क्यूँ जान न पाया कोई

क्यूँ जान न पाया कोई

हर बार बिखरते शब्दों को हर बार बटोरा है सबने,
शायद उसके मन भावों को अब तक जान न पाया कोई।

सपनों की हर फुलवारी से पलकों का संबन्ध पुराना,
भावों के आलोड़न से ही बनता है अनुबंध सुहाना।
साथ-साथ मन की बगिया में ये पुष्प पात सब खिलते हैं,
इक आँचल ही के छाँव तले हर पुण्य पाप सब पलते हैं।

पाप-पुण्य की परिभाषा को शायद जान न पाया कोई,
शायद उसके मन भावों को अब तक जान न पाया कोई।

कितने टूटे शब्द व्याकरण पर मुश्किल जोड़ हुआ पाना,
हर बार छंद जब बखरे हैं मुश्किल होता है अपनाना।
जब शब्द पिरोए मोती में तब जाकर माला पूर्ण हुई,
क्यारी गीतों की लहराई जब वर्णों की आशा पूर्ण हुई।

गीतों का मन्तव्य अधर पर क्यूँ है जान न पाया कोई,
शायद उसके मन भावों को अब तक जान न पाया कोई।

हँसकर कहने भर से केवल अपवाद बना लेते हैं क्यूँ,
मुस्काकर यदि देख लिया तो अफवाह बना लेते हैं क्यूँ।
दो बातें कर लेने भर से अधिकार नहीं बन जाता है,
दो चार बार मिल लेने से स्वीकार नहीं हो जाता है।

हाँ और न का भेद जगत में क्यूँ कर जान न पाया कोई,
शायद उसके मन भावों को अब तक जान न पाया कोई।

खाल भेड़िए की ओढ़े हैं कितने ठहरे चौराहे पर,
संस्कारों के मूल तत्व सब औंधे क्यूँ हैं दोराहे पर।
लोकतंत्र का कैसा साया जब संस्कारों की बली चढ़े,
चौराहे पर शुचिता दूषित जन गण मन क्या तब कहो करे।

घुटी हुई चीखों की पीड़ा अब तक जान न पाया कोई,
शायद उसके मन भावों को अब तक जान न पाया कोई।

कुछ वहशी लोगों ने मिलकर संस्कारों का लहू पिया है,
भूल गये क्या इस धरती ने दुःशासन का हश्र किया है।
आखिर कब तक भारत माता अत्याचारों को झेलेगी,
राजनीति दूषित शैया पर यूँ बोलो कब तक लेटेगी।

शुचिता छलनी हुई सभा में क्यूँ मन जान न पाया कोई,
शायद उसके मन भावों को अब तक जान न पाया कोई।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17 अगस्त, 2024

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