व्याकरण की पृष्ठभूमी पर उठाती उँगलियाँ।

व्याकरण की पृष्ठभूमी पर उठाती उँगलियाँ।

कुछ शब्द के अनुरोध को पंक्तियाँ स्वीकार कर,
व्याकरण की पृष्ठभूमी पर उठाती उँगलियाँ।
जो लिखी ही न गयी हो आज तक किसी पृष्ठ पर,
हैं उठाते प्रश्न उस पर तिलमिलाती बदलियाँ।

सत्य पर पहरे लगाकर झूठ अब इतरा रहा,
धुंध का लेकर सहारा रश्मि को ठुकरा रहा।
आँधियाँ फिर से मचलकर द्वार का पथ रोकती,
धूल धूसर हो यहाँ पर रश्मियों को टोकतीं।

जो असल में ही नहीं है व्यर्थ ही स्वीकार कर,
व्याकरण की पृष्ठभूमी पर उठाती उँगलियाँ।

जब उजाले खौफ खायें रश्मियाँ छुपने लगें,
जब अँधेरे झूम कर आकाश को ढकने लगें।
राह में जब पौन के ही पत्थरों का ढेर हो,
नेह के बदले दिलों में पल रहा जब बैर हो।

अब अँधेरों के कथानक व्यर्थ ही स्वीकार कर,
व्याकरण की पृष्ठभूमी पर उठाती उँगलियाँ।

शीर्ष ही जब दे प्रलोभन निम्न क्यूँ उद्द्यम करे,
श्रेष्ठ भी तब ज्ञान को अज्ञानता के सम करे।
योग्यता के पैर में जब हो कँटीली बेड़ियाँ,
व्यर्थ के आधार पर बनने लगी हैं श्रेणियाँ।

ज्ञान अस्वीकार कर अब स्वार्थ अंगीकार कर,
व्याकरण की पृष्ठभूमी पर उठाती उँगलियाँ।

धर्म पर आक्षेप लगने जब लगे अज्ञानता से,
तुच्छता बढ़ने लगे जब समर्पित मान्यता से।
झूठ के आकाश में जब पल रही अभिव्यक्तियाँ,
फिर सुनेगा कौन मन के नेह की अभिवृत्तियाँ।

धर्म सम्मत पंथ के हर ज्ञान को व्यापार कर,
व्याकरण की पृष्ठभूमी पर उठाती उँगलियाँ।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16 जनवरी, 2024






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