्त लोक नंदनम, दृगान्त नेह भंगिनम,
गुणाधिपति सुखाकरम, सदैव जन कृपाकरम।

प्रचंड जलधि सायकम, जटायु मुक्ति दायकम,
स्वभाव स्नेह दुर्लभम, नमामि राम वल्लभम।

दसशीष दंभ भंजनम, कृतज्ञ भव देवतम,
सत्य धर्म स्थापनम, नमामि राम ईश्वरम।

जयति-जयति रघुनंदनम, कोटि-कोटि वंदनम,
समस्त विश्व पूजितम, नमामि राम ईश्वरम।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22 सितंबर, 2024

मुक्त रचना- जीवन का ग्रंथ

जीवन का ग्रंथ

चलते-चलते राहों में जब पैर थक गये,
दो घड़ी सुस्ताने को फिर वहीं रुक गये।
वीथी पर जब नजर गयी तो याद आया,
इतनी दूर आने में पीछे क्या छोड़ आया।
कुछ सपनों को पाने को 
कुछ सपनों को तोड़ा है,
ये पाने की खातिर अब तक
पीछे क्या-क्या छोड़ा है।
कितनी दूर चले आये हैं
कितनी दूर अभी है जाना,
कितनी बाकी संध्या पथ की
अब तक मन इससे अनजाना।
किसी मोड़ पर मन ठहरेगा
शायद पथ का अंत वही हो,
बिखरे पृष्ठ जहाँ सज जायें
इस जीवन का ग्रंथ वहीं हो।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21 सितंबर, 2024


पालकी गीतों की

पालकी गीतों की

सौंप सकूँ कुछ शब्द पुष्प मैं भावों के मृदु आँगन में,
लिए पालकी गीतों की मैं बस्ती-बस्ती फिरता हूँ।

भाग दौड़ में इस जीवन के दृष्टि सभी की शिखरों पर,
स्पर्धा में एक दूजे से भाव सभी के चेहरों पर।
पर्वत जैसे शिखरों की उम्मीदें सबने पाली हैं।
शिखर पहुँच कर भी लगता है जैसे झोली खाली है।

कुछ खुशियाँ बस सौंप सकूँ मैं उम्मीदों के आँगन में,
लिए पालकी गीतों की मैं बस्ती-बस्ती फिरता हूँ।

रुका यहाँ कब पथ जीवन का बाधाओं के आने से,
रुका कहो कब पथ सूरज का धुंध घनेरी छाने से।
अवरोधों से लड़कर के भी गीत हवाएँ गाती हैं।
अँधियारे को चीर यहाँ पर भोर किरण मुस्काती है।

मुक्त हो सके मन आहों से अनुरोधों से बंधन से,
लिए पालकी गीतों की मैं बस्ती-बस्ती फिरता हूँ।

जीवन की हर बाजी खेली कुछ जीती कुछ हार गया,
कभी रहा इस पार तीर के और कभी उस पार गया।
बरसों बीत गए जीवन के मन में अब भी सिहरन है,
भीड़ भरे गलियारों में कुछ यादें अब भी बिरहन हैं।

विरह वेदना मिट जाये इन गीतों के अनुरंजन से,
लिए पालकी गीतों की मैं बस्ती-बस्ती फिरता हूँ।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20 सितंबर, 2024


अय्यारी, अंदाजा

अय्यारी

अपने मन को बहुत सँभाला हमने दुनियादारी में।
पलकों को अपने पुचकारा सपनों की तैयारी में।
लेकिन बदले हालातों का तब जाकर मन को बोध हुआ,
पग-पग पर जब ठोकर खायी अपनों की अय्यारी में।

दिल में मिरे क्या था कभी हम बता नहीं पाये।
पलकों से भी कभी भाव हम जता नहीं पाये।
जो कहते हैं हमने कभी समझा नहीं उनको,
अंदाजा मेरे दिल का खुद लगा नहीं पाये।


©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद

संशय के पल

संशय के पल

रात ढलती नहीं बात बनती नहीं,
आस का दीप मन में कहीं जल रहा।
एक उम्मीद का थाम दामन मगर,
नेह का भाव मन में कहीं पल रहा।

नैन दो तीर पर व्यग्र होते हुए,
स्वयं से उम्र पल-पल उलझती रही।
जाने क्या भूल थी जो सजा ये मिली,
टीस पल-पल कलेजा मसलती रही।

टीस मिटती नहीं धुंध छँटती नहीं,
आस का दीप मन में कहीं जल रहा।

यदि क्षमाशील होना गलत बात है,
तो अपराध मेरा है अक्षम्य यहाँ।
व्यर्थ अनुरोध के पुष्प यदि हो गये,
पथ व्यवहार का होगा दुर्गम यहाँ।

व्यर्थ अहसास के पुष्प होते नहीं,
आस का दीप मन में कहीं जल रहा।

भूल खुद से हुई तो सजा खुद चुनूँ,
क्या कहूँ स्वयं से शब्द मिलते नहीं।
सूझता ही नहीं राह क्या अब चुनूँ,
अब अकेले यहाँ पाँव चलते नहीं।

लंबी संशय की रात ढलती नहीं,
आस का दीप मन में मगर जल रहा।

रात कितनी घनेरी हुई हो यहाँ,
अंधेरों के रोके सुबह कब रुकी,
लड़खड़ाई भले नाव मँझधार में,
थपेड़ों के आगे कब नौका झुकी।

अँधियाँ तेज कितनी भले चल रहीं,
आस का दीप मन में कहीं जल रहा।

कब चाहा हृदय युद्ध की बात हो,
दो कदम हम चलें दो कदम तुम चलो।
कब ये चाहा हृदय धुंध की रात हो,
एक लौ हम बनें एक लौ तुम बनो।

रात कितनी घनी धुंध ही धुंध हो,
आस का दीप मन में कहीं जल रहा।

 ©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        19 सितंबर, 2024
       


मुझे पाओगे

मुझे पाओगे

जब किसी मोड़ पर मन मचलने लगे
मुड़ के देखोगे तब तुम मुझे पाओगे।

गीत अब भी हृदय में मचलते तो होंगे,
आईना देख अब भी सँवरते तो होंगे।
दो घड़ी रास्तों पे ठहरते तो होंगे,
यादों के बादलों से गुजरते तो होंगे।

बदली यादों की जब भी उमड़ने लगे,
मुड़ के देखोगे तब तुम मुझे पाओगे।

वो क्षितिज पर कहीं गीत की वादियाँ,
खोजती होंगी अधरों की परछाइयाँ।
वो गीत की पालकी को उठाये हुए,
साँझ अब भी खड़ी पथ सजाए हुए।

जब पंक्तियाँ आधरों से उलझने लगे,
मुड़ के देखोगे तब तुम मुझे पाओगे।

उम्र का क्या पता साथ कब छोड़ दे,
दो कदम साथ चलकर कहीं छोड़ दे।
आज जो भाव हैं भाव कल हो न हो,
पास जो आज है पास कल हो न हो।

राह में जब कभी मन भटकने लगे,
मुड़ के देखोगे तब तुम मुझे पाओगे।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17 सितंबर, 2024


प्रीत का नया राग

प्रीत का नया राग

गीत का पंथ यूँ ही जगमगाता रहे,
हम चलो गीत को इक नया राग दें।

गीत बचपन का हो या जवानी का हो,
हर घड़ी गीत दिल गुनगुनाता रहे।
नेह का भाव हो या प्रेम की चाह हो,
हर घड़ी भाव मन ये सजाता रहे।
गीत से अंक यूँ ही मुस्कुराता रहे,
हम चलो गीत को इक नया राग दें।

फिर सजायें चलो हम छंद की वाटिका,
भाव के पुष्प से जो महकती रहे।
फिर चलो हम लिखें नव प्रीत की पुस्तिका,
हर घड़ी जो हृदय में चहकती रहे।
भाव का पंथ यूँ ही खिलखिलाता रहे
हम चलो भाव को इक नया राग दें।

जब सांध्य को ओढ़ कर रात सजने लगी,
प्रीत की मुद्रिका फिर चमकने लगी।
जब ओस की बूँद अधरों पे सजने लगी,
प्रीत बन दीपिका फिर दमकने लगी।
प्रीत बन दीपिका यूँ झिलमिलाती रहे,
हम चलो प्रीत को इक नया राग दें।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16 सितंबर, 2024

गजल- लम्हे का दर्द

लम्हे का दर्द

जिस घड़ी आँख मेरी ये नम हो गयी
पीर इस दिल की थोड़ी सी कम हो गयी

बात यूँ ही जो निकली थी लब से मेरे
बात वो ही मेरी अब कसम हो गयी

तुझसे मिलने की ख्वाहिश अधूरी रही
शुरू हो न पाई कहानी खतम हो गयी

मुझसे लमहा सँभाला गया न वहाँ
मेरी वो ही खता अब सितम हो गयी

देखता हूँ क्षितिज को बड़े गौर से
उम्र की एक और शाम कम हो गयी

 ©✍️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद

अहसास

अहसास

इक बार कभी जो वक्त मिले,
बीती पर नजर फिरा लेना।
भूले बिसरे अहसासों को,
बस हौले से सहला लेना।

हैं कहीं सुलगते भाव कभी,
हैं कहीं धड़कती आशाएँ ।
कहीं सुनहरे ख्वाब सुहाने,
कहीं प्रेम की परिभाषाएं।

भावों के सागर में खुद को,
बरबस यूँ ही नहला लेना।
भूले बिसरे अहसासों को,
बस हौले से सहला लेना।

सुख भरे सुनहरे हैं बादल,
विश्वास प्रेम जीवन साथी।
आशाएँ अवलोकन करती,
इच्छाएं सारी मदमाती।

इन इच्छाओं के आँचल में,
मन को यूँ ही बहला लेना।
भूले बिसरे अहसासों को,
बस हौले से सहला लेना।

सृजन युक्त जीवन की राहें,
मंजिल को तकती हैं बाहें।
दूर गगन में ढलता सूरज,
हैं मलय महकती आशाएँ।

आशाओं की बाती लेकर,
फिर से नवदीप जला लेना।
भूले बिसरे अहसासों को,
बस हौले से सहला लेना।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद

ग़ज़ल- तेरे करीब आने से

तेरे करीब आने से

एक तेरे करीब आने से
मैं हुआ दूर इस जमाने से

लगता खुद से ही न उलझ जाऊँ
एक तुझसे ही दिल लगाने से

अब तो हर राह प्रश्न करती है
तेरी राहों में आने जाने से

अब तो साकी भी गैर लगता है
खाली लौटा हूँ मैं मैखाने से

भूल जाता हूँ सारे जख्मों को
एक बस तेरे मुस्कुराने से

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        10 सितंबर, 2024

गजल- दिल के पास

गजल- दिल के पास

तेरी आँखों मे जो मेरे लिए अहसास है
मेरे लिए बस इतनी ही वजह खास है

छिपा सकोगी न मुझसे अपने दिल की धड़कन
तेरी हर धड़कन मेरी आँखों मे बे लिबास है

दूर हुई हैं जबसे ये राहतें दिल की
फकत मैं ही नहीं तू भी तो उदास है

अब तो जो भी हो अंजाम परवाह किसे
एक तेरे सिवा न कोई और यहाँ खास है

आ चुका दूर बहुत दुनिया के वीराने से
तेरे सिवा आरजू कोई दिल को कहाँ रास है

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद

गजल-मुझसे कहते यहाँ

🌷ग़ज़ल- मुझसे कहते यहाँ

गर शिकायत थी तो मुझसे कहते यहाँ
न यूँ दूर तो मुझसे रहते यहाँ

बात ऐसी न थी जिसका हल ही न हो
बात दिल में जो थी दिल से सहते यहाँ

पास जो था हमारे तुम्हें भी दिया
क्या तुम्हें चाह थी मुझसे कहते यहाँ

दोष किस्मत का हरदम तो होता नहीं
जो मिला उसमें ही सुख से ही रहते यहाँ

 
तोड़ देना ही हरदम मुनासिब नहीं
दिल से दिल जोड़ कर फिर से रहते यहाँ

✍️अजय कुमार पाण्डेय
     हैदराबाद
     25 अगस्त, 2024


क्यूँ जान न पाया कोई

क्यूँ जान न पाया कोई

हर बार बिखरते शब्दों को हर बार बटोरा है सबने,
शायद उसके मन भावों को अब तक जान न पाया कोई।

सपनों की हर फुलवारी से पलकों का संबन्ध पुराना,
भावों के आलोड़न से ही बनता है अनुबंध सुहाना।
साथ-साथ मन की बगिया में ये पुष्प पात सब खिलते हैं,
इक आँचल ही के छाँव तले हर पुण्य पाप सब पलते हैं।

पाप-पुण्य की परिभाषा को शायद जान न पाया कोई,
शायद उसके मन भावों को अब तक जान न पाया कोई।

कितने टूटे शब्द व्याकरण पर मुश्किल जोड़ हुआ पाना,
हर बार छंद जब बखरे हैं मुश्किल होता है अपनाना।
जब शब्द पिरोए मोती में तब जाकर माला पूर्ण हुई,
क्यारी गीतों की लहराई जब वर्णों की आशा पूर्ण हुई।

गीतों का मन्तव्य अधर पर क्यूँ है जान न पाया कोई,
शायद उसके मन भावों को अब तक जान न पाया कोई।

हँसकर कहने भर से केवल अपवाद बना लेते हैं क्यूँ,
मुस्काकर यदि देख लिया तो अफवाह बना लेते हैं क्यूँ।
दो बातें कर लेने भर से अधिकार नहीं बन जाता है,
दो चार बार मिल लेने से स्वीकार नहीं हो जाता है।

हाँ और न का भेद जगत में क्यूँ कर जान न पाया कोई,
शायद उसके मन भावों को अब तक जान न पाया कोई।

खाल भेड़िए की ओढ़े हैं कितने ठहरे चौराहे पर,
संस्कारों के मूल तत्व सब औंधे क्यूँ हैं दोराहे पर।
लोकतंत्र का कैसा साया जब संस्कारों की बली चढ़े,
चौराहे पर शुचिता दूषित जन गण मन क्या तब कहो करे।

घुटी हुई चीखों की पीड़ा अब तक जान न पाया कोई,
शायद उसके मन भावों को अब तक जान न पाया कोई।

कुछ वहशी लोगों ने मिलकर संस्कारों का लहू पिया है,
भूल गये क्या इस धरती ने दुःशासन का हश्र किया है।
आखिर कब तक भारत माता अत्याचारों को झेलेगी,
राजनीति दूषित शैया पर यूँ बोलो कब तक लेटेगी।

शुचिता छलनी हुई सभा में क्यूँ मन जान न पाया कोई,
शायद उसके मन भावों को अब तक जान न पाया कोई।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17 अगस्त, 2024

हर सावन में आ जाती है बुआ घर की ड्योढ़ी तक



 हर सावन में आ जाती है बुआ घर की ड्योढ़ी तक

सदियों की सिलवट माथे पे चेहरे पर इक आस लिए,
हर सावन में आ जाती है बुआ घर की ड्योढ़ी तक।

केतनी कथा कहावत केतनी केतनो बात पुरानी हो,
केतनो यादें भूल जायें सब एक्को कहाँ भुलानी वो।
घर के कौनो बात चले बुआ के बिना अधूरी हौ,
चौखट पर सावन के बारिश उनके बिना न पूरी हौ।

बिना बात के बात निकाले नवके का अहसास लिए,
कनबतिया दुहरा जाती है दालानों की पौड़ी तक, 
हर सावन में आ जाती है बुआ घर की ड्योढ़ी तक।

माई-बाबू, भइया-भाभी से बात-बात पे रिसियईहैं,
उनके केउ अगर सुने ना तो देखत-देखत खिसियइहैं।
दुइ चार बूँद आँखिन में भरि के केतनी बात सुना देइहैं,
फिर अगले ही मौके पे दुसरे पे दोष लगा देइहैं।

एक जबानी गारी देइहैं दूसरे जबान मिठास लिए,
उनकी मुस्कानों से निकली जाती है जो त्यौरी तक,
हर सावन में आ जाती है बुआ घर की ड्योढ़ी तक।

आँखन में मोतिया पसरी हौ मुँह में दाँत नहीं एक्को,
घुटने भले बतास लगल हौ मुश्किल कदम चलल एक्को।
भले कमर केतनो झुक जाए भले सहारा लाठी हो,
धन दौलत अउर हीसा कूरा उनके बदे सब माटी हौ।

यहिं माटी में ऊ भी जन्मी बस इतना अधिकार लिए,
मन के कितनै रंग रंगाये दंतकथा की खौड़ी तक,
हर सावन में आ जाती है बुआ घर की ड्योढ़ी तक।

घर के कौनो मौका हो या भले तीज त्योहारी हो,
बुआ के काँधे पे लागत सगरो जिम्मेदारी हौ।
भतीज-भतीजिन के शादी में ऊ सबसे ज्यादा नाची है,
झोली में आशीष हौ जितना उनके खातिर बाँची है।

खोंईछा के चाउर में भरिकर जग के प्यार दुलार लिए,
हाथों की मेंहदी से लइ के मखमल की वर जौड़ी तक,
हर सावन में आ जाती है बुआ घर की ड्योढ़ी तक।

गुस्सा के मूरत हौ बुआ कब जाने भृकुटी तन जाए,
जइसे गोदी में ले लो तो पल भर में ही मन जाये।
घर के भीतर से बाहर तक उनकर ही अधिकार रहे,
अंतिम बात ओहि के माना भले नहीं स्वीकार रहे।

नइहर के हर बेचैनी में खुशियन के उपहार लिये,
धेला पैसा और जुगाड़े  सवा लाख की कौड़ी तक,
हर सावन में आ जाती है बुआ घर की ड्योढ़ी तक।

आपन सब कुछ छोड़ चली है प्रेम भाव बस मुट्ठी ले,
उम्र के अंतिम साँझ भले हौ लेकिन नाहीं छुट्टी ले।
अपने आँचल में लम्हों की यादें हर पल पाली हौ,
बुआ के आशीष प्रेम सब जात कबहुँ न खाली हौ।

साँझ ढले से पहले तन के दो बूँद प्रेम की प्यास लिये,
तारों का किमखाब दुपट्टा गोटा जारी चौड़ी तक,
हर सावन में आ जाती है बुआ घर की ड्योढ़ी तक।

 ©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16 अगस्त, 2024





मैंने रीत लिखे

मैंने रीत लिखे 


मैंने मर्यादित भावों से शब्द चुने फिर गीत लिखे
शिष्ट सृजन को पंथ बनाया तब जाकर कुछ गीत लिखे।।

सूरज से ली तपिश यहाँ पर चंदा से शीतलता ली।
लिया पवन से मुक्त भाव अरु तारों से चंचलता ली।
शब्दों का आलिंगन कर के अपने मन के मीत लिखे,
शिष्ट सृजन को पंथ बनाया तब जाकर कुछ गीत लिखे।

लिया पुष्प से खुशबू मैंने पातों से हरियाली ली।
अवनी से संबल पाया है अंबर की रखवाली ली।
पात-पात पिय पुष्प चुने तब प्रीत गढ़े नवगीत लिखे,
शिष्ट सृजन को पंथ बनाया तब जाकर कुछ गीत लिखे।

लिया प्रखर भावों को जग से अंतस में प्रिय भाव जगाया।
पल-पल बीते लम्हों से जो पाया गीतों में गाया।
जग से लेकर जग को देकर जग की प्रचलित रीत लिखे,
शिष्ट सृजन को पंथ बनाया तब जाकर कुछ गीत लिखे।

 ©️✍️अजय कुमार पाण्डेय

मुक्तक, शायरी

मुक्तक

मेरे जीवन के साँसों की तू डोर है।
मैं हूँ राही तो मंजिल का तू छोर है।
कब अकेला रहा मैं इस दिल के सफर में,
जो मैं हूँ पतंग तू ही मेरी डोर है।
****************************

तकदीर का रुख इस कदर मोड़ लूँ
तू मुझे ओढ़ ले मैं तुझे ओढ़ लूँ
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बिन तेरे रास्ते अजनबी है सभी।
रिश्ते नाते यहाँ अजनबी हैं सभी।
एक तुझसे जुड़ी सारी साँसें मेरी,
बिन तेरे साँसें भी अजनबी हैं सभी।
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बिन तेरे खुद से ही खुद को खोया हूँ मैं
देख न ले कोई आँसू मेरे इसलिए बरसात में रोया हूँ मैं

भींग जाता हूँ यादों की बारिश में जब
तेरी यादों को संग-संग भिंगोया हूँ मैं

कैसे कह दूँ के सपना कोई देखा नहीं
तेरे सपनों को अब तक सँजोया हूँ मैं

दूर जा कर भी देखा मैं यादों से तेरी
दूर रह कर भी यादों में खोया हूँ मैं

कैसे कह दूँ मैं रोया नहीं आज तक
फिर उसी मोड़ पर जा के रोया हूँ मैं
**************************
कुछ भाव हृदय के बाहर हैं कुछ भाव हृदय के भीतर।
कुछ आह दूर से दिख जाती कुछ आह हृदय के भीतर।
बाँध सका कब बंध जलधि को कितने जतन उपाय किये,
एक जलधि बाहर लहराया और एक हृदय के भीतर।
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भोर की उर्मियों में नया गीत है।
साँस की नर्मियों में नई प्रीत है।
राह जो बंद थी अब सभी खुल रही,
रश्मियाँ लिख रहीं नया संगीत है।
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छुपाओगे कहो कब तक दर्द, ये आँखे बोल ही देंगी।
तुम्हारे दिल में है जो बात, ये बातें बोल ही देंगी।
कोई होगा जो समझेगा के दिलों में दर्द है कितना,
अब छुपाओ लाख दर्द कितना ये आँखें बोल ही देंगी।
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छुपाना भी तुम्हीं से है दिखाना भी तुम्हीं को है।
हटाना भी तुम्हीं से है जताना भी तुम्हीं को है।
रहेंगे दूर कब तक हम जो रस्ता एक है अपना,
निभाना भी तुम्हीं से है बताना भी तुम्हीं को है।
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हाँ कभी यूँ ही तुम पास आकर के देखो।
बात दिल में जो है वो बताकर के देखो।
यूँ बेसहारा रहेंगे मिरे गीत कब तक,
साथ मेरे इन्हें गुनगुनाकर के देखो।
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जाने कितनी हसरत लिए जीया करता हूँ।
खुद से वादा मैं हर रोज कीया करता हूँ।
जख्म कितने भी मिले मुझे जमाने में यहाँ,
सारे जख्मों को हर रोज सीया करता हूँ।
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एक तन्हा नहीं मैं अकेला सफर में,
और भी मेंरे जैसे मुसाफिर यहाँ हैं।
आ चलें साथ में दो कदम उस गली तक,
कहने वाले यहाँ अब मुसाफिर कहाँ है।
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मौन नयनों की चितवन से कहने लगे।
अश्रु पलकों की चिलमन से बहने लगे।
चाहा जो दर्द अधरों पे आया नहीं,
इन पंक्तियों में वही गीत रचने लगे।
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जिस घड़ी आँख मेरी ये नम हो गयी
पीर इस दिल की थोड़ी सी कम हो गयी

बात यूँ ही जो निकली थी लब से मेरे
बात वो ही मेरी अब कसम हो गयी

तुझसे मिलने की ख्वाहिश अधूरी रही
शुरू हो न पाई कहानी खतम हो गयी

मुझसे लमहा सँभाला गया न वहाँ
मेरी वो ही खता अब सितम हो गयी

अब देखता हूँ क्षितिज को बड़े गौर से
उम्र की एक और शाम कम हो गयी

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खुशियों का प्याला

 खुशियों का प्याला

चकाचौंध हो हर कोने में कहीं उजाला कम न हो,
मेरे देश तू हँसते रहना खुशियों का प्याला कम न हों।

गाँवों-गाँवों बस्ती-बस्ती सपनों की अँगड़ाई हो,
पलकों के हर कोरों में खुशियों की परछाईं हो।
हर सपनों को पृष्ठ मिले अक्षर की माला कम न हो,
चकाचौंध हो हर कोने में कहीं उजाला कम न हो।

हर घर के आँगन में पल-पल किलकारी की गूँज उठे,
सबके अधरों पर गीतों के रागों की अनुगूँज उठे।
गीतों के हर शब्दों में वर्णों की माला कम न हो,
चकाचौंध हो हर कोने में कहीं उजाला कम न हो।

पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण भारत का गुणगान रहे,
इस दुनिया से उस दुनिया तक केवल भारत नाम रहे।
हर भूखे का पेट भरे और कभी निवाला कम न हो,
चकाचौंध हो हर कोने में कहीं उजाला कम न हो।

मुक्त धरा हो अवसादों से कहीं कभी उन्माद न हो,
अधिकारों-कर्तव्यों के मध्य कोई वाद-विवाद न हो।
संबंधों की ड्योढ़ी पर कभी प्रेम पियाला कम न हो,
चकाचौंध हो हर कोने में कहीं उजाला कम न हो।

राष्ट्र प्रथम के भावों से गुंजित ये आकाश रहे,
भारत माता के चेहरे पर खुशियों का अनुप्रास रहे।
हर नयनों में स्वप्न सजे सपनों का पियाला कम न हो,
चकाचौंध हो हर कोने में कहीं उजाला कम न हो।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14 अगस्त, 2024

समर्पण-गीत की पँक्तियाँ

समर्पण- गीत की पँक्तियाँ

तुम ना मिलती तो भी मैं उस द्वार तक आता वहाँ,
तुमको समर्पित गीत की मैं पँक्तियाँ गाता वहाँ।

थे अधूरे गीत जो भी पूर्ण सब तुमसे हुए हैं,
गीत के हर शब्द सारे पांखुरी बन मन छुए हैं।
एक पुष्पित भाव का अनुरोध मन पल-पल पनपता,
नैन में पल-पल सनेही भाव का सागर छलकता।

गीत रचने तक प्रतीक्षा मैं द्वार पर करता वहाँ,
तुमको समर्पित गीत की मैं पँक्तियाँ गाता वहाँ।

भोर की पहली किरण से सांध्य की अंतिम किरण तक,
नेह का अनुरोध पलता आत्म के अंतिम मिलन तक।
पुण्यता के दीप में अनुरोध की बाती जलाता,
हों घनेरे धुंध गहरे दीप बनकर झिलमिलाता।

सांध्य की अंतिम किरण तक मैं साथ में आता वहाँ,
तुमको समर्पित गीत की मैं पँक्तियाँ गाता वहाँ।

है नहीं संभव हृदय की भावना से पार पाना,
चाहे रहे कितना जटिल नेह का बंधन निभाना।
जोड़ता हर तार मन से स्वयं को आहूत करता,
पंथ के हर कंटकों को नेह से ही दूर करता।

जब तक न मिटती दूरियाँ हर बार मैं आता वहाँ,
तुमको समर्पित गीत की मैं पँक्तियाँ गाता वहाँ।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        11 अगस्त, 2024

था शायद तुमसे मेल यहीं तक

था शायद तुमसे मेल यहीं तक

एक अधूरी आशा लेकर एक अधूरापन जीना,
पलकों द्वारा आँसू अपने घूँट-घूँट कर के पीना।
सूने तन की दीवारों पर अंकित है कहीं निशानी,
कुछ यादों तक सीमित है तेरी मेरी सभी कहानी।

जब रही अधूरी सभी कहानी वादा कोई क्या करता,
जब था तुमसे मेल यहीं तक और शिकायत क्या करता।

बिखरे ख्वाब अधूरी रातें पुष्प सभी मुरझाए थे,
खंडित चंदा की चौखट पर तारे शीश झुकाए थे।
मौन सफर पर चली अकेली कब तक रात ठहर पाती,
रहे अधूरे गीत अधर पे रात उसे कैसे गाती।

रात अधूरी गीत अधूरे गाकर के मन क्या करता,
जब था तुमसे मेल यहीं तक और शिकायत क्या करता।

अनकहे विदाई गीतों में गीत हमारा शामिल है,
बलखाती लहरों को अब भी तकता कोई साहिल है।
गीतों के उस मुक्त छंद में कोई गीत अधूरा है,
गीत अधर पर जो खिल जाए वही गीत अब पूरा है।

रह गए अधूरे गीतों से कोई कब तक मन भरता,
जब था तुमसे मेल यहीं तक और शिकायत क्या करता।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09 अगस्त, 2024

देश मेरे

देश मेरे

मेरी साँसों की आहट में बस नाम बसा है तेरा,
वो शब्द कहाँ से लाऊँ मैं गुणगान कर सकूँ तेरा।

मुकुट हिमालय माथ सजा है चरणों में सागर तेरे,
पूरब-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण सपनों के लाखों घेरे।
तेरी मुस्कानों से होता सारे जग में उजियारा,
साँसों का हर कतरा-कतरा हमने तुझ पर है वारा।

तेरे चरणों में अर्पित है हर कतरा-कतरा मेरा,
वो शब्द कहाँ से लाऊँ मैं गुणगान कर सकूँ तेरा।

गंग यमुन की धार हृदय को सिंचित कर करती पावन,
दक्षिण गंगा कावेरी से होता भारत मन भावन।
विंध्य सतपुड़ा अंग सजाते जीवन की अँगनाई में,
कितने भाव मनोहर पनपे बहती इस पुरवाई में।

साँसों का हर तार समर्पित हर सपना-सपना तेरा,
वो शब्द कहाँ से लाऊँ मैं गुणगान कर सकूँ तेरा।

शस्य श्यामला धरती माता औ हरियाली है गहना,
माटी-माटी सोना उगले हर पलकों में है सपना।
प्रेम समर्पण सार ग्रन्थ के इस जीवन की परिभाषा,
सत्य शिवम सुंदर भावों से है गुंजित नभ की भाषा।

ज्ञान ध्यान का तुंग शिखर तू जो करे दूर अंधेरा,
वो शब्द कहाँ से लाऊँ मैं गुणगान कर सकूँ तेरा।

तेरी माटी में मिल जाऊँ बस इतना सा है सपना,
सारे जगत में कोई नहीं है तुझसा मेरा अपना।
करूँ गीत सब तुझे समर्पित बस तुझको ही मैं गाऊँ,
जब भी मैं मानव तन पाऊँ तेरी ही गोदी पाऊँ।

साँस-साँस मेरे जीवन की सब कतरा-कतरा तेरा,
वो शब्द कहाँ से लाऊँ मैं गुणगान कर सकूँ तेरा।

देश मिरे तेरे कदमों में साँस समर्पित मेरा,
वो शब्द कहाँ से लाऊँ मैं गुणगान कर सकूँ तेरा।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09 अगस्त, 2024


ऐसा अपना प्रेम नहीं

ऐसा अपना प्रेम नहीं

होगा आश्रित कहीं प्रेम कुछ शब्दों के अनुबन्धन में,
पर शब्दों में बँध जाये ऐसा अपना प्रेम नहीं है।

प्रेम हमारा पूर्ण गीत है सारे छंद समर्पित हैं,
शब्द व्याकरण के बौने इसके सम्मुख अर्पित हैं।
होगा आश्रित कहीं प्रेम मात्राओं के अनुबन्धन में,
पर मात्रा में बँध जाये ऐसा अपना प्रेम नहीं है।

कुछ यादें हैं कुछ वादें हैं कुछ में स्नेहिल बातें हैं,
कुछ में भाव प्रतीक्षा के हैं कुछ में नेहिल रातें हैं।
होगा आश्रित कहीं प्रेम कुछ यादों के अवगुंठन में,
पर यादों तक रह जाये ऐसा अपना प्रेम नहीं है।

उत्सुकता में प्रेम मिलन की पल-पल रातें जागी हैं,
पलक पाँवड़े द्वार बिछाये उम्मीदें भी माँगी हैं।
होगी आश्रित कहीं रात बस प्रेम मिलन के बंधन में,
प्रेम मिलन तक रह जाये ऐसा अपना प्रेम नहीं है।

पथ में काँटे कहीं मिलें अवरोध कहीं पर पर्वत से,
कहीं विपत का गहरा सागर कहीं पंथ के कंटक से।
कितने कंटक भले पंथ में अपने इस जीवन वन में,
अवरोधों से डर जाए ऐसा अपना प्रेम नहीं है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       04 अगस्त, 2024

पीड़ा को वरदान न मिलता सब गीत अधूरे रह जाते

यदि पीड़ा को वरदान न मिलता गीत अधूरे रह जाते पीड़ा को वरदान न मिलता सब गीत अधूरे रह जाते कितना पाया यहाँ जगत में कुछ भोगा कुछ छूट गया, कुछ ने ...