तुम बिन अब तो ये घर हमको खाली खाली लगता है।

तुम बिन अब तो ये घर हमको खाली खाली लगता है।

बिस्तर सूना-सूना सोफा खाली-खाली लगता है,
तुम बिन अब तो ये घर हमको खाली खाली लगता है।

सिलवटें बदलती करवट अब जाने क्या-क्या कहती हैं,
तकिए के लिहाफ से आँखें खोई-खोई रहती हैं।
चद्दर की तह भी अब तो मुश्किल से ही खुल पाती है,
गद्दे और चद्दर की बाहें मुश्किल से मिल पाती है।

चौकी का हर कोना अब तो खाली-खाली लगता है,
तुम बिन अब तो ये घर हमको खाली खाली लगता है।

कुछ बातों पर गुस्सा करना कुछ पर मन की कह लेना,
सुनने से पहले कितनी बातों का निर्णय कर लेना।
नाराज हुए तो भी आशीषों से झोली भर देना,
पलक कोर से तकना फिर उम्मीदों को जीवन देना।

पलकों के कोरों में अब कुछ खाली-खाली लगता है,
तुम बिन अब तो ये घर हमको खाली खाली लगता है।

तकती हैं चौखट को आँखें हर आहट पर उठती हैं,
आते जाते हर कदमों पे बरबस जाकर रुकती हैं।
और प्रतीक्षा है सपनों की पलकों के निज आँगन में,
आशीर्वादी पुष्प मिलेंगे फिर से मुझको दामन में।

आ जाओ अब आँगन मुझको अपना खाली लगता है,
तुम बिन अब तो ये घर हमको खाली खाली लगता है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12 अक्टूबर, 2024

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