चाँद से प्रश्न
कुछ न बोला चाँद मुझको देखता बस रह गया।
वो एक नन्हीं गोद में नेह की आगोश में,
देखती थी चाँद को चाहती थी पास हो।
बंद मुट्ठी में छुपा कर थी रखीं कुछ रोटियाँ,
और पलकों के किनारों पर सजी कुछ लोरियाँ।
मैंने पूछा चाँद से लोरी क्यूँ अनमोल हैं,
कुछ न बोला चाँद मुझको देखता बस रह गया।
साँझ के अंतिम सिरे पर दर्द कुछ खामोश सा,
गिन रहा था उँगलियों पर वक्त की नादानियाँ।
ओढ़ चादर धुँधलके की छुप रहा था दिन वहीं,
धुंध में भी दिख रही थी वक्त की नाक़ामियाँ।
मैंने पूछा चाँद से कि साँझ क्यूँ अनबोल हैं,
कुछ न बोला चाँद मुझको देखता बस रह गया।
रोटियों में चाँद था या चाँद जैसी रोटियाँ,
खोजती थी लोरियों में तोतली सी बोलियाँ।
लोरियों को ओढ़ यहाँ भूख जब सो जायेगी,
और कह देंगी रोटी कल खिलाने आयेंगी।
मैंने पूछा चाँद से रोटी का क्या मोल है,
कुछ न बोला चाँद मुझको देखता बस रह गया।
एक बस्ती में उजाला एक में अँधियार क्यूँ,
पूछती है रोशनी का है यहाँ व्यापार क्यूँ।
एक सी थाली सभी की और चंदा एक सा,
मौन हो कैसे यहाँ अपनी नजर को फेरता।
मैंने पूछा चाँद से किसका सारा खेल है,
कुछ न बोला चाँद मुझको देखता बस रह गया।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
01 नवंबर, 2024
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