कुरुक्षेत्र का रण जीवन है पग-पग अगणित बाधाएँ
मोड़-मोड़ अवरोध बड़े हैं मोड़-मोड़ पर विपदाएँ।
विपदाओं के शीर्ष शिखर या शूल भरे हों राहों में,
सूख रहे हों कंठ तपिश से ज्वाला से या आहों से।
अलसाई आँखों की खातिर सपनों का कुछ मोल नहीं।
कंकड़-कंकड़ डाला घट में तब पानी ऊपर आया,
कितने छाले फूटे होंगे तब जाकर मंजिल पाया।
कितनी रातें जागी होंगी तब सपनों का महल बना,
पत्थर कितने तोड़े होंगे तब ये रस्ता सरल बना।
सहज भाव से यदि मिल जाये पानी उसका मोल नहीं।
दर्द नहीं जिनके जीवन में मोल खुशी का क्या जानें,
पीड़ा जिनको समझ न आई पीर किसी की क्या जानें।
जिन रिश्तों ने दर्द न झेला अपनापन क्या जानेंगे,
अपनों से जो जीते केवल खुशी हार की क्या जानेंगे।
बिन अपनों के मिली जीत का जीवन में कुछ मोल नहीँ।
कर्तव्यों के महाकुंभ में प्रतिदिन एक नहावन है,
इसकी डुबकी यहाँ जगत में गंगा जल सा पावन है।
प्रतिदिन घाट सजाता जीवन प्रतिदिन बहती जलधारा,
बूँद-बूँद कर में अंकित होती रहती अमृत धारा।
कर्तव्यों के बिना मिले जो अधिकारों का मोल नहीं।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
03 फरवरी, 2024
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