दर्द काली रात का
दर्द को उस जख्म को क्यूँ वक्त सहलाता नहीं।
घुल गया उस रोज जाने रात में कैसा जहर,
दूर तक फैली हुई थी रात की काली पहर।
रात की उस कालिमा का रंग क्यूँ जाता नहीं,
दर्द काली रात का क्यूँ आज तक जाता नहीं।
लग गयी उस रोज जाने रात को कैसी नजर,
नींद की आगोश में जब सो रहा सारा शहर।
रात में क्यूँ चीख थी क्यूँ वक्त बतलाता नहीं,
दर्द काली रात का क्यूँ आज तक जाता नहीं।
मौत का तांडव मचा था हर गली हर मोड़ पर,
जा रही थी जिंदगी हर साँस आँचल छोड़कर।
साँस के उस घाव को क्यूँ आज सहलाता नहीं,
दर्द काली रात का क्यूँ आज तक जाता नहीं।
जो हुआ उस रात उसमें रात की क्या थी खता,
मौत हत प्रभ ढूँढती थी जिंदगी का खुद पता।
उस पते पर पत्र कोई क्यूँ आज पँहुचाता नहीं,
दर्द काली रात का क्यूँ आज तक जाता नहीं।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
11 दिसंबर, 2014
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