विधना का लेख
लेकिन विधना के लिखे लेख को चाहा बदल नहीं पाया।
तिनका-तिनका जोड़ा प्रति पल लाखों जतन यहाँ कर डाले,
अपने मन को मार-मार कर औरों के बस सपने पाले।
कुछ चाहा लेकिन किया नहीं अरु अपने मन की जिया नहीं,
उलझे ऐसे यहाँ जगत में के पैबंदों को सिया नहीं।
दो पैबंद लगा लूँ मन में बस इतनी सी ही चाहत थी,
लेकिन विधना के लिखे लेख को चाहा बदल नहीं पाया।
कितना चाहा दूर हो सके मन विचलन की हर राहों से,
कितना चाहा मुक्त हो सके मन फिसलन से हर आहों से।
हों कंटक कितने भले तने में पुष्प खिला ही करता है,
दूर रहें कितने भी अपने पर हृदय मिला ही करता है।
मन से मन को पुनः मिला लूँ बस इतनी सी ही चाहत थी,
लेकिन विधना के लिखे लेख को चाहा बदल नहीं पाया।
कुरुवंशों के सभी पाप को संवादों से धोना चाहा,
श्रेष्ठ जनों की पुण्य छाँव में दो पल को बस सोना चाहा।
लेकिन मन में दुर्योधन हो असत्य सदैव ही पलता है,
अधम पाप मन में बैठा हो तो प्रथम स्वयं को छलता है।
संबंधों के भाव सँभालूँ बस इतनी सी ही चाहत थी,
लेकिन विधना के लिखे लेख को चाहा बदल नहीं पाया।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
09 फरवरी, 2024
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