संशय के पल
रात ढलती नहीं बात बनती नहीं,
आस का दीप मन में कहीं जल रहा।
एक उम्मीद का थाम दामन मगर,
नेह का भाव मन में कहीं पल रहा।
नैन दो तीर पर व्यग्र होते हुए,
स्वयं से उम्र पल-पल उलझती रही।
जाने क्या भूल थी जो सजा ये मिली,
टीस पल-पल कलेजा मसलती रही।
टीस मिटती नहीं धुंध छँटती नहीं,
आस का दीप मन में कहीं जल रहा।
यदि क्षमाशील होना गलत बात है,
तो अपराध मेरा है अक्षम्य यहाँ।
व्यर्थ अनुरोध के पुष्प यदि हो गये,
पथ व्यवहार का होगा दुर्गम यहाँ।
व्यर्थ अहसास के पुष्प होते नहीं,
आस का दीप मन में कहीं जल रहा।
भूल खुद से हुई तो सजा खुद चुनूँ,
क्या कहूँ स्वयं से शब्द मिलते नहीं।
सूझता ही नहीं राह क्या अब चुनूँ,
अब अकेले यहाँ पाँव चलते नहीं।
लंबी संशय की रात ढलती नहीं,
आस का दीप मन में मगर जल रहा।
रात कितनी घनेरी हुई हो यहाँ,
अंधेरों के रोके सुबह कब रुकी,
लड़खड़ाई भले नाव मँझधार में,
थपेड़ों के आगे कब नौका झुकी।
अँधियाँ तेज कितनी भले चल रहीं,
आस का दीप मन में कहीं जल रहा।
कब चाहा हृदय युद्ध की बात हो,
दो कदम हम चलें दो कदम तुम चलो।
कब ये चाहा हृदय धुंध की रात हो,
एक लौ हम बनें एक लौ तुम बनो।
रात कितनी घनी धुंध ही धुंध हो,
आस का दीप मन में कहीं जल रहा।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
19 सितंबर, 2024
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें