पलकों ने सपने छाँटे हैं
आँचल में बाकी काँटे हैं,
पलकों ने सपने छाँटे हैं।
निकल पड़ी दो बूँद ठहर जब,
पलकों को अहसास हुआ है।
सूनापन पसरा नयनों में,
आहों का उपवास हुआ है।
निज पलकों में अश्रु निवेदन,
साँसों में बस सन्नाटे हैं।
व्यापारी हो गयी व्यवस्था,
जाने कैसी लाचारी है।
गीत पुराने अधरों के सब,
स्वर में कैसी नाकारी है।
सरोकार सब नये हो गये,
हिस्सों ने अपने बाँटे हैं।
नहीं चेतना आवाहन में,
स्वर व्यंजन अब नहीं रागते।
वेद ग्रंथ गीता रामायण,
चौराहे अब नहीं बाँचते।
आयातित साँसों में घुलकर,
अपनों ने ही पथ काटे हैं।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
01 अक्टूबर, 2024
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