अफसोस नहीं

अफसोस नहीं

टूटा जितनी बार हृदय ये उतनी बार सँभाला इसको,
एक बार जो टूटा फिर तो कोई भी अफसोस नहीं है।

दो बूँद पलक पर आकर ठहरे, हमने उसको समझा गहना,
अपनों से या मिले पराये, हमने हर आहों को पहना।
साँसों की बस डोर सँभाली, नहीं किसी पर जोर कभी था,
दूर क्षितिज पर जो सपने थे, देखा उनका छोर नहीं था।

पलकों के सूने आँगन में, कितनी बार पुकारा इसको, 
टूटा जो फिर आज सपन ये, पलकों का कुछ दोष नहीं है,

मोहपाश कुछ काम न आया, कितनी बार शब्द से सींचा,
रेशे-रेशे बिखर न जायें, हृदय लगाकर इनको भींचा।
लेकिन चंचल हृदय अधिक था, बाहों को अधिकार नहीं था,
जिसको दिल ने अपना समझा, रिश्तों का आधार नहीं था।

मोहपाश से निकल न पाया, कितनी बार निकाला इसको,
ढीली हुई पकड़ हाथों की, बाहों का कुछ दोष नहीं है।

निष्ठुर है चंचल छाया है, परिचय आकर्षण की सीमा,
स्नेह समर्पण मुद्राएं सब, क्या जाने किसका पथ धीमा।
जीवन लोहे की पटरी है, हर राहों को नापा इसने,
धूप ताप बारिश झेली है, तब जाकर पथ बाँधा इसने।

खुद ही अनुबन्धन में उलझे कितना ही सुलझाया इसको,
ढीली हुई पकड़ हाथों की, बाहों का कुछ दोष नहीं है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13 अक्टूबर, 2024

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