मुक्त रचना- जीवन का ग्रंथ

जीवन का ग्रंथ

चलते-चलते राहों में जब पैर थक गये,
दो घड़ी सुस्ताने को फिर वहीं रुक गये।
वीथी पर जब नजर गयी तो याद आया,
इतनी दूर आने में पीछे क्या छोड़ आया।
कुछ सपनों को पाने को 
कुछ सपनों को तोड़ा है,
ये पाने की खातिर अब तक
पीछे क्या-क्या छोड़ा है।
कितनी दूर चले आये हैं
कितनी दूर अभी है जाना,
कितनी बाकी संध्या पथ की
अब तक मन इससे अनजाना।
किसी मोड़ पर मन ठहरेगा
शायद पथ का अंत वही हो,
बिखरे पृष्ठ जहाँ सज जायें
इस जीवन का ग्रंथ वहीं हो।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21 सितंबर, 2024


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