सूझता कुछ भी नहीं दूर तक अब तो सफर में,
जा छुपी है धूप साथी कौन जाने किस नगर में।
धूम्र साँसों से निकलती दिन ख़ुश्कियों के आ गये,
आ देख साथी फिर, कुहासे भरे दिन आ गये।
सूर्य प्राची से यहाँ अब दूर तक दिखता नहीं,
धुंध की इन चादरों पर काव्य कुछ लिखता नहीं।
ओढ़ चादर धुंध की क्या-क्या छुपाने आ गये,
आ देख साथी फिर, कुहासे भरे दिन आ गये।
दूर तक हैं खिलखिलाते पुष्प सरसों के यहाँ,
बालियों में गेहूओं की ओस लिपटी है यहाँ।
शीत के अहसास के कितने फसाने आ गये,
आ देख साथी फिर, कुहासे भरे दिन आ गये।
दूर जोड़ी सारसों की गीत कोई गा रही,
बुन रही है श्वेत स्वेटर दादी गुनगुना रही।
झुर्रियों की गोद के सपने सुहाने आ गये,
आ देख साथी फिर, कुहासे भरे दिन आ गये।
श्वेत धुँधली चादरों से आसमां को नापता,
बर्फ के अहसास से कोई धरा को बाँधता।
भोर से ले सांध्य तक अलावों के दिन आ गए,
आ देख साथी फिर, कुहासे भरे दिन आ गये।
बाँधता मन की गली को सिलसिला फिर बात का,
है मचलती कामना मधुमास वाली रात का।
पाश के अनुरोध के कितने बहाने आ गये,
आ देख साथी फिर, कुहासे भरे दिन आ गये।
शीत अधरों से निकल यूँ धूम्र बन कर छा रही,
धुंध की आगोश से ज्यूँ रेलगाड़ी आ रही।
साँस के छल्ले बनाने के बहाने आ गये,
आ देख साथी फिर, कुहासे भरे दिन आ गये।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
29 नवंबर, 2024
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