रुक ना जाना तुम मुसाफिर

रुक ना जाना तुम मुसाफिर।  

शून्य से निकला सफर ये मौन इन पगडंडियों पर
सफर लंबा ये माना रुक ना जाना तुम मुसाफिर।।

चलते चलते खो ना जायें परछाईयाँ रास्तों पर
और विस्मृत हो न जायें यादें मन के रास्तों पर
हो चले जब तोड़ कर सब मोह माया बंधनों को
फिर पलट कर देखना क्या बीती को इन रास्तों पर।।

स्मृतियों के पदचिन्हों से दूर तू निकला यहाँ पर
सफर लंबा ये माना रुक ना जाना तुम मुसाफिर।।

द्वार से कितनी दफा तुम लौट कर आये वहाँ से
खटखटाये तुम न जाने द्वार अपनी भावना से
जब हो मरुस्थल सी दशा अंक में कुछ भी नहीं हो
खिलखिला कर पूछना प्रश्न स्वयं अपनी आत्मा से।।

आशियाँ तुझसे यहाँ फिर खोजता किसको यहाँ पर
सफर लंबा ये माना रुक ना जाना तुम मुसाफिर।।

जान ले इस पंथ पर पीछे जाने का ना रास्ता
है साथ ना तेरे कोई फिर क्या किसी से वास्ता
तू अकेला कब यहाँ पगडंडियाँ तेरी मीत हैं
झूम कर फिर चल यहाँ अपना ढूँढ़ ले तू रास्ता।।

लौट कर आता कहाँ वो वक्त जो निकला यहाँ पर
सफर लंबा ये माना रुक ना जाना तुम मुसाफिर।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद

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