वो गीत पुराना बचपन का।

वो गीत पुराना बचपन का।  

ये मेरे मन आज सुना दो
वो गीत पुराना बचपन का।।

मन के सूने गलियारे में
आज पुरानी दस्तक आयी
कहीं छिपी थी जो कोने में
याद दबी जो कलतक आयी
यादों के उस पाँखी को फिर
फिर से वो आकाश खुला दो
मन का पंछी खोज रहा है
वो मीत पुराना बचपन का
ये मेरे मन आज सुना दो
वो गीत पुराना बचपन का।।

पाकर जिसको मन खिल जाए
खिल जाये राहों में कलियाँ
अँधियारों से दूर निकलकर
रोशन हों फिर मन की गलियाँ
निज मन मेरा सूनेपन में
आज मचलकर झूम उठे फिर
लेकर मुझको आज बुलाये
वो नाम पुराना बचपन का
ये मेरे मन आज सुना दो
वो गीत पुराना बचपन का।।

दूर गगन में गीत पुराना
फिर कोई आज सुनाता है
जाने क्यूँ लगता है ऐसा
फिर कोई मुझे बुलाता है
मन करता है मैं उड़ जाऊँ
फिरूँ गगन में दूर निकलकर
और सुनाऊँ सारे जग को
वो प्रीत पुराना बचपन का
ये मेरे मन आज सुना दो
वो गीत पुराना बचपन का।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय 
        हैदराबाद
        31दिसंबर, 2021




जिसमें याद तुम्हारी आये गीत नहीं अब मैं गाऊँगा।।


जिसमें याद तुम्हारी आये
गीत नहीं अब मैं गाऊँगा।।

मन में चाहे भाव उमड़ कर
पल पल मुझको तड़पायें
चाहे पलकों की ड्योढ़ी पर
यादें आँसू बन बह जायें
अनायास भी नाम तुम्हारा
अधरों पर मैं ना लाऊँगा
जिसमें याद तुम्हारी आये
गीत नहीं अब मैं गाऊँगा।।

साँझ ढले उस ताल किनारे
कितने सपने देखे हमने
आती जाती उन लहरों से
कितनी बातें सीखी हमने
जिस तल मन को घाव मिला हो
कभी नहीं मैं फिर जाऊँगा
जिसमें याद तुम्हारी आये
गीत नहीं अब मैं गाऊँगा।।

नयी दिशायें नयी रीतियाँ
नूतन पथ जीवन का होगा
जब रिश्तों ने मन को तोड़ा
और नहीं अब मंथन होगा
आज पुरानी उन यादों में
मन को मैं ना ले जाऊँगा
जिसमें याद तुम्हारी आये
गीत नहीं अब मैं गाऊँगा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय "देववंशी"
        हैदराबाद
        29दिसंबर, 2021


मन के भाव उचारूं।

मन के भाव उचारूं।  

मनो भाव की कौन दशा को
गीतों में मैं आज उतारूँ
शब्द कहाँ से लाऊँ बोलो
जिनसे मन के भाव उचारूं।।

पल पल छिन छिन जीवन के सब
मृदु मधु रह रह रीत रहे हैं
कैसे कह दूँ आज कहो तुम
जीवन कैसे बीत रहे हैं।।

तुम जो साथ नहीं तो बोलो
पृष्ठों में क्या भाव उतारूँ
शब्द कहाँ से लाऊँ बोलो
जिनसे मन के भाव उचारूं।।

कहने को तो लाखों अपने
अपना कौन नहीं मैं जानूँ
दूर क्षितिज तक चले साथ जो
बोलो कैसे मैं पहचानूँ।।

तुम से ही सब आस जुड़ी है
तुम्हीं कहो अब किसे पुकारूँ
शब्द कहाँ से लाऊँ बोलो
जिनसे मन के भाव उचारूं।।

इस जीवन मे जो कुछ पाया
सब में तेरा वरदान प्रभू
बस तेरा आशीष मुझे हो
और नहीं कोई चाह प्रभू।।

तुम पर छोड़ दिया हूँ सब कुछ
जीतूँ मैं या सब कुछ हारूँ
कौन यहाँ अब मिरा सहारा
तुम ही बोलो किसे पुकारूँ।।

मनो भाव की कौन दशा को
गीतों में मैं आज उतारूँ
शब्द कहाँ से लाऊँ बोलो
जिनसे मन के भाव उचारूं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय "देववंशी"
        हैदराबाद
        28दिसंबर, 2021

गीतों का मधुपान करा दो।

गीतों का मधुपान करा दो।  

मिरे सुलगते मनो भाव को
शीतलता का भान करा दो
बिखर न जाये भाव हृदय के
हो, इतना संज्ञान करा दो
प्यासे अब तक कर्ण मेरे हैं
गीतों का मधुपान करा दो।।

चलते पथ पर रहा निरंतर
पग पग उलझा उलझा जीवन
ऋतुओं के मृदु अनुमानों में
बहका बहका था ये उपवन
बरसो बनकर आज घटा तुम
मृदुल नेह का भान करा दो
प्यासे अब तक कर्ण मेरे हैं
गीतों का मधुपान करा दो।।

निर्जल अधरों पर मेरे ये
जाने कैसी प्यास जगी है
मेघ बरसते भींगे सावन
फिर भी कैसी आग लगी है
अंतस के इस सूनेपन में
अपनेपन का भान करा दो
प्यासे अब तक कर्ण मेरे हैं
गीतों का मधुपान करा दो।।

लगता जैसे दूर हो रहे
सपने पलकों से बोझल हो
दूर हो रही परछाईं भी
साँझ ढले पथ में ओझल हो
मन में जो भी आशंकायें
उनको नया विहान दिखा दो
प्यासे अब तक कर्ण मेरे हैं
गीतों का मधुपान करा दो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय "देववंशी"
        हैदराबाद
        27दिसंबर, 2021



मुलाकात लिखना।

मुलाकात लिखना।  

निगाहों निगाहों की सब बात लिखना
निगाहों की पहली मुलाकात लिखना।।

कहीं बात दिल की दबी रह गयी जो
फिर आज सारे वो जज्बात लिखना।।

रह रह के तेरा मचलना सँभलना
पलकों की अपनी करामात लिखना।।

बिन कहे कितनी बातें जो थी कही
साँसों से साँस की सौगात लिखना।।

कहीं बीत जाये घड़ी "देव" फिर ना
बाहों में भरकर नयी रात लिखना।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय "देववंशी"
        हैदराबाद
        27दिसंबर, 2021

पल पल सवाल करती है।

पल पल सवाल करती है।

कैसे कैसे सवाल करती है
जिंदगी हर पल कमाल करती है।।

लम्हा लम्हा बदल रहा ये मौसम
कतरा कतरा धमाल करती है।।

सपने पलकों में क्यूँ रुके नहीं
सपनों से ही सवाल करती है।।

जाने कैसा चलन जमाने का
झूठ पे जान निहाल करती है।।

सच कितना मुखर देव लेकिन
सच से पल पल सवाल करती है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय "देववंशी"
        हैदराबाद
        24दिसंबर, 2021

बस बढ़ते रहना।

बस बढ़ते रहना।  

पग पग जीवन की राहों में
अवरोधों के शिखर मिलेंगे
कुछ रोकेंगे राहें तेरी
कुछ यत्नों से तुझे छलेंगे
दृढ़ता को हथियार बनाकर
शांतचित्त बस चलते रहना
जीवन पथ कब रहा सुगम ये
शनैः शनैः बस बढ़ते रहना।।

तेरे शब्दों में कितने ही
शब्द जोड़ कर तुझे छलेंगे
तेरे अंतस को छलनी कर
बन तेरे मनमीत मिलेंगे
मन को ही तू ढाल बना ले
मन के गीतों में ही बहना
जीवन पथ कब रहा सुगम ये
शनैः शनैः बस बढ़ते रहना।।

यहाँ मृत्यु से पूर्व तुझे वो
तेरे सपनों को मारेंगे
मार सके न चरित्र जो तेरे
तुझे पंथ से भटकाएँगे
रहा कौन चिरकाल यहाँ पर
अवसादों में क्यूँ कर रहना
जीवन पथ कब रहा सुगम ये
शनैः शनैः बस बढ़ते रहना।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        24दिसंबर, 2021


मुझको मेरा गाम न मिलता।

मुझको मेरा गाम न मिलता। 

कैसे कह दूँ इस जीवन के
मूल पंथ से भटक गया हूँ
कैसे मैं स्वीकारूँ बोलो
मूल मंत्र से भटक गया हूँ
यदि बोझिल शामें होती तो
सुबह को भी मान ना मिलता
छोटे से जीवन में बोलो
मौन भला मैं कब तक रहता।।

जब भी पथ पर चला मचलकर
पथ के सब शूल हटाया है
थे पाँवों में वो चुभे मगर
नहीं मैंने अश्रु बहाया है
मगर चोट जो खायी दिल पर
तुमसे ना तो किससे कहता
छोटे से जीवन में बोलो
मौन भला मैं कब तक रहता।।

रात अँधेरी कदम कदम पर
दिनकर पर प्रश्न उठाया है
नहीं मिली पर राह उसे जब
उससे ही आस लगाया है
आशायें ना टूटी होतीं
तानों में अपमान न होता
दूर नहीं जो होता तो फिर
लाचार भला कब तक रहता।।

मैंने घर घर दरबारों में
शकुनी का मन पलते देखा
निज सपनों अरु स्वार्थ मोह में
हस्तिनापुर को जलते देखा
झूठ नहीं फलता बोलो यदि
सत्य को अपमान ना मिलता
कब तक घुटता मन ही मन में
मौन भला मैं कब तक रहता।।

नहीं चाह सत्ता को कोई
नहीं कामना, चाहत कोई
प्रेम पाश में बँधा रहूँ मैं
इसी आस में आँख न सोई
बोझिल आँखों के सपने ले
रात रात जो यूँ ही जलता
जीवन के इस कुरुक्षेत्र में
मुझको मेरा गाम न मिलता।।

 ©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद 
       23दिसंबर, 2021

गीतों को न भूल जाना।

गीतों को न भूल जाना।  

चुन चुन कर के शब्द शब्द
नवगीत मैंने है बनाया
और पिरोया भावों को 
फिर छंद को मैंने रिझाया
तब लिखे कुछ गीत हमने
मृदु आस का भरकर खजाना
है यही अनुरोध तुमसे
उन गीतों को न भूल जाना।।

सूर्य का पथ थक चले जब
अरु रश्मि ओझल हो रही हो
उम्र के उस मोड़ पर जब
ये साँस बोझल हो रही हो
भावनाओं को समझ कर
प्रीत से भरना खजाना
है यही अनुरोध तुमसे
उन गीतों को न भूल जाना।।

हम चले थे गीत लेकर
इस जगत के मन को रिझाने
मौन को आवाज देकर
प्रिय कामनाओं को सजाने
जो लगी ठोकर जगत से
उसको यहाँ फिर क्या दिखाना
है यही अनुरोध तुमसे
उन गीतों को न भूल जाना।।

साथ में कितने चले थे
पीछे कितने छूट गये हैं
मील के पत्थर सभी वो
कैसे कह दूँ रूठ गये हैं
चाह यश की कब मुझे थी
और कब थी कोई कामना
है यही अनुरोध तुमसे
उन गीतों को न भूल जाना।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23दिसंबर, 2021

प्रेम का प्रसार।

प्रेम का प्रसार।   

परबतों को चूमती मौसमों की तितलियाँ
सुरीली तान छेड़ती हवाओं की नर्मियाँ
सौम्यता के भावों का प्रेम का प्रसार है
अभिसार को व्यग्र हैं झूमती ये बदलियाँ।।

अंक में प्रकृति के ये पुण्य चमत्कार है
छू रहा जो भावों को प्रेम का प्रसार है।।

पंछियों के कलरवों से गूँजती वादियाँ
नदियों के प्रवाह में झूमती ये वादियाँ
पर्वतों के वृक्षों पर ये सूर्य की मधुर छुअन
शून्यता को भर रही हैं प्रेम की क्यारियाँ।।

पंथ पंथ पुण्य है भावों का श्रृंगार है
छू रहा जो भावों को प्रेम का प्रसार है। 

खोल चक्षु के पटों को देख आ रहा जो कल
शांत चित्त भाव हों ये पुण्यता ना हो विकल
अंक अंक प्रीत है अरु शब्द शब्द गीत है
सुन, गा रही हैं रश्मियाँ बादलों से निकल।।

अंतर्मन में गूँजता गीता का सार है
छू रहा जो भावों को प्रेम का प्रसार है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22दिसंबर, 2021

तुम भी बाहर आकर देखो।

तुम भी बाहर आकर देखो।  

रह रह सूरज छिपा गगन में
संझा का मन डोला है
तुम भी बाहर आकर देखो
चाँद गगन में निकला है।।

कब तक उलझे उलझे रहकर
मन अपना भटकाओगे
कब समझोगे मन भावों को
कब फिर खुद को पाओगे।।

आज मिलो फिर खुद ही देखो
मौसम बदला बदला है
तुम भी बाहर आकर देखो
चाँद गगन में निकला है।।

बँधकर कितने चक्रव्यूह में
गुमसुम गुमसुम रहते हो
आकाशों के घुप्प अँधेरे
पलकों में ले सहते हो।।

खोल पलक को मौन पलों से
जीवन बदला बदला है
तुम भी बाहर आकर देखो
चाँद गगन में निकला है।।

अधरों पर हैं बातें कितनी
आकुल बाहर आने को
अरु दर्पण में जो छवि दिख रही 
व्याकुल बाहर आने को।।

छोड़ो सारे किंतु परंतु को
मौसम पिघला पिघला है
तुम भी बाहर आकर देखो
चाँद गगन में निकला है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21दिसंबर, 2021

मेरे मन की अकथ व्यथा।

मेरे मन की अकथ व्यथा।  

मेरे मन की अकथ व्यथा पर 
तुम कहो क्या अश्रु बहाओगे।।

सागर की गहराई को क्या 
किरणें नाप सकी हैं बोलो
उसके अंतस की हलचल को
लहरें क्या जान सकीं बोलो
तटबंधों को मिले घाव को
फिर कैसे तुम झुठलाओगे
मेरे मन की अकथ व्यथा पर 
तुम कहो क्या अश्रु बहाओगे।।

रातों के उस अँधियारे का
घाव भला किसने देखा है
चंदा की उस शीतलता में
भाव जला किसने देखा है
गिरी दामिनी आशाओं पर
अब कैसे तुम दिखलाओगे
मेरे मन की अकथ व्यथा पर 
तुम कहो क्या अश्रु बहाओगे।।

मन ठहरा उन्मुक्त यहाँ पर
बंधन में कब बँध पाया है
कितने गीत लिखे जीवन ने
क्या अधरों ने सब गाया है
अधरों पर क्यूँ गीत रुके वो
कहो यहाँ क्या कह पाओगे
मेरे मन की अकथ व्यथा पर 
तुम कहो क्या अश्रु बहाओगे।।

भूल गये जो प्रीत पुरानी
साथ भला क्या दे पायेंगे
जिसने मन का दर्द ना समझा
साथ भला क्या चल पायेंगे
छोड़ गये जब बीच राह में
फिर कैसे तुम अपनाओगे
मेरे मन की अकथ व्यथा पर 
तुम कहो क्या अश्रु बहाओगे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       19दिसंबर, 2021

नव विहान।

नव विहान।   

भले तेज धार हो घोर अंधकार हो
चल रही बयार हो द्वार पर प्रहार हो
शब्द में घाव हो या चल रहे दाँव हो
तुम निडर हो डटो तेरी यही आन है
तेरा विश्वास ला रहा नव विहान है।।

हो सफल प्रार्थना है बस यही कामना
पूर्ण हो साधना लिए मन में भावना
तुम चलो पंथ पर न कोई व्यवधान हो
है अटल भावना तो शून्य में प्राण है
तेरा विश्वास ला रहा नव विहान है।।

पुण्य ये पंथ हो अरु पुण्य ये ग्रंथ हो
तेरे अधरों पे बस जीत का मंत्र हो
दूर कर पंथ के सारे अवरोधों को
कि मुट्ठी में तेरे खुला आसमान है
तेरा विश्वास ला रहा नव विहान है।।

तेरे हर लक्ष्य में बस धर्म का मान हो
तेरे मन भावों में कर्म ही महान हो
राष्ट्र का भाव हो ना कोई प्रभाव हो
अब लिख रहा जीत का तू नया गान है
तेरा विश्वास ला रहा नव विहान है।।

©®अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       18दिसंबर, 2021



जज्बात में।

जज्बात में।  

प्रेम का पथ मिला तुमसे सौगात में
यूँ लगा चाँदनी घुल गयी रात में।।
जब भी तुमसे मिले द्वार मन के खुले
तारे संग संग चले चाँदनी रात में।।
मन ने मन से कहा तन ने तन से कहा
रूप सजने लगे बात ही बात में।।
शब्द का अर्थ हो भाव का मर्म हो
गीत रचने लगे प्रीत के गात में।।
तन भी भींगा यहाँ मन भी भींगा यहाँ
प्रेम की मखमली आज बरसात में।।
तुम कहो ना कहो हमने सब सुन लिया
पलकों से जो बहे अश्रु जज्बात में।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17दिसंबर, 2021


लेखनी बस याद रखना व्याकरण ना भूल जाये।

लेखनी बस याद रखना व्याकरण ना भूल जाये।   

शब्द कितने ही जगत में गीत का मधुवन सजाते
लेखनी बस याद रखना व्याकरण ना भूल जाये।।

हर तरफ फैली हुई है गीत की मृदु कल्पनायें
शब्दों में उतरी हुई मन की सारी भावनायें
अब हो विरह के गीत या फिर हो मिलन के पलों का
सौम्य भावों में सिमटते शब्द की हों कामनायें।।

संतुलित हैं शब्द जो वो पंक्तियों को हैं सजाते
लेखनी बस याद रखना व्याकरण ना भूल जाये।।

शब्द की ना भूमिका जो भावनाओं को नकारे
क्या लिखेगा गीत फिर जो शब्द ही ना हों सहारे
जो शून्यता हो भाव में प्रेम भी जीवंत ना हो
फिर रुकेगी नाव कैसे प्रेम की नदिया किनारे।।

कोशिशें ही गीत की पुण्य आत्मा को हैं खिलाते
लेखनी बस याद रखना व्याकरण ना भूल जाये।।

पूज्य हैं सब शब्द सारे पृष्ठ पर जो भी छपे हैं
हैं समर्पित भाव सारे गीत में जो भी सजे हैं
हो सहज संयोग या फिर संप्रेष्य की पृष्ठभूमी
जो लिखे हों गीत में वो मुक्त भावों में दिखे हैं।।

सत्य अरु संयोग सारे हृदय में है खिलखिलाते
लेखनी बस याद रखना व्याकरण ना भूल जाये।।

©®✍️अजय कुमार पाण्डेय
           हैदराबाद
           16दिसंबर, 2021

भाव पनपे नये प्रीत के गात में।

भाव पनपे नये प्रीत के गात में।  

चाँदनी रात में चाँद के साथ में
भाव की ओढ़नी ओढ़ कर माथ पे
अंक में शब्द आकर ठहर यूँ गये
भाव पनपे नये प्रीत के गात में।।

चाँदनी ओढ़ कर प्रीत ऐसे मिली
पुष्प की पाँखुरि जैसे हो अधखुली
तुम मिले भाव चन्दन महकने लगा
यूँ लगा स्वयं से रात खुशियाँ मिली।।

आलिंगन में परछाईयाँ घुल गयीं
भाव पनपे नये प्रीत के गात में।।

पाँव की झाँझरें गीत गाने लगीं
हाथ की चूड़ियाँ गुनगुनाने लगीं
बिंदिया ने इशारे से सब कह दिया
प्रीत की कोंपलें लहलहाने लगीं।।

रूप के ताप से रात यूँ ढल गयी
भाव पनपे नये प्रीत के गात में।।

रात की रश्मियाँ भी पिघलने लगीं
भाव की बदलियाँ जब मचलने लगीं
थम गया वक्त भी प्रीत के अंक में
जिन्दगी बंदगी में बदलने लगी।।

यूँ मिले खिड़कियाँ खुल गयी रात की
भाव पनपे नये प्रीत के गात में।।

©®✒️अजय कुमार पाण्डेय
            हैदराबाद
            15दिसंबर, 2021

पुनर्मिलन के उस पल में।

पुनर्मिलन के उस पल में।  

पुष्प अहसासों के खिले हो गये जीवंत सपने
साँझ के धुँधलके में बाद बरसों के जब हम मिले।।

थे चित्र कितने नाच उठे उस रोज मानस पटल पर
मौन क्या कुछ कह गये थे बंद अधरों ने मचल कर
उस घड़ी सूने डगर पर इक कारवाँ था चल पड़ा
रिश्तों की खामोशियों की बर्फ बिखरी थी पिघलकर।।

मौन पल में भाव सारे फिर लगे नवगीत रचने
साँझ के धुँधलके में बाद बरसों के जब हम मिले।।

गोधूलि बेला में क्षितिज पर सूर्य देखो झुक रहा
मृदु रात की आगोश में हो शांत देखो छुप रहा
बन रहे हैं भाव कितने पल पल मृदुल स्पंदनों के
और ऋतुओं की छमक में पिय भाव हिय के झुक रहा।।

भावनाओं की शिला पर वो शब्द सब छपने लगे
साँझ के धुँधलके में बाद बरसों के जब हम मिले।।

चाँदनी किरणें मचलकर श्रृंगार फिर करने लगीं
अरु पुष्प अधरों से झरे तो शून्यता भरने लगी
भर लिया भुजपाश में पल गीत कुछ मचले वहाँ पर
मन की वीणा में मधुर सी तरंगिनी बजने लगी।।

पंखुरी फिर तब झरे थे पुष्प की मंदाकिनी से
साँझ के धुँधलके में बाद बरसों के जब हम मिले।।

था वो कोई स्वप्न या फिर पूर्ण तपस्या हुई थी
या मिला वरदान मुझको जो पूर्व में खोई हुई थी
स्वाति की बूँदें पड़ीं जब भावनाओं की धरा पर
जग उठी संवेदनाएँ जो कभी सोई हुई थी।।

भाव सब खिलने लगे थे जो रचे थे कल्पना ने
साँझ के धुँधलके में बाद बरसों के जब हम मिले।।

©®✍️अजय कुमार पाण्डेय
           हैदराबाद
           14दिसंबर, 2021



मुक्तक- संघर्ष, हौसला, लक्ष्य।

मुक्तक- संघर्ष, हौसला, लक्ष्य।  

जिंदगी का पथ आसान बना लेते हैं
दर्द कैसा हो मुस्कान बना लेते हैं
जो पुण्य पथिक हैं इस संघर्ष मार्ग के
काँटों में भी पहचान बना लेते हैं।।

ये माना जिंदगी आसान नहीं होती
मेहनत कोई हो अनाम नहीं होती
जो यदि हौसला हो कुछ कर गुजरने का
तो कोई मंजिल गुमनाम नहीं होती।।

माना जिंदगी हर कदम एक इम्तिहान है
पर तेरे कदमों में ही तो आसमान है
अब जला ले अपने हौसलों के चिराग तू
फिर तिरे लक्ष्य में कहाँ कोई व्यवधान है।।

©®✍️अजय कुमार पाण्डेय
           हैदराबाद
          10दिसंबर, 2021




ना रुकना तू लक्ष्य का संधान कर।।




यादों के पन्ने।

यादों के पन्ने।  

एक बंजारा तेरे शहर में देख यहाँ फिर आया है
भूली बिसरी यादों के कुछ पन्ने संग संग लाया है।।

गीतों की कुछ मौन पँक्तियाँ
कविताओं के सूने अक्षर
यादों के मानसरोवर के
वो लहराते कितने मंजर
बीते पल के गलियारों से कुछ पल के टुकड़े लाया है
भूली बिसरी यादों के कुछ पन्ने संग संग लाया है।।

स्मृतियों के व्योम पटल पर
अलिखित एक अधूरी सूची
बीते कल के जिन चित्रों में
रंग नहीं भर पायी कूची
अधूरे चित्रों की शेष स्मृतियाँ संग में लेकर आया है
भूली बिसरी यादों के कुछ पन्ने संग संग लाया है।।

जीवन के वो मृदु पल जिसमें
दो अनजाने मिले कभी थे
गीतों की सरगम के जैसे
अंतर्मन को बहलाये थे
जीवन के उन मृदुल पलों के कुछ भाव सुनहरे लाया है
भूली बिसरी यादों के कुछ पन्ने संग संग लाया है।।

संस्मरणों के नील कमल के
भाव हृदय में अब तक जीवित
मौन मचलती इच्छाओं के
उन भावों को कर के सीमित
संस्मरणों के उस नील कमल की कुछ पंखुड़ियाँ लाया है
भूली बिसरी यादों के कुछ पन्ने संग संग लाया है।।

©®✍️अजय कुमार पाण्डेय
           हैदराबाद
           10दिसंबर, 2021

भारत गीत।

भारत गीत।  

गीत लिखूँ क्या तुझपे बोलो
शब्दों में इतनी जान नहीं
तुझ पर कोई छंद लिखूँ
छंदों की भी पहचान नहीं
तू है तो है ये दुनिया मेरी
तुझसे ही मेरी आन है
देश मेरे ऐ देश मेरे
तू ही तो मेरी जान है।।

तेरे आँचल में जन्म लिया
तेरा ही तो मैं जाया हूँ
कितने जन्मों का पुण्य फला
तब जाकर तुझको पाया हूँ
ये जीवन तुझपर अर्पण है
 तू है तो मेरी शान है
देश मेरे ऐ देश मेरे
तू ही तो मेरी जान है।।

गंगा जमुना की लहरों से
जीवन मेरा ये सिंचित है
शीश हिमालय ताज मेरा
मैं कैसे कहूँ कि किंचित है
दिनकर की किरणों के जैसा
श्वेत प्रखर ईमान है
देश मेरे ऐ देश मेरे
तू ही तो मेरी जान है।।

खेत खेत में सोना उपजे
त्याग समर्पण क्यारी क्यारी
गाँव शहर गलियों में गूँजे
राष्ट्रप्रेम वाली अग्यारी
पुण्य भाव से संचित मन है
ऊँची तेरी शान है
देश मेरे ऐ देश मेरे
तू ही तो मेरी जान है।।

शिक्षा संस्कृति और सभ्यता
तुझसे ही सब फलित हुईं
ज्ञान कला विज्ञान धरोहर
तुझसे सब पल्लवित हुईं
पुण्य भावना धर्म परायण
तू ही तो वेद पुराण है
देश मेरे ऐ देश मेरे
तू ही तो मेरी जान है।।

है यही प्रार्थना ईश्वर से
रहती दुनिया तक मान रहे
सूर्य चंद्र दुनिया में जब तक
कण कण तेरा गुणगान रहे
प्राण वायु है दुनिया की तू
तुझसे दुनिया की शान है
देश मेरे ऐ देश मेरे
तू ही तो मेरी जान है।।

हो चरणों में जीवन अर्पित
बस इतना चाहने वाला हूँ
तेरा प्यार मिला है मुझको
मैं कितना नसीबों वाला हूँ
मेरे लहू के कण कण को
तुझसे ही मिलती जान है
देश मेरे ऐ देश मेरे
तू ही तो मेरी जान है।।

©®✍️अजय कुमार पाण्डेय
           हैदराबाद
           09दिसंबर, 2021







तुम मिले जिंदगी मुस्कुराने लगी।

तुम मील जिंदगी मुस्कुराने लगी।  

जिंदगी का सफर था अधूरा यहाँ
तुम मिले जिंदगी मुस्कुराने लगी।।

गीत अधरों पे आकर मचलने लगे
छंद की पालकी गुनगुनाने लगी
जिंदगी का सफर था अधूरा यहाँ
तुम मिले जिंदगी मुस्कुराने लगी।।

राह में पुष्प ने मखमली पथ लिखे
चूम कर तेरे पाँवों को जीवन लिखे
शाख पेड़ों की झुक अगवानी करी
नव पात ने प्रीत के गीत नूतन लिखे
छू के कदमों के तेरे मचलते निशाँ
राह की दूब भी खिलखिलाने लगी
जिंदगी का सफर था अधूरा यहाँ
तुम मिले जिंदगी मुस्कुराने लगी।।

तुम जो आये तो उपवन महकने लगा
मेरे जीवन का मधुवन बहकने लगा
रंग जीवन में ऐसे भरे प्यार के
कि मेरा जीवन समूचा बदलने लगा
गीत कलियों ने लिखे यूँ उल्लास के
रश्मियाँ झूम कर गुनगुनाने लगीं
जिंदगी का सफर था अधूरा यहाँ
तुम मिले जिंदगी मुस्कुराने लगी।।

प्रीत का पंथ तुमसे यूँ रोशन हुआ
अपने अधरों से तुमने जो इनको छुआ
कह गयी बात दिल की ये पुरवाई जब
चेहरा खिल कर तुम्हारा गुलाबी हुआ
अंक में गीत ऋतुओं के मधुमास के
ये चाँदनी भी मचल गीत गाने लगी
जिंदगी का सफर था अधूरा यहाँ
तुम मिले जिंदगी मुस्कुराने लगी।।

©®✍️अजय कुमार पाण्डेय
           हैदराबाद
           08दिसंबर, 2021







बात हृदय की।

बात हृदय की।  

जाने प्रेम की कथाएँ यूँ सिमट कर रह गयीं
कुछ को मिली मंजिल यहाँ कुछ बिखर कर रह गयीं
है यहाँ पर इक कहानी जो कहो कह दूँ प्रिये
बात जो निकले हृदय से गूँजती कल तक रहे।।

प्रेम के कुछ पुष्प चुन पंथ हमने है सजाये
भाव के व्योम पर हमने लिखी कितनी कथायें
और फिर कितनी लिखी है काव्य में नव भूमिका
गीत में ढल शब्द वो पंक्तियों में मुस्कुराये।।

मुस्कुराये शब्द जो भी तुम कहो कह दूँ प्रिये
बात जो निकले हृदय से गूँजती कल तक रहे।।

वाटिका में हृदय के पिय भाव सुंदर सज रहे
प्रिय अधरों पर तुम्हारे गीत मेरे जँच रहे
कामना अब है यही के मैं प्रेम को नव गान दूँ
और फिर वो कहूँ जो कृष्ण से राधा ने कहे।।

कभी दूर तुमसे न रहें स्वप्न पलकों के प्रिये
बात जो निकले हृदय से गूँजती कल तक रहे।।

फिर चलो इस पंथ पर हम रीत कुछ नूतन रचें
प्रेम के विश्वास के अनुप्रास से पन्ने सजें
जोड़ कर अध्याय नव पीढ़ियों का पथ सँवारे
और रचें नव रीत जो भी इतिहास के पन्ने सजें।।

शब्द के व्योम पर गूँजे गीत सदियों तक प्रिये
बात जो निकले हृदय से गूँजती कल तक रहे।।

©®✒️अजय कुमार पाण्डेय
           हैदराबाद
           07दिसंबर, 2021

जीवन अपना बहला लेना।

जीवन अपना बहला लेना।  

दो पल जीवन की आशा के
ना जाने कब मिट जायेंगे
आज मिले हैं जीवन पथ में
दूर कहाँ तक चल पायेंगे
क्षणभंगुर है जीवन अपना
कल जाने सब मिट जाना है
मिटने से पहले जीवन के
कुछ गीत मनोहर गा लेना
मन में प्रियवर भाव सजा कर
जीवन अपना बहला लेना।।

जीवन में पग पग पर तुमको
फूल मिलेंगे शूल मिलेंगे
रिश्तों के ये महासमर भी
कभी प्रेम तो कभी छलेंगे
पग पग राहें नहीं मखमली
काँटों की शैय्या भी होगी
जीवन के इस कटू सत्य को
अपने मन को समझा लेना
मन में प्रियवर भाव सजा कर
जीवन अपना बहला लेना।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06दिसंबर, 2021

काव्य में नव भाव रच तूलिका ने सम्मान पाया।

काव्य में नव भाव रच तूलिका ने सम्मान पाया।  

क्रोंच पक्षी के रुदन को काव्य का इक रूप देकर
मौन आँसू जो गिरे थे भाव को इक रूप देकर
कुछ पंक्तियों में सिमटकर दर्द ने नव गान पाया
काव्य में नव भाव रच तूलिका ने सम्मान पाया।।

दर्द भावों में उभरकर नव गीत बनकर छा गये
गीत अधरों से उतरकर नव काव्य बनकर छा गये
पंक्ति का आकार पाकर सब भावनायें खिल गयीं 
जो रचे उसे रोज हिय ने दर्द बनकर छा गये।।

शब्द का श्रृंगार पाकर दर्द को सबका बनाया
काव्य में नव भाव रच तूलिका ने सम्मान पाया।।

जो थे घुटन मन में कहीं वो भाव पन्नों पर लिखे
अरु शब्द के हर उस चुभन के घाव पन्नों पर लिखे
लिख दिये प्रतिरोज जाने पीर जीवन के पलों की
बाकी जो भी रह गया वो दर्द पलकों पर दिखे।।

भाव को विस्तार देकर गीत को सबका बनाया
काव्य में नव भाव रच तूलिका ने सम्मान पाया।।

गीत में जीवन सुरों के वो राग सारे लिख दिये
नेह के सुंदर पलों के पिय राग सारे लिख दिये
लिख दिये नव गीत कितने मन लुभाती कामना के
राग को सम्मान देकर नव प्रीत का पथ रच दिये।।

साज का नव सुर सजाकर गीत ने सोपान पाया
काव्य में नव भाव रच तूलिका ने सम्मान पाया।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        05दिसंबर, 2021


रोज खुद को ढूँढता हूँ।

रोज खुद को ढूँढता हूँ।  

कौन हूँ मैं प्रश्न ये प्रतिरोज खुद से पूछता हूँ
आस की उँगली पकड़कर मुश्किलों से जूझता हूँ
ताप से तपती धरा पर हौसलों की पौन लेकर
सच कहूँ तब इस शहर में रोज खुद को ढूँढता हूँ।।

चाहता हूँ मैं लिखूँ नव गीत जीवन के सुरों पर
चाहता हूँ मैं गढूं आज चित्र नूतन पत्थरों पर
तराशता वजूद अपना पत्थरों की आड़ लेकर
सच कहूँ तब इस शहर में रोज खुद को ढूँढता हूँ।।

इस कदर खामोशी कैसी शोर की महफ़िल में बोलो
लगता साये खड़े हों दौड़ती राहों में बोलो
साँझ की आड़ में जब गुमनाम हो साये छुप गये
सच कहूँ तब इस शहर में रोज खुद को ढूँढता हूँ।।

देखते हर रोज खुदको सुबह से लेकर साँझ तक
कह न पाये बात दिल की खुद से नहीं क्यूँ आज तक
सालता है मौन जब भी भीड़ की तनहाइयों में
सच कहूँ तब इस शहर में रोज खुद को ढूँढता हूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        05दिसंबर, 2021

हैं अधूरे प्रश्न तो फिर उत्तरों की आस क्यूँ।

हैं अधूरे प्रश्न तो फिर उत्तरों की आस क्यूँ।।

क्या लिखूँ फिर आज बोलो शब्द अपनी तूलिका से
क्या गढूं फिर आज बोलो भाव मैं निज भूमिका के
जिंदगी में प्रश्न कितने बढ़ रहे हर रोज लेकिन
जो हैं अधूरे प्रश्न तो फिर उत्तरों की आस क्यूँ।।

है दृष्टि का ये दोष या फिर स्वयं ही सब गिर गये
जो फूल मुरझाये नहीं थे शाख से क्यूँ गिर गये
था हवा का जोर या कमजोर डाली थी वहाँ की
इक झोंक भी जो सह सके ना टूट कर जो गिर गये।।

जो गिर गये हों स्वयं से ही फिर हवा से रार क्यूँ
जो हैं अधूरे प्रश्न तो फिर उत्तरों की आस क्यूँ।।

जो थे हृदय के भाव जब अंक में डूबे सिमटकर
व्यक्त भी जब कर सके ना शब्द अधरों पर निखरकर
मोल क्या रहता कहो फिर अनुबंध का विश्वास का
भाव ही जब गिर गये हों पंक्तियों से ही बिखरकर।।

जब पंक्तियों से भाव बिखरे साज से फिर रार क्यूँ
जो हैं अधूरे प्रश्न तो फिर उत्तरों की आस क्यूँ।।

है यामिनी की गोद में जो सूर्य जा कर ढल गया
है नियत ये पूर्व से कैसे कहो कोई छल गया
धुँधलके में बात कोई रह गयी माना सिमटकर
है फिर समय का दोष कैसा जो हृदय को खल गया।।

अब जो नियति में है लिखित उस बात से फिर रार क्यूँ
जो हैं अधूरे प्रश्न तो फिर उत्तरों की आस क्यूँ।।

पंक्ति के विन्यास में कई शब्द अधूरे रह गये
कल तलक जो साथ थे माना छोड़ तुझको बढ़ गये
प्रतिबिम्ब अपना कब रहा है सूर्य के ढलने बाद
क्या हुआ कुछ स्वप्न तिरे पलकों से माना झर गये।।

चल नया फिर स्वप्न बुन तू अब पूर्व से ये रार क्यूँ
जो हैं अधूरे प्रश्न तो फिर उत्तरों की आस क्यूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04दिसंबर, 2021


सप्तपद- मौन अधरों के गीत।

सप्तपद- मौन अधरों के गीत।  

जिंदगी के मोड़ पर जब नव प्रीत की आस लिए
कुछ बंधनों को छोड़ एक नया विश्वास लिए
भोर की पहली किरण से भाव मुस्काने लगे
मौन अधरों पर सज शब्द गीत बन छाने लगे।।

अंजुली भर कर नीर ले पुण्य का आशीष ले
मंत्रों के उचार में मृदु कामना की प्रीत ले
अक्षतों का रंग ले और कर पुष्प की पाँखुरी 
आस का आकाश ले ओढ़ माथ लाल चूनरी
यज्ञ के ज्वाल में मुख खिला जैसे स्वर्ण का कमल
भाव का विस्तार में समाहित हो गया हो पल
उस एक पल में ही सारे सत्य सिमटने लगे
मौन अधरों पर सज शब्द गीत बन छाने लगे।।

रात के आकाश में झूमे चाँद की चाँदनी
लाज के अंक में सिमटी जा रही है मोहनी
तारे गगन के सभी बाराती बन झूम रहे
झूम रश्मियाँ चाँद की कपोलों को चूम रहे
मस्त मस्त सी पवन शुभ गीत यहाँ गा रही
रात रानी खिल गयी मन भाव को महका रही
ओस की मृदुल छुअन में भाव गुनगुनाने लगे
मौन अधरों पर सज शब्द गीत बन छाने लगे।।

देख मृदुल रूप कितने स्वप्न नव मचलने लगे
नैन के कोरों पे कितने भाव थिरकने लगे
थरथराते होठों से सप्तपदों को बाँचना
रश्मि किरणों में लिपट कर झिलमिलाती कामना
रूप के श्रृंगार की साकार होती कामना
यूँ लगे जैसे देव भी कर रहे हों याचना
इक नया उत्साह मन के भाव महकाने लगे
मौन अधरों पर सज शब्द गीत बन छाने लगे।।

सप्तपदी का वचन विश्वासों का आधार है
नेह का आकाश है अरु प्रेम का आधार है
कृष्ण का ये प्रेम है श्री राम का ये आस है
रुक्मिणी का पत्र है अरु सीता का विश्वास है
अंजुली में समाये वो प्रीत का आकाश है
प्रेम के मृदु ग्रंथ के प्रिय शब्द का अनुप्रास है
दसों दिशाएं झूम झूम गीत प्रिय गाने लगे
मौन अधरों पर सज शब्द गीत बन छाने लगे।।

भोर की पहली किरण ने शब्द हौले से कहा
है ये नव श्रृंगार के पल कानों में आकर कहा
मिल लिखेंगे गीत नव जिंदगी के मृदु पलों के
प्रेम के विश्वास के अर्पण का नव संकल्प लें
चाँद तारे धरती गगन सब आज साक्षी बने
वेद मंत्रों ऋचाओं में भाव आकांक्षी बने
सप्तपदी के वचन सभी झूम कर गाने लगे
मौन अधरों पर सज शब्द गीत बन छाने लगे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03दिसंबर, 2021

गीतों में सारा समंदर लिखूँ।

गीतों में सारा समंदर लिखूँ।  

चाँदनी रात हो तारों का साथ हो
प्रीत की रागिनी से मुलाकात हो
कुछ दिल में मेरे कुछ दिल में तेरे
जो कही ना गयी आज वो बात हो।।

शब्द तेरे मधुर छाँव में पल रहे
बनकर दीपक अँधेरों में जल रहे
राह रोकेगी क्या मुश्किलें मेरी
साथ मेरे कदम जब तिरे चल रहे।।

नींद की गोद में स्वप्न के पंख हों
रात की गोद में जश्न का रंग हो
गीत जो भी रचे चाँदनी प्यार से
पंक्तियों में सभी प्रीत का संग हो।।

प्राण का है प्रण गीतों में कुछ लिखूँ
शब्द में पंक्ति में भाव सुंदर लिखूँ
लिखूँ जो भी वो गूँजे आकाश में
अरु गीतों में सारा समंदर लिखूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01दिसंबर, 2021

मौन मृदु रस घोलता है।

मौन मृदु रस घोलता है। 

गीत के हर शब्द में जब
भाव की अँगड़ाइयां हों
और तेरी राह में जब
पुण्य की परछाइयाँ हों
तब मुखर हो गीत मन का
बात दिल की बोलता है
और जीवन के पलों में
मौन मृदु रस घोलता है।।

जब व्यथा के गीत में भी
प्रिय शब्द का संचार हो
जब हृदय की भावना में
प्रिय नेह का संसार हो
तब मुखर हो प्रीत मन से
भाव के पट खोलता है
और जीवन के पलों में
मौन मृदु रस घोलता है।।

जब नजारे झूम कर के
गीत की महफ़िल सजायें
जब सितारे झूम कर के
रात का आँचल सजायें
तब मुखर हो रश्मियाँ ये
गीत में रस घोलती हैं
और जीवन के पलों में
मौन मृदु रस घोलती हैं।।

जब हृदय की भावनायें
मुक्त होकर गीत गाये
जब मचलती कामनायें
प्रीत को भी जीत जायें
तब मुखर हो गीत मन के
कान में रस घोलता है
और जीवन के पलों में
मौन मृदु रस घोलता है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30नवंबर, 2021

खुद से दिल बहला लेना।

खुद से दिल बहला लेना।  

जब कोई तेरी बात सुने ना
मन से बातें कर लेना
जब बात किसी से कह ना पाओ
खुद से बातें कह लेना।।

ये माना कितनी बात हृदय में
तेरे घर कर बैठी है
ये माना कितने भाव हृदय में
गहरे छुपकर बैठी है।।

जब मन के भाव निकल ना पायें
खुद को तब दिखला लेना
जब कोई तुझसे बात करे ना
खुद से दिल बहला लेना।।

क्यूँ जली जा रही रात सुनहरी
तारे भी क्यूँ गुमसुम हैं
क्यूँ पिघल रही है शबनम ऐसे
लगता खुद से अनबन है।।

पिय मन का सूनापन समझा कर
खुद से प्रीत लगा लेना
जब तेरा कोई मीत बने ना
खुद को मीत बना लेना।।

फिर नेह किसी से क्या होगा जब
खुद से नेह नहीं होगा
अरु मोह किसी से क्या होगा जब
खुद से मोह नहीं होगा।।

जग से नेह लगाने से पहले
खुद से नेह लगा लेना
जब कहीं अकेलापन तड़पाये
खुद को तुम अपना लेना।।

इस जीवन का ये भेद समझ लो
मन के दर्द कहीं न खोलो
यदि जग से तुझको गरल मिला है
खुशी खुशी उसको पी लो।।

कोई अश्रु पोंछने वाला न हो
खुद ही गले लगा लेना
अरु अपने गीतों में जीवन के
सारा मर्म छुपा लेना।।

जब कभी अकेलापन तड़पाये
खुद से दिल बहला लेना।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30नवंबर, 2021




मन करता नित नूतन नर्तन।

मन करता नित नूतन नर्तन।  

तुम्हें देख कर भाव जगे मन करता नित नूतन नर्तन
जैसे मधुवन में करता है भँवरा नित नूतन गुंजन।।

पड़े रश्मि किरणें पुष्पों पर ऐसा रूप तुम्हारा है
खिली खिली कलियों ने जैसे लगता रंग निखारा है
अधरों के कंपन ने जैसे राग भैरवी गायी है
बादल के झुरमुट से जैसे धूप सुनहरी आयी है।।

मेरा मन आह्लादित करता रंग रूप का ये संगम
जैसे मधुवन में करता है भँवरा नित नूतन गुंजन।।

तेरे कदमों की आहट से धरती भी बलखाती है
उड़े धूल चंदन बन कर के उपवन को महकाती है
तेरी परछाईं से छूकर पिय मृदु भाव पनपते हैं
जैसे भोजपत्रों पर कोई गीत नया लिख जाती है।।

तेरे नुपुरों से सजता है निज मन का सूना आँगन
जैसे मधुवन में करता है भँवरा नित नूतन गुंजन।।

रति पति के सब भाव मनहरे तेरी पलकों में सजते
नख से शिख तक जो भी पहने तुझ पर हैं सारे सजते
दृष्टि भाव के छुअन मात्र से सिहरन मन में आती है
नया अर्थ पाता है जीवन जब जब हम तुझसे मिलते।।

तेरे मेरे मन भावों का जाने कैसा है संगम
जैसे मधुवन में करता है भँवरा नित नूतन गुंजन।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29नवंबर, 2021

मेरा अस्तित्व।

मेरा अस्तित्व।

एक प्रश्न उछला कहीं से थी कहीं उसमें रवानी
पूछने मुझसे लगा मेरे अस्तित्व की कहानी।।

कौन हूँ मैं कौन हो तुम प्रश्न अहर्निश चल रहा है
सबके मन में भावों में द्वंद जैसे पल रहा है
है कोई एहसास या फिर भावनाओं की छुअन
प्रश्न का आकार ले जो स्वयं से ही मिल रहा है।।

नित्य गहराती घनेरी परतों की यहाँ पर बदलियाँ
पूछने मुझसे लगीं मेरे अस्तित्व की कहानी।।

स्वयं में क्या पूर्ण है या पूर्णता की क्या निशानी
कह सका है कौन बोलो पूर्णता अपनी जुबानी
सबके अपने भाव हैं और सबकी अपनी जिंदगी
सबके अपने मूल हैं सबकी है अपनी कहानी।।

नित्य मुस्काती मचलती शब्द की अठखेलियाँ 
पूछने मुझसे लगीं मेरे अस्तित्व की कहानी।।

है इधर या फिर उधर या दायरे में है कहीं पर
कौन जाने किस घड़ी ये दूर जा बैठे क्षितिज पर
प्रश्न की परछाइयों में क्या उत्तरों की भूमिका
मौन मन उलझा विगत के स्वयं की ही भूमिका पर।।

नित्य समझाकर स्वयं को मौन मन की भूमिकायें
पूछने मुझसे लगीं मेरे अस्तित्व की कहानी।।

 ©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद 
        29नवंबर, 2021

मधुप की अभिलाषा।

मधुप की अभिलाषा।  

सोच रहा है आज मधुप पुष्प का जीवन सँवारुँ
झूम कर नाचूँ आज मैं प्रीत का आँगन बुहारूँ।।

माँगता है भोर से नव रूप की मोहनी आशा
अरु उषा से अरुण पीत रंगों की शोभती आभा
कर रहा विनती सिंधु से आसमानी रंग भर दे
और मिटा दे हृदय से डूबती उतरती निराशा।।

सोच रहा है आज मधुप आस से जीवन सँवारुँ
झूम कर नाचूँ आज मैं प्रीत का आँगन बुहारूँ।।

झूम कर चूमता पुष्प वो भरता परागकणों को
संग्रहित करता अंक में नेह के मीठे क्षणों को
अंजुरि भर गंगा जल पलकों में सपनों की लाली
श्वेत कमल सा भाव लिए पूजता जीवन पलों को।।

सोच रहा है आज मधुप पुष्प में खुद को मिला लूँ
झूम कर नाचूँ आज मैं प्रीत का आँगन बुहारूँ।।

प्रकृति के भित्तचित्र पर रंगों की मोहक आभायें
बैठ शिखर अभिलाषा के पुण्य मचलती आशायें
राग, द्वेष, मद मोह छोड़ जीवन के पिय आँगन में
और भरे निज गुंजन से गीतों में नव गाथायें।।

सोच रहा है आज मधुप जीवन का नव रूप निखारुँ
झूम कर नाचूँ आज मैं प्रीत का आँगन बुहारूँ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28नवंबर, 2021

है अधूरा गीत मेरा पूर्ण अब कर दीजिए।

है अधूरा गीत मेरा पूर्ण अब कर दीजिए।  

जो हो सके तो गीत मेरा पूर्ण अब कर दीजिए
कब तक सिमट कर मैं रहूँगा इक अधूरे गीत सा।।

मैं छपा हूँ पृष्ठ पर ले भावनाओं का समंदर
आस के आकाश पर उम्मीद का लेकर समंदर
कुछ पँक्तियाँ अब तक अधूरी पूर्ण अब कर दीजिए
कब तक सिमट कर मैं रहूँगा इक अधूरे गीत सा।।

हूँ यहाँ गुमनाम सा मैं भूली कहानी की तरह
एक झलक जो देख लो खिल जाऊँ जीवन की तरह
थाम कर अब हाथ मेरा आवाज मुझको दीजिए
कब तक सिमट कर मैं रहूँगा इक अधूरे गीत सा।।

शब्द मिल जाये जो मुझको गीत लिख सकता हूँ मैं
साथ मिल जाये तुम्हारा जीत लिख सकता हूँ मैं
मेरे अधूरे ख्वाब हैं जो पूर्ण अब कर दीजिए
कब तक सिमट कर मैं रहूँगा इक अधूरे गीत सा।।

सोचा था के मैं निखर जाऊँगा लिखने के बाद
पूर्ण हो जाऊँगा मैं पन्नों में सजने के बाद
मेरे अधूरे संकलन को पूर्ण अब कर दीजिए
कब तक सिमट कर मैं रहूँगा इक अधूरे गीत सा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27नवंबर, 2021





काशी-नेह का सुंदर सवेरा।

काशी-नेह का सुंदर सवेरा।  

इस धरा के पृष्ठ का है कौन सुंदर वो चितेरा
जिसने फैलाया जगत में नेह का सुंदर सवेरा।।

बादलों के श्वेत पट से ओस की बूँदें गिरी जब
इस धरा की कोख पर वो मोतियों सी हैं खिली तब
भोर की किरणें मचलकर दृश्य नूतन हैं सजाती
और पंछी भी सुरीली तान में हैं गुनगुनाती।।

इस धरा के पृष्ठ पर किसने सजाया है बसेरा
जिसने फैलाया जगत में नेह का सुंदर सवेरा।।

गंग की इस धार में हैं नाचती किरणें मचलकर
कह रही हैं आज सुन लो शब्द वो सारे सँभलकर
घाट के उस छोर से इस छोर तक है बंदगी
कह रही लहरें मचलकर हैं बस यहीं पर जिंदगी।।

घाट के इस पृष्ठ का है कौन वो सुंदर चितेरा
जिसने फैलाया जगत में नेह का सुंदर सवेरा।।

मंत्र के उच्चारणों से गूँजती खुशियाँ यहाँ पर
देव गीतों से भजन से गूँजती गलियाँ यहाँ पर
वेद के उत्तम स्वरों से भोर होती है सुहानी
अरु साँझ के धुँधलके में आरती होती सुहानी।।

वेद के इस रूप का है कौन वो सुंदर चितेरा
जिसने फैलाया जगत में नेह का सुंदर सवेरा।।

देव की है भूमि काशी मोक्ष है मिलता यहाँ पर
शब्द जीवन मृत्यु का सब साथ में चलता यहाँ पर
कुंभ में जीवत्व के जो दूर करती है उदासी
ऐसा खुशियों का नगर देवताओं की है काशी।।

इस धरा पर मोक्ष का है कौन वो सुंदर चितेरा
जिसने फैलाया जगत में नेह का सुंदर सवेरा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25नवंबर, 2021



हृदय के भाव को आश्रय मिला है।

हृदय के भाव को आश्रय मिला है।  

कल्पनाओं के शिखर पर कुछ स्वप्न की अठखेलियाँ
यूँ लगा जैसे हृदय के भाव को आश्रय मिला है।।

भोर की आगोश में दिन का उजाला मुस्कुराये
रश्मि किरणों में मगन हो मन का मयूरा गुनगुनाये
एक झोंका जब हवा का खोल पट वातायनों का
कान में मधु घोल दे अरु भोर का पथ खिलखिलाए।।

रश्मि का आभार पाया जीत को आशय मिला है
यूँ लगा जैसे हृदय के भाव को आश्रय मिला है।।

साँझ का पट खोल कर के चाँद कुछ ऐसे मिला है
ओट में आँचल के जैसे रूप दुल्हन का खिला है
अंक में मधुमास के कुछ रंग से भरने लगे हैं
शब्द के श्रृंगार से नव पुष्प अधरों पर खिला है।।

प्रीत ने श्रृंगार पाया कामना को बल मिला है
यूँ लगा जैसे हृदय के भाव को आश्रय मिला है।।

साँस की सारंगियों ने गीत है कुछ गुनगुनाया
धड़कनों ने राग छेड़ा यामिनी को है सजाया
चाँदनी खिलकर यहाँ पर कर रही हमको इशारे
आस के आकाश ने है पंथ पुष्पों से सजाया।।

अब निराशा के प्रहर बस चंद लम्हों के बचे हैं
मन निलय की भावना को मोह का आशय मिला है
यूँ लगा जैसे हृदय के भाव को आश्रय मिला है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25नवंबर, 2021

रुक ना जाना तुम मुसाफिर

रुक ना जाना तुम मुसाफिर।  

है शून्य से निकला सफर ये मौन इन पगडंडियों पर
है सफर लंबा ये माना रुक ना जाना तुम मुसाफिर।।

चलते चलते खो ना जायें परछाईयाँ इन रास्तों पर
और विस्मृत हो न जायें वो यादें मन के रास्तों पर
हो चले जब तोड़ कर तुम सब मोह माया बंधनों को
फिर पलट कर देखना क्या उन बीती को इन रास्तों पर।।

स्मृतियों के पदचिन्हों से अब दूर तू निकला यहाँ पर
है सफर लंबा ये माना रुक ना जाना तुम मुसाफिर।।

द्वार से कितनी ही दफा तुम लौट कर आये वहाँ से
खटखटाये तुम न जाने वो द्वार अपनी भावना से
जब हो मरुस्थल सी दशा अरु अंक में कुछ भी नहीं हो
खिलखिला कर पूछना फिर प्रश्न स्वयं अपनी आत्मा से।।

अब आशियाँ तुझसे यहाँ फिर खोजता किसको यहाँ पर
है सफर लंबा ये माना रुक ना जाना तुम मुसाफिर।।

जान ले इस पंथ पर अब पीछे जाने का ना रास्ता
है साथ ना तेरे कोई जब फिर क्या किसी से वास्ता
तू अकेला कब यहाँ जब पगडंडियाँ तेरी मीत हैं
झूम कर फिर चल यहाँ पर अपना ढूँढ़ ले तू आसमां।।

है लौट कर आता कहाँ वो वक्त जो निकला यहाँ पर
है सफर लंबा ये माना रुक ना जाना तुम मुसाफिर।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        24नवंबर, 2021

गीत मधुर क्या बन पाया है।।

गीत मधुर क्या बन पाया है।।


आशाओं के पृष्ठभूमि पर कितने गीत लिखे चुन चुन कर
बोलो केवल लिखने भर से गीत मधुर क्या बन पाया है।।

रंगपट्ट पर चली तूलिका जब जब स्वप्न सजाये सबने
रंग भरे इच्छाओं के अरु नूतन रूप सजाये सबने
रंगों में सज कर बोलो जीवन मुस्काता कब खिल खिल कर
लेकिन केवल खिलने भर से कहो चित्र सुघड़ बन पाया है
बोलो केवल लिखने भर से गीत मधुर क्या बन पाया है।।

दिशाहीन अल्हड़ता से बस कुछ पल का आराम मिला है
ये माना क्षणिक फुहारों से कुछ पल को आराम मिला है
कुछ पल के आरामों से क्या शांति मिली है बोलो खुलकर
कुछ पल के विश्राम से क्या ये जीवन खुलकर जी पाया है
बोलो केवल लिखने भर से गीत मधुर क्या बन पाया है।।

चली कलम जब भी पन्नों पर कितने ही नवगीत लिखे हैं
जाने कितनों के भावों को सुंदर सा मनमीत लिखे हैं
लिखे गीत कितने ही सबने बोलो इक दूजे से मिलकर
पन्नों पर बस छप जाने से गीत मधुर क्या बन पाया है
बोलो केवल लिखने भर से गीत मधुर क्या बन पाया है।।

मन की क्यारी में कितने ही पुष्प खिलाये हैं भावों के
बड़े जतन से सींचा उनको अपनाये हैं सब दावों को
दावों अरु वादों में जीवन कहता आया बस सुन सुन कर
लेकिन केवल सुनने भर से गीत मधुर क्या बन पाया है
बोलो केवल लिखने भर से गीत मधुर क्या बन पाया है।।

विरले ही हैं लोग यहाँ पर जो महाकाव्य रच पाते हैं
संकल्पों के बिन जीवन ये नवगीत कहाँ रच पाते हैं
बिन संकल्पों के जीवन के प्रश्न कहाँ सुलझे हैं खुलकर
लेकिन केवल हल मिलने से प्रश्न सरल क्या बन पाया है
बोलो केवल लिखने भर से गीत मधुर क्या बन पाया है।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        24नवंबर, 2021

जाने कैसा राग दे रहा।

जाने कैसा राग दे रहा।  

दूर देश में बैठा कोई बेमतलब आवाज दे रहा
अपने कुंठित भावों से जाने कैसा राग दे रहा।।

भारत को जो समझ न पाए आज गवाही देने आए
जिसने इसको कभी न समझा दुनिया को समझाने आये
घिसे पिटे कुछ तर्कों से वो बेमतलब संवाद दे रहा
अपने कुंठित भावों से जाने कैसा राग दे रहा।।

सोच किसी की गंदी हो जब राष्ट्र भला क्या कर सकता है
ज्ञान किसी का किंचित हो जब मान भला क्या मिल सकता है
नैतिकता का बोध नहीं पर नैतिकता की बात कह रहा
अपने कुंठित भावों से जाने कैसा राग दे रहा।।

मूल भाव को समझ न पाये दूजे पर क्यूँ दोष मढ़े वो
संस्कृति को जब समझ न पाये उस पर कैसा रोष करे वो
संस्कृतियों का मर्म ना समझा जाने कैसा ज्ञान दे रहा
अपने कुंठित भावों से जाने कैसा राग दे रहा।।

अभिव्यक्ति पर रोक लगी है दूर कहीं पर खड़ा रो रहा
यही बात बतलाने को वो अभिव्यक्ति का नाम दे रहा
लगता बुझती राखों पर चिंगारी रख आग दे रहा
अपने कुंठित भावों से जाने कैसा राग दे रहा।।

राष्ट्र का मतलब वो जानता जिसने जीवन जाना है
जीवन वो ही धन्य हुआ है जिसने भारत पहचाना है
वो क्या जाने भारत को जो दूर खड़ा हो दाग दे रहा
अपने कुंठित भावों से जाने कैसा राग दे रहा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21नवंबर, 2021

व्यथा के गीत में उल्लास भरना ही उचित है।

व्यथा के गीत में उल्लास भरना ही उचित है।

भाव जब समझा न पायें शब्द की संवेदना के
तब व्यथा के गीत में उल्लास भरना ही उचित है।।

कंठ से निकले कभी जो शब्द मन की कह सके ना
वेदना के भाव के अहसास को भी सह सके ना
और सम्मुख हो खड़ा जग मौन पत्थर की तरह जब
आह के किंचित स्वरों के मर्म भी जब सुन सके ना
वेदना समझा न पाओ आह की अवहेलना के
तब व्यथा के गीत में उल्लास भरना ही उचित है।।

चोट जो दिल पर लगी हो जब उसे दिखला न पाओ
बात जो तेरे हृदय में जब उसे समझा न पाओ
शब्द के वो मर्म सारे मौन कुंठित हो रहें जब
और उस पत्थर हृदय को बात जब बतला न पाओ
शब्द भी समझा न पाये सत्य की अवहेलना जब
तब व्यथा के गीत में उल्लास भरना ही उचित है।।

व्याकरण के शब्द भी जब गीत पूरा लिख सके ना
पंक्तियों में भावना को व्यक्त भी जब कर सके ना
छंद के निर्माण में अरु शब्द में विचलन उठे जब
लेखनी भी जब जहाँ पर मुक्त हो कर चल सके ना
व्याकरण समझा न पाये शब्द की अनुवेदना जब
तब व्यथा के गीत में उल्लास भरना ही उचित है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21नवंबर, 2021

काश मिल जाता मुझे मैं ढूँढता था जो किनारे।।

काश मिल जाता मुझे मैं ढूँढता था जो किनारे।।

हूँ व्यथित मैं आज फिर से थाम स्मृतियों के सहारे
काश मिल जाता मुझे मैं ढूँढता था जो किनारे।।

भावनाओं के समर में बस डूबता गिरता रहा
ले के जाने ख्वाब कितने मन ही मन कुढ़ता रहा
खींचता खुद को कहाँ से स्वयँ जब मंझधार चाहा
और डूबा जब वहाँ मैं सारा जग हंसता रहा।।

मौन मेरी वेदना पथ जोहती कैसे सहारे
काश मिल जाता मुझे मैं ढूँढता था जो किनारे।।

बादलों को ओढ़कर सोचा सहारा मिल गया
उफान थी लहरों में पर सोचा किनारा मिल गया
थी वो शायद मरीचिका जिस पर भरोसा था किया
मेरे उस एहसास को अपराध का फल मिल गया।।

अपराध था मेरा वहाँ फिर चाहता कैसे सहारे
काश मिल जाता मुझे मैं ढूँढता था जो किनारे।।

काल के व्यवहार में सोचा यहाँ कुछ बदलाव कर दूँ
तोड़ कर अपवाद सारे मैं नया इतिहास रच दूँ
भूल बैठा मैं यहाँ पर वक्त में ठहराव कब है
स्वार्थ की आँधियों में संभव यहाँ बदलाव कब है।।

था असंभव जो यहाँ पर माँग बैठा वो सहारे
काश मिल जाता मुझे मैं ढूँढता था जो किनारे।।

है यही अफसोस मुझको सत्य को बतला न पाया
झूठ के आडंबरों को मैं यहाँ झुठला न पाया
भूल थी अपनी हि कोई झूठ कोई कह गया
देखते ही देखते मेरा सत्य सारा बह गया।।

यज्ञ की आहुति कब पूरी हुई बिना मंत्र सहारे
काश मिल जाता मुझे मैं ढूँढता था जो किनारे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20नवंबर, 2021

मन गीत नहीं वो गा पाया।

मन गीत नहीं वो गा पाया।  

जाने कितने गीत कंठ में व्याकुल अधरों पर आने को
लेकिन सरगम ना सजने से मन गीत नहीं वो गा पाया।।

खामोश निगाहों ने ढूँढा प्रतिपल प्रतिक्षण इक अपनापन
उम्मीदों की सेज सजाया और बुहारा मन का आँगन
पल पल कितने जतन किये हैं इस जीवन का सुख पाने को
जाने क्यूँकर सज ना पाया वो निज नयनों का सूनापन।।

नयनों का वो निज सूनापन लालायित सब कह जाने को
लेकिन सरगम ना सजने से मन गीत नहीं वो गा पाया।।

निज बाहों में प्रतिपल सबने खिलता अंबर भरना चाहा
अंबर के सूने भावों को गीतों में यूँ कहना चाहा
मिलन यामिनी के पल में भी जितने स्वप्न बुने जीवन ने
जीवन के सारे भावों को मन ने कहना सुनना चाहा।।

मन का वृंदावन मधुमासित उल्लासित सब कह जाने को
लेकिन सरगम ना सजने से मन गीत नहीं वो गा पाया।।

गोधूली बेला में जीवन सूरज के ढलने से पहले
संध्या प्राची की दुल्हन सी आयी मन भावों को हरने
इच्छाओं ने पंख पसारे आशाओं ने भोजपत्र लिखे
नयनों की भाषा पढ़कर के गीत मधुर अधरों ने पहने।।

अधरों पर जो भी गीत सजे लालायित सब कह जाने को
लेकिन सरगम ना सजने से मन गीत नहीं वो गा पाया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18नवंबर, 2021


धूल बन कर रह गए।

धूल बन कर रह गए।   

जाने किस व्यवहार की हम भूल बनकर रह गये
रास्तों में कुछ यूँ गिरे हम धूल बन कर रह गये।।

ताप की उम्मीद में दीपक जला बैठे थे हम
सूर्य के उस तेज को दीपक दिखा बैठे थे हम
आज उसकी लौ से ही झुलसी हमारी उँगलियाँ
सूर्य को होते हुए भी छा गयी हैं बदलियाँ।।

बदलियों के झुण्ड में हम राह भूलकर रह गए
रास्तों में कुछ यूँ गिरे हम धूल बन कर रह गये।।

जिस राह में सोचा बिछाऊँ पुष्प की पंखुड़ियाँ
उस राह में क्यूँ बिछ गये आज जंगल कटीले
जिस पुष्प में सोचा मिलेंगी सतरंगी तितलियाँ
उस पुष्प से क्यूँ कर मिले दंश विधना के नुकीले।।

उस दंश के एहसास में हम झूल कर रह गए
रास्तों में कुछ यूँ गिरे हम धूल बन कर रह गये।।

व्याकरण सब चुक गया नहीं कुछ कोष संचित रहा
जाने किन किन पंक्तियों में भाव भी वंचित रहा
सींचने जिस वृक्ष को थे कितने जतन हमने किये
हर जतन हर यत्न मेरा हर बार ही किंचित रहा।।

हर यत्न में संभावनाएँ बिखेर कर हम रह गए
रास्तों में कुछ यूँ गिरे हम धूल बन कर रह गये।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17नवंबर, 2021

यादें।

यादें।   

कैसे कह दूँ के याद अब आती नहीं
सच तो है के तू जहन से जाती नहीं।।

देखा जब जब आईने में मैंने खुद को
तेरी ही सूरत आयी है नजर मुझको
बिन तेरे कोई महफ़िल सुहाती नहीं
कैसे कह दूँ के याद अब आती नहीं।।

बारहा दिल को समझाया बहाने ने
हाल इस दिल का कब पूछा जमाने ने
बहाना, दिलासा कोई दिलाती नहीं
कैसे कह दूँ के याद अब आती नहीं।।

टूटा जब दिल आवाज नही होती है
कैसे कह दूँ बरसात नहीं होती है
अब तो आँसू से भी प्यास जाती नहीं
कैसे कह दूँ के याद अब आती नहीं।।

सोचता था बिन तेरे सँभल जाऊँगा
याद के साये से भी निकल जाऊँगा
ऐसा उलझा यहाँ राह सुहाती नहीं
कैसे कह दूँ के याद अब आती नहीं।।

सोचा था जी लूँगा तेरे बिन मैं तो
जख्मों को सी लूँगा तेरे बिन मैं तो
पर दर्द जाने वो मगर क्यूँ जाती नहीं
कैसे कह दूँ के याद अब आती नहीं।।

अब तो मैं हूँ औ मेरी तन्हाई है
उमर जाने किस मोड़ पे ले आयी है
बिन तेरे जिंदगी गीत अब गाती नहीं
कैसे कह दूँ के याद अब आती नहीं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14नवंबर, 2021



गीत मेरा गाने तो तुम आओगे।

गीत मेरा गाने तो तुम आओगे।  

तुम कहो तो गीत लिख दूँ मैं हृदय की भावना के
फिर कहो क्या गीत मेरा गाने को तुम आओगे।।

लेखनी में प्रीत भरकर मृदु मधुर संगीत भरकर
पंक्ति में उन्माद भर कर मौन में संवाद भर कर
तुम कहो तो प्रीत लिख दूँ मैं हृदय की कामना के
फिर कहो क्या गीत मेरा गाने को तुम आओगे।।

गीत के हर शब्द में है प्रिय चाहतों की कल्पना
मेरे मन के भावों में है प्रिय मधुर इक़ अल्पना
तुम कहो तो रंग भर दूँ कल्पनाओं में यहाँ मैँ
फिर कहो क्या गीत मेरा गाने को तुम आओगे।।

साँस में चंदन लिखूँ मैं या गीत वृंदावन लिखूँ
प्रेम का आँगन लिखूँ मैं या गोपियों का मन लिखूँ
तुम कहो तो मीत लिख दूँ कामनाओं को यहाँ मैं
फिर कहो क्या गीत मेरा गाने को तुम आओगे।।

जो कहो प्रारंभ लिख कर मैं बाँध लूँ मधुपाश में
अंक में भरकर लिखूँ फिर नव रीत मैं मधुमास के
आस का अनुप्रास लिख दूँ भावनाओं में यहाँ मैं
फिर कहो क्या गीत मेरा गाने को तुम आओगे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12नवंबर, 2021

तुम इनको परिभाषित कर दो।

तुम इनको परिभाषित कर दो।  

अपने अधरों की पंखुड़ियों से छू कर मेरे भावों को
अपने मृदु आलिंगन में भरकर देकर अपनी छाहों को
प्राण वायु भर कर गीतों को तुम इनको स्पंदित कर दो
जो भी गीत लिखे हैं मैंने तुम इनको परिभाषित कर दो।।

भोर रश्मि की किरणों से ले है लिखी तरंगें जीवन की
आशा के अनुप्रासों से ले है लिखी उमंगें उपवन की
चंदा सी शीतलता भर दो तुम इनको अनुमोदित कर दो
जो भी गीत लिखे हैं मैंने तुम इनको परिभाषित कर दो।।

कुछ स्वप्न सँवारे कोमल से आशाओं के नील गगन में
कुछ भाव उकेरे हैं हमने मृदु अपने हिय के मधुवन में
मधुवन में मधुमास खिलाकर तुम इनको संभाषित कर दो
जो भी गीत लिखे हैं मैंने तुम इनको परिभाषित कर दो।।

छंद छंद में भाव हृदय के पंक्ति पंक्ति में है अपनापन
पृष्ठ पृष्ठ पे चित्र तुम्हारा हरता मन का ये सूनापन
सूनेपन में गीत सजाकर जीवन को आनंदित कर दो
जो भी गीत लिखे हैं मैंने तुम इनको परिभाषित कर दो।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        11नवंबर, 2021

भावनाओं को शब्द का आकार दिया।

भावनाओं को शब्द का आकार दिया। 

मौन मचल संवेदनायें वर्जनायें छोड़कर
सोचा के कुछ आज लिख दूँ सीमायें तोड़कर
लेखनी से आग्रह अरु शब्दों से अनुरोध कर के
आज जीवन के पलों का हँसकर आभार किया
मैंने भावनाओं को शब्द का आकार दिया।।
 
क्या लिखूँ क्या ना लिखूँ प्रश्न थे मन में हजारों
भाव के संवेदना के गीत में भरकर सितारे
और आँखों में भरी थी वो विरह की वेदनायें
वेदनाओं के सफर को मैंने नव अंदाज दिया
मैंने भावनाओं को शब्द का आकार दिया।।

है विदित मुझको बहुत हैं इस राह में दुश्वारियाँ
मौन अधरों पर रुकी हैं बीती विगत लाचारियाँ
आगत विगत के फेर में आकाश जाने कब गिरा
जो भी गिरा जैसे गिरा मैंने सब स्वीकार किया
मैंने भावनाओं को शब्द का आकार दिया।।

हर दिवस के बाद रातें भोर का प्रारंभ माना
शून्य को हमने यहाँ पर इक मधुर आरंभ माना
बाँधने भुजपाश में पल उम्मीद का आश्रय लिया
और सभी परिवर्तनों को मैंने अंगीकार किया
मैंने भावनाओं को शब्द का आकार दिया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        11नवंबर ,2021






बाल श्रम।

बाल श्रम।   

काँधों पर प्रतिपल बोझ लिए
जीवन को आकार दिया
नन्हें नन्हें सपनो को भी
मैंने कब इनकार किया।
माना कुछ मजबूरी अपनी
फिर भी हँसता रहता हूँ
देख भाल कर जग के रौनक
मन ही मन खुश रहता हूँ।
चाहत है कुछ नया करूँ मैं
आशा के नव स्वप्न बुनूँ
पढूँ, लिखूँ नव राह चुनूँ मैं
जीवन का आधार बुनूँ।
पर मंजिल पाने की खातिर
पग पग चलना पड़ता है
इस दुनिया में जीना है तो
पग पग मरना पड़ता है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        10नवंबर, 2021

आकाश क्यूँ नीचे गिराया।

आकाश क्यूँ नीचे गिराया।  

इक खबर की आस में आकाश क्यूँ नीचे गिराया।।

आस के आकाश पर कुछ मौन चित्र जीवन ने चुने
मोतियों का ले सहारा कुछ हार जीवन ने बुने
ख्वाहिशों के मोतियों को बिखराया बोलो क्या पाया
इक खबर की आस में आकाश क्यूँ नीचे गिराया।।

याद बनकर रह गये वरदान जो थे तुमको मिले
स्वप्न सारे ढह गये अनुभूतियों में जो थे पले
ढह रही अनुभूतियों में स्वप्न फिर से खिल न पाया
इक खबर की आस में आकाश क्यूँ नीचे गिराया।।

वो थी कसौटी प्रेम की अहसास की विश्वास की
थी शब्द के संचार की अरु इक मधुर आभास की
विश्वास जो टूटा यहाँ विश्वास फिर जुड़ न पाया
इक खबर की आस में आकाश क्यूँ नीचे गिराया।।

मृदु शब्दों के हर अर्थ की व्याख्यान थी वो वंदना
थी मगर उलझी न जाने बन मौन क्यूँ संवेदना
इस कदर उलझे यहाँ सब चाह कर सुलझा न पाया
इक खबर की आस में आकाश क्यूँ नीचे गिराया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09नवंबर, 2021

स्याही ने इंकार कर दिया।

स्याही ने इंकार कर दिया।  

पलकों के कोरों पे आँसू
ठहरे कभी, कभी हैं ढलके
सूखे कभी ताप में जलकर
कभी नरम होकर के छलके
जब भी इनको लिखना चाहा
स्याही ने इंकार कर दिया।।

यादों की वीथी पर कितने
धुँधले चित्र अभी तक ठहरे
अंतस के भावों पर जाने
कैसे कैसे हैं ये पहरे
पहरों को जब लिखना चाहा
स्याही ने इंकार कर दिया।।

विरह वेदना के क्षण में भी
आँसू का सम्मान किया है
घोर निराशा के क्षण में भी
मैंने मधु का दान किया है
मधु की पीड़ा लिखना चाहा
स्याही ने इंकार कर दिया।।

सन्नाटे के विरह में घुली
अब खामोशी किससे दर्द कहे
पग पग कितनी पीड़ा झेली
और जाने कितने दर्द सहे
पीड़ा को जब लिखना चाहा
स्याही ने इंकार कर दिया।।

आह, सुलगती आशाओं ने
कुछ कहा कभी कुछ सुना कभी 
पग में कितने भी छाले हों
क्या दिनकर का रथ रुका कभी
छालों को जब लिखना चाहा
स्याही ने इंकार कर दिया।।

सुधियों के चौराहे पर अब
चुपचाप मुसाफिर मौन खड़ा
यादों के बीते साये में
ले चुभते कितने प्रश्न खड़ा
प्रश्नों को जब लिखना चाहा
स्याही ने इंकार कर दिया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08नवंबर, 2021

नाम दोषियों में मैंने पाया।

नाम दोषियों में मैंने पाया।  

है मुझे अफसोस अब तक राह तेरी चल न पाया
बात दिल में जो छिपी थी बात दिल की कह न पाया
यूँ है विदित मुझको हमारी वो सभी नाक़ामियाँ
इसीलिये नाम शायद दोषियों में मैंने पाया।।

भाव थे जो भी हृदय के दिल चाहता था बोल दूँ
राह में जंजीर थी जो जंजीर सारे तोड़ दूँ
और लिख दूँ गीत जो गूँजे हृदय की वादियों में
रीत में नवरीत लिख कर वो रीत सारे जोड़ दूँ।।

अफसोस मन की भावना को व्यक्त मैं कर न पाया
इसीलिये नाम शायद दोषियों में मैंने पाया।।

धड़कनों ने गीत गाकर मौन को आवाज दी है
साँस की सरगम सुरीली जिंदगी को साज दी है
त्याग कर प्रतिबंध सारे था लिखा इक गीत मैंने
और अधरों को लुभाये वो सुरीली राग दी है।।

आह अधरों पर सुरीली रागिनी सजा ना पाया
इसीलिये नाम शायद दोषियों में मैंने पाया।।

है सभी स्वीकार मुझको जो मुझे शायद मिला है
है नहीं अफसोस कोई और ना कोई गिला है
वक्त का ये दोष है या फिर है मिरी नाक़ामियाँ
ये दर्द का अहसास सारा दर्द पाकर ही खिला है।।

कंठ तक आकर रुके पर गीत खुलकर गा न पाया
इसीलिये नाम शायद दोषियों में मैंने पाया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07नवंबर, 2021


हिय हृदय से मिल गया।

हिय हृदय से मिल गया।   

आपका प्रिय साथ पाकर मौन भी अब खिल गया
प्रेम का अहसास पाकर हिय हृदय से मिल गया।।

प्राची के राजमार्ग पर किरणों की रंगोली
सज धज जीवन की ऐसी ज्यूँ कहार की डोली
मिल रहे धरती गगन यूँ प्राण का संचार ले
गूँजती हिय में मधुर शब्दों की मीठी बोली।।

शब्द का मृदु साथ पाकर गीत भी अब खिल गया
प्रेम का अहसास पाकर हिय हृदय से मिल गया।।

वीथि पर ये सितारे कह रहे कितनी कहानी
कर रहे इस रात को भोर से ज्यादा सुहानी
घिर रही ज्योत्सनाओं की यहाँ मृदुल फुलवारी
गा रही नव गीत ये जिंदगी होकर दीवानी।।

नव गीत का संस्कार पा साज भी अब खिल गया
प्रेम का अहसास पाकर हिय हृदय से मिल गया।।

चलो कुछ ऐसा रचें जो गीत को आकार दे
शब्द को आश्रय मिले भाव को संस्कार दे
भोर सी दस्तक मिले अरु पंथ सारे पुण्य हों
कामनाओं को हृदय में पुण्यता विस्तार दे।।

पुण्य का आधार पाकर भाव भी अब खिल गया
प्रेम का अहसास पाकर हिय हृदय से मिल गया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06नवंबर, 2021


विस्तार मैं देने लगा हूँ।

विस्तार मैं देने लगा हूँ।  

शब्द मिरी भावना के तेरे अधरों से झरे यूँ
कामनाओं को यहाँ विस्तार मैं देने लगा हूँ।।

कुछ सुनहरे शब्द लाये गीत की माला बनाकर
इस रात की चाँदनी से ओस की बूँदें चुराकर
है यही करता हृदय अब चाहतों में डूब जाऊँ
और फिर तुमको रिझाऊँ गीत कोई गुनगुनाकर।।

गीत कुछ ऐसा सजा दूँ मीत बन कर वो सजे यूँ
भावनाओं को यहाँ आकार मैं देने लगा हूँ।।

रूप कुछ ऐसा सजे जो नैन में बस मुस्कुराए
प्रीत की पेंगें हृदय में कामनाओं को जगायें
बात जो निकले हृदय से बात वो पहुँचे हृदय तक
और पलकों में सजे जो स्वप्न सारे झिलमिलायें।।

स्वप्न कुछ ऐसा बुनूँ जो दे मौन को संचार यूँ
स्वप्न को आधार को व्यवहार मैं देने लगा हूँ।।

पुण्य पावन प्रीत गायें आरती मन में बसाकर
शब्द को श्रृंगार देकर भावनाओं में सजाकर
आस का आकाश लेकर पंथ नूतन कुछ सजाऊँ
और फिर तुमसे मिलूँ मैँ प्रीत की कलियाँ खिलाकर।।

आस को स्वीकार कर ले दे प्रीत को अधिकार यूँ
आस के संसार को विस्तार मैं देने लगा हूँ।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       05नवम्बर, 2021

कितने आँसू बह ना पाये।

कितने आँसू बह ना पाये।  

जाने कितने मेघ गगन के
आँसू बने पलक पर ठहरे
जाने कितने शूल ह्रदय में
चुभे यहाँ पर आकर गहरे
घाव मिले पर कह ना पाये
कितने आँसू बह ना पाये।।

पग पग संशय के बादल थे
हम भी पर कितने पागल थे
चले कदम दर सपने लेकर
भावों में कुछ अपने लेकर
चाहा लेकिन कह ना पाये
कितने आँसू बह ना पाये।।

घिरा रहा प्रश्नों में जीवन
मरुथल में महकाया उपवन
सहमे उत्तर विश्राम नहीं था
घट घट रीता हृद का मधुवन
रीते हृदय सँभल ना पाये
कितने आँसू बह ना पाये।।

पलकों ने कुछ कहा नहीं पर
आहों में प्रतिकार किया है
मन के टूटे सब भावों को
आँसू का आकार दिया है
सुनी मगर कुछ कह ना पाये
कितने आँसू बह ना पाये।।

यादों के ताखों में कितने
प्रश्न उलझते चले गए हैं
मुड़े तुड़े पन्नों के भीतर
भाव सिमटते चले गए हैं
इतने सिमटे सह ना पाये
कितने आँसू बह ना पाये।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       30अक्टूबर, 2021

चलो आज नवदीप जलायें।

चलो आज नवदीप जलायें।  

जीवन की उलझन से खुलकर
चलो आज हम खुद से मिलकर
नव प्रभात की अगवानी में
आशा का संदेश जगायें
चलो आज नव दीप जलायें।।

माना तिमिर घना हो कितना
पग पग रोध बड़ा हो कितना
अवरोधों के पार चलें हम
उम्मीदों की किरण जगायें
चलो आज नव दीप जलायें।।

नवल आस हो नव प्रभास हो
जीवन का पल पल उजास हो
पुष्पित हों सब भाव हृदय के
ऐसा नव संकल्प जगायें
चलो आज नव दीप जलायें।।

दुविधाओं के समर में घिरा
रुका यहाँ तो नाकामी है
जीवन बहती इक धारा है
बढ़ा वही, जो अनुगामी है

आगत विगत द्वार पर मिलकर
आशाओं के संधिपत्र पर
हर्षित पुलकित भाव हृदय भर
मिलें सभी को मीत बनायें
चलो आज नव दीप जलायें।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30अक्टूबर, 2021

हे भारत माता- तुझको मेरा है अभिनंदन।

हे भारत माता- तुझको मेरा है अभिनंदन

नमन करूँ मैं कण कण तेरा
और करूँ मैं तेरा वंदन
हे जननी है भारत माता
तुझको मेरा है अभिनंदन।।

भारत बस भूभाग नहीं है
ये दुनिया का मुखरित स्वर है
अभिव्यक्ति के भाव प्रस्फुटित
ऐसा जन गण मन का स्वर है।।

अखंड एकता बल है जिसका
अरु प्रेम समर्पण मर्यादा है
जहाँ भाव सब सम्मानित हैं
आशाओं का बल ज्यादा है।।

यहाँ सभ्यता घट घट बसती
हिय संस्कृति भाव समाहित है
निर्मल पावन चंचल धारा
गंगा की धार प्रवाहित है।।

राम कृष्ण अरु गौतम नानक
मनुज प्रेम का पोषण करते
वेद पुराण उपनिषद गीता
मन का घना अँधेरा हरते।।

मंगल ध्वनि है धर्म परायण
सब देवों में है नारायण
प्रचुर भाव भाषा विस्तारित
विस्तृत निखिल विश्व वातायन।।

शांति घोष का वाहक भारत
सत्य प्रखर आवाहन भारत
न्याय धर्म का पोषक भारत
ज्ञान दीप का द्योतक भारत।।

पग सागर है शीश हिमालय
कण कण जिसका है देवालय
जिसने जग को प्रीत सिखाया
है तन पावन मन पदमालय।।

वाणी वाणी वेद मुखर है
जन जन का आह्लादित स्वर है
नभ आच्छादित ज्ञान दीप से
धर्म दीप प्रज्ज्वलित शिखर है।।

प्रकृति जिसका रूप सँवारे
पुलकित सुष्मित सुरभित चंदन
हे जननी हे भारत माता
तुझको मेरा है अभिनंदन।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29अक्टूबर, 2021



सत्य संवाद।



सत्य संवाद।   

भारत के प्रमुख काव्य ग्रंथ महाभारत के प्रमुख अंश में से एक अंश जब श्री कृष्ण अर्जुन को कुरुक्षेत्र में गीता का उपदेश देते हैं, को केंद्र बिंदु मान कर एक नवीन प्रयास कर रहा हूँ, इस पर आप सभी का आशीष व मार्गदर्शन का आकांक्षी हूँ--

सत्य संवाद।

कर के नमन माँ शारदे 
कुछ भाव अपने रख रहा
शब्दों का ले आसरा 
 मैं पंक्तियां कुछ गढ़ रहा।।1।।

है प्रचुर इतिहास अपना
प्रभु नीति से व्यवहार से
और रचते हैं धरा पर
प्रेम का संसार ये।।2।।

ज्ञान का भंडार मिलता ,
धर्म का आधार है
कण कण में माँ भारती से
पाया अतुल उपहार है।।3।।

इतिहास के उस पृष्ठ से
कुछ भाव सुरभित कर रहा
भावनाओं के सहारे
पुष्प अर्पित कर रहा।।4।।

है जिंदगी का सार ये
है मोक्ष का व्यवहार ये
भक्ति का अधिकार ले मैं
 भाव अपने रख रहा।।5।।

मध्य द्वापर काल के जब
सत्य हो धूमिल पड़ा था
कामनाओं से विवश हो
द्वार पर वंचित खड़ा था।।6।।

द्यूत का परिणाम था या
फिर समय का  फेर वो
कब किया अपराध कोई 
न्याय में फिर देर क्यों।।7।।

कब कहा था सत्य बोलो
 राज्य उसको चाहिए
जिंदगी सामान्य हो
अधिकार इतना चाहिए।।8।।

झूठ का आतंक था या
थी परीक्षा सत्य की वो
स्वार्थ में मद लोभ के वश
जो चल रहा कुकृत्य वो।।9।।

मौन कैसे सह रहे थे
शब्द के कटु वाण सारे
थी शरण किसकी मिली जो
कूदता जिसके सहारे।।10।।

शब्द धूमिल हो चुके थे
संबंध बस अब नाम का
धूर्तता के आगे वहाँ
बस युद्ध ही परिणाम था।।11।।

क्रमशः--

भारत के प्रमुख काव्य ग्रंथ महाभारत के प्रमुख अंश में से एक अंश जब श्री कृष्ण अर्जुन को कुरुक्षेत्र में गीता का उपदेश देते हैं, को केंद्र बिंदु बनाकर एक नवीन प्रयास कर रहा हूँ, इस पर आप सभी का आशीष व मार्गदर्शन का आकांक्षी हूँ--

 *गतांक से आगे--* 

रथ ले चलो माधव वहाँ
अब मध्य में रण क्षेत्र के
इक बार मैं देखूँ यहाँ
जो हैं खड़े कुरुक्षेत्र में।।12।।

देख कर अपने सगों को
 आज इस रण भूमि में
व्यग्र इतना हो गया 
छूटा धनुष रण भूमि में।।13।।

सोच कर परिणाम रण का
दिल दहलने जो लगा
स्वयं से कैसे लड़ूँ ?
मन में बिखरने वो लगा।।14।।

हैं खड़े सम्मुख पितामह
गुरु द्रोण भी हैं सामने
हैं खड़े प्रियजन सभी वो
जो कभी संग संग पढ़े।।15।।

क्या करूँ कैसे लड़ूँ 
अब सामना कैसे करूँ
शत्रु नहीं हैं ये हमारे
गांडीव क्या धारण करूँ।।16।।

हाथ,  जिसने है दुलारा
औ खिलाया गोद में
कैसे  कहो मैं अब लड़ूँगा
पड़ गया इस सोच में।।17।।

क्या फायदा ऐसी विजय का
जो  मिले प्रतिकार से
क्या करूँ उस राज्य का
जो ना मिले व्यवहार से।।18।।

है कुटिल व्यवहार माना
भाई है पर वो मेरा 
घात कैसे मैं करूँ 
इस सोच में मन है घिरा।।19।।

ना मिला उत्तर कोई जब,
जब पार्थ कुंठित हो चला 
ब्रह्म के अवतार का फिर
मृदु आसरा उसको मिला।।20।।

 क्रमशः-- 

 
कर जोड़ कर पार्थ बोले
पाप ये कैसा हुआ है
क्या करूँ माधव कहो किस
अपराध का फल मिला है।।21।।

कैसे अपने शस्त्रों से 
शीश इनका भेद पाऊँ
कुछ कहो मुझको बताओ
रक्त मैं कैसे बहाऊँ।।22।।

आज इस रणभूमि में यदि
रक्त इनका जो बहेगा
सोचता हूँ जग हमें क्या
कुलनाशक नहीं कहेगा।।23।।

पार्थ को विचलित देखकर
यूँ मोह उसका देखकर
श्री कृष्ण ने विचार किया
और रूप विकराल किया।।24।।

पार्थ से श्री कृष्ण बोले
देख मैं संसार में हूँ
मैं सभी दिक्काल में हूँ
मोक्ष के व्यवहार में हूँ।।25।।

तुम में हूँ मैं उसमें हूँ
जग के मैं कण कण में हूँ
मैं अवनी अंबर में हूँ
प्रलय में हूँ पवन में हूँ।।26।।

जीव में निर्जीव में हूँ
और इस गांडीव में हूँ
आकाश में पाताल में
मैं सृष्टि के हर काल में हूँ।।27।।

जगत का पालनहार हूँ
मैं यहाँ हर बाण में हूँ
निर्माण हूँ संहार हूँ
इस सृष्टि का आकार हूँ।।28।।

प्रेम हूँ आभार हूँ मैं
मोक्ष का आधार हूँ मैं
भावनाओं के सफर का
सार हूँ विस्तार हूँ मैं।।29।।

वाद हूँ विवाद में हूँ
हर किसी संवाद में हूँ
शब्द की इस जटिलता के
हर सरल अनुवाद में हूँ।।30।।

क्रोध भी मैं लोभ भी मैं
प्रेम का अनुरोध भी मैं
जो कहीं अन्याय है तो
न्याय का अनुरोध भी मैं।।31।।

मान में अपमान में हूँ
जो मिला सम्मान में हूँ
है मन में जो तुम्हारे
उस सभी अनुमान में हूँ।।32।।

इस जगत का ब्रह्म हूँ मैं
आदि हूँ मैं अंत हूँ मैं
है क्या शुरू अरु क्या खतम
प्रसार हूँ अनंत हूँ मैं।।33।।

है पार्थ तुम मुझको सुनो
जिस राह बोलूँ तुम चलो
तुम सभी में प्रिय मुझे हो
जो सत्य है उसको चुनो।।34।।

सत्य का संज्ञान हूँ मैं
अरु क्षमा का दान हूँ मैं
भय अभय का भाव भी मैं
मुक्ति वाला ज्ञान हूँ मैं।।35।।

वेदों में सामवेद हूँ
भावों की अभिव्यक्ति हूँ
चेतना का मूल भी मैं
अरु प्राणियों की शक्ति हूँ।।36।।

मैं महर्षियों में भृगु हूँ 
मैं अक्षर ही ओंकार हूँ
सब यज्ञ का जपयज्ञ भी मैं
अचल हिमालय पहाड़ हूँ।।37।।

शस्त्रों में वज्र शस्त्र हूँ
गायों में कामधेनु हूँ
शास्त्रोक्त से उत्पत्ति हो
मैं ही वो कामदेव हूँ।।38।।

हार में हूँ जीत में हूँ
मैं जगत की रीत में हूँ
हृदय की भावनाओं के
मैं मचलते गीत में हूँ।।39।।

हैं प्रिय माना तुम्हारे
इनका अधर्म आधार है
जो है किया इनको मलिन 
इनका ही अहंकार है।।40।।

सत्य इनके द्वार सोचो
जब हाथ जोड़े खड़ा था
इनके कुटिल व्यवहार से
धर्म संकट में पड़ा था।।41।।

यही सत्य यही धर्म है
नारी की रक्षा कर्म है
द्यूत क्रीड़ा में घटा जो
मात्र दंड ही अब धर्म है।।42।।

सब मोह माया त्यागकर
तू कर्म यहाँ निष्काम कर
असत्य जब सम्मुख खड़ा
तू न सोच बस प्रहार कर।।43।।

अब आर कर या पार कर
तू आस का उद्धार कर
कर्तव्य पथ पर हो खड़े
मन भाव पर अधिकार कर।।44।।

है खड़ा रण में यहाँ तू
कुछ सोच मत हुंकार भर
धर्म संस्थापना के लिए
तू अधर्म पर प्रहार कर।।45।।

ये हैं अधर्मी मान ले
अब सत्य को पहचान ले
ग्लानि मन से त्याग कर के
तू लक्ष्य का संधान ले।।46।।

कटु सत्य को स्वीकार लो
अपराध मन से त्याग दो
है नियति का खेल सारा
अब ऋण समस्त उतार दो।।47।।

आज जो विचलित हुआ तो
धर्म का अपमान होगा
झूठ को प्रश्रय मिलेगा
सत्य केवल नाम होगा।।48।।

हे पार्थ इस व्यवहार को
क्या नहीं कायर कहेंगे
द्वार पर जो नव सदी है
सोचो क्या गल्प गढ़ेंगे।।49।।

कहते कहते माधव फिर
मौन सोच में डूब गए
विचलित हुआ मन पार्थ का
और पसीने छूट गए।।50।।

हाथ जोड़ कहा पार्थ ने
है माधव मन तृप्त हुआ
जो थी ग्लानि भरी मन में
उससे मन ये मुक्त हुआ।।51।।

लोभ मोह अरु माया से
मन जातक बन जाता है
बुद्धि विकल हो जाती है
मन चातक हो जाता है।।52।।

मिला ज्ञान अब मुझे यहाँ
मन का संशय दूर हुआ
अँधियारा जो घना यहाँ
मन से मेरे दूर हुआ।।53।।

शस्त्र उठाऊँगा मैं अब
ये विश्वास दिलाता हूँ
न्यायोचित जो मार्ग यहाँ
वही मार्ग अपनाता हूँ।।54।।

सौगंध मुझे माटी की
धर्म पुनः स्थापित होगा
झूठ यहाँ जितना चाहे
सच नहीं पराजित होगा।।55।।

फल की चिंता नहीं मुझे
निष्काम कर्म ही मेरा है
छोड़ दिया परिणाम सभी
सत्य धर्म अब मेरा है।।56।।

धर्म विमुख जो हुए यहाँ
उन्हें मार्ग दिखलाना है
सत्य अहिंसा और धर्म का
उनको पाठ पढ़ाना है।।57।।

धर गांडीव धनंजय ने
कहा नहीं विलंब करो
रथ लेकर चलो वहाँ पर
युद्ध यहाँ अविलंब करो।।58।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       26अक्टूबर, 2021




लौट आओ तुम प्रिये।

लौट आओ तुम प्रिये।  

शब्द के अनुरोध पर नवगीत अब रचने लगे हैं
पंक्ति का आकार पाकर गीत मृदु सजने लगे हैं
गीत को आधार मिलता और प्रेम को आकार फिर
के लौट आओ तुम प्रिये ले प्रेम का संसार फिर।।

तुम गए जबसे यहाँ से जिंदगी ही खो गयी है
मौन हैं अब भाव सारे बंदगी भी खो गयी है
आस को आकार मिलता अरु शब्द को व्यवहार फिर
के लौट आओ तुम प्रिये ले प्रेम का संसार फिर।।

बिन चाँदनी तुम ही कहो इस रात का क्या मोल है
जब पलकों से ही गिर गए फिर अश्रु का क्या मोल है
भाव को संचार मिलता अरु आँसुओं को प्यार फिर
के लौट आओ तुम प्रिये ले प्रेम का संसार फिर।।

मौन जब लहरें हुईं तो क्या करे बोलो किनारा
टूटते तटबंध हों जब कौन देगा फिर सहारा
तुम बनो अधिकार मेरा अरु ले चलो उस पार फिर
के लौट आओ तुम प्रिये ले प्रेम का संसार फिर।।

सुन पलक में नीर भरकर क्या कह रही हैं सिसकियाँ
हैं घिरे बादल हृदय में अरु गिर रही हैं बिजलियाँ
क्या कहो अपराध मेरा बस बोल दो इक बार फिर
के लौट आओ तुम प्रिये ले प्रेम का संसार फिर।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23अक्टूबर, 2021

कैसे बदलेंगी दशायें।

कैसे बदलेंगी दशायें।   

मन में कितने घाव गहरे और कितनी हैं व्यथायें
दिल ने जो भी दर्द सहे हैं तुम कहो किससे बतायें।।

थे तुम्हारे हम कभी और तुम हमारे थे यहाँ
बात बस इतनी है यहाँ तुम कहो कैसे बतायें।।

है ये कर्म कैसा बोलो और है कैसा धरम ये
दर्द है आकाश तक जब बदली नहीं क्यूँ प्रथायें।।

सब दिशायें कह रही हैं दर्द की कितनी कहानी
जाने क्यूँ मचली नहीं हैं अब तक संवेदनाएं।।

क्या हुआ हासिल यहाँ पर क्या हुआ बदलाव बोलो
मौन तोड़ो आवाज दो के क्यूँ नहीं बदली प्रथायें।।

ऐसे तो मुश्किल "अजय" है शब्दों का फिर अर्थ पाना
जब तलक आगाज ना हो कैसे बदलेंगी दशायें।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22अक्टूबर, 2021


जीवन में नूतन प्रयोग।

जीवन में नूतन प्रयोग।  

साथी सत्य की राहों में हैं कदम कदम कितने संयोग
लगता जैसे जीवन प्रतिपल करता रहता नवल प्रयोग।।

जीवन मृत्यु के मध्य ये कैसा 
पग पग पर संवाद छिड़ा है
सत असत्य के खेमों में भी 
हार जीत का वाद छिड़ा है
वाद विवाद भरी जगती में 
पग पग पर अगणित अभियोग
लगता जैसे जीवन प्रतिपल करता रहता नवल प्रयोग।।

कभी सजाकर थाल तिलक का 
करता जीवन का अभिनंदन
कभी विदाई के क्षण में ये 
लगता करता मौन नियंत्रण
मिलन विदाई के जीवन में 
पग पग पर बनते संयोग
लगता जैसे जीवन प्रतिपल करता रहता नवल प्रयोग।।

वांछित फल की चाहत में ये 
जीवन प्रतिपल विकल रहा है
लिए स्वप्न पलकों में नूतन 
कदम कदम ये मचल रहा है
आशाओं अभिलाषाओं में 
नित खोजा करते सहयोग
लगता जैसे जीवन प्रतिपल करता रहता नवल प्रयोग।।

मिल जाएगा पुण्य यहाँ पर 
यदि मन से मन का गर वंदन
भावों को आकाश मिले अरु 
इच्छाओं को अभिनंदन
सबके मन में आस पले अरु 
नित्य बने मधुरिम संयोग
साथी लगता जीवन प्रतिपल करता रहता नवल प्रयोग।।

 ©️✍️अजय कुमार पाण्डेय 
      हैदराबाद 
     20अक्टूबर, 2021

केवल दिल का हाल न पूछो।

केवल दिल का हाल न पूछो

कैसे कैसे मंजर देखे इन आँखों ने साँझ सवेरे
हँसते रोते जीवन देखे इन गलियों में बहुतेरे
क्या खोया क्या मिला यहाँ पर पास कभी तुम आकर देखो
दूर खड़े रहकर के केवल दिल से दिल का हाल न पूछो।।

कैसे बीते दिवस हमारे कैसे बीती रातें सारी
पग पग कितने कष्ट सहे हैं संघर्ष अभी तक है जारी
संघर्ष भरे इस जीवन के छालों को तुम आकर देखो
दूर खड़े रहकर के केवल दिल से दिल का हाल न पूछो।।

मन के सूने पनघट पर अब नहीं खनकती कोई पायल
नर्तन करते भाव अकेले बरसे ना सुधियों के बादल
मेरे मन को पुनः समझने सुधियों में ही आकर देखो
दूर खड़े रहकर के केवल दिल से दिल का हाल न पूछो।।

हर रोज सिमटते देखा है टुकड़ा टुकड़ा धूप यहाँ पर
हर रोज बरसते देखा है टुकड़ों में बादल को आकर
टुकड़ों वाली बारिश इस में कभी मचल कर तुम भी देखो
दूर खड़े रहकर के केवल दिल से दिल का हाल न पूछो।।

कभी यहाँ पर तुम भी आओ बैठो कुछ पल साथ हमारे
सुनो हमारे मन की पीड़ा समझो क्या हैं भाव हमारे
मन के सूने गलियारे में चार कदम तुम चलकर देखो
दूर खड़े रहकर के केवल दिल से दिल का हाल न पूछो।।


©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       19अक्टूबर, 2021

गीत लिखे जो कदमताल से।

गीत लिखे जो कदमताल से।  

चलो ढूँढते हैं वीथी पर गीत लिखे जो कदमताल से।।

लिए तूलिका हाथों में कोशिश करता हूँ बार बार
पंखुड़ी पंखुड़ी रंग भरा पर आया ना फिर भी उभार
लगता ढीली ना हो जाये पकड़ तूलिका पर हाथों की
कहीं धुंध में खो ना जाये धुंधला पड़ जाए आकार
रह ना जाये विम्ब अधूरे रचे कभी जो विषयकाल में
चलो ढूँढते हैं वीथी पर गीत लिखे जो कदमताल से।।

नित किरणों ने जीवन देकर साँसों की इक डोर सजायी
रूप निखारा पल पल छिन छिन आशा अरु संचार जगायी
रुका नहीं राहों में पल पल साथ चला है साथ उठा है
मन के सूनेपन में जिसने पूजा वाली थाल सजायी
कहीं अधूरी रह ना जाये मन की वीणा मधुर ताल से
चलो ढूँढते हैं वीथी पर गीत लिखे जो कदमताल से।।

सुधियों की डोरी से जकड़े रहता मन का एकाकीपन
स्मृतियाँ मन के द्वार खड़ी हो मौन बढ़ाती हैं तड़पन
मृदुल भाव ले पाँव पखारे पलक सजाए स्वप्न सुनहरे
नित नूतन मृदु भाव सजाता रहता मन का सूना आँगन
मन के इस सूने आँगन को चलो सजायें मधुर ताल से
चलो ढूँढते हैं वीथी पर गीत लिखे जो कदमताल से।।

सूरज का रथ चला क्षितिज को गीत चलो नूतन रच डालें
टूटे मन के तारों को फिर जोड़ें हम नव साज सजा लें
खाली अंजुलि लेकर बोलो कैसे होगा संध्या वंदन
मन के सूने अँधियारे में चलो चलें नव दीप जला लें
अँधियारा ये मिट जायेगा ज्ञान दीप के मृदुल ज्वाल से
चलो ढूँढते हैं वीथी पर गीत लिखे जो कदमताल से।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        19अक्टूबर, 2021

सुहानी वो मुलाकातें।

सुहानी वो मुलाकातें।  

मिले उस रोज जब हम तुम मिली जीवन को सौगातें
है मुझको याद अब भी वो सुहानी चाँदनी रातें।।

हवाओं के मृदुल झोंके तुम्हारे केश लहराए
वो कुंतल के खनक से यूँ लगा नव गीत थे गाये
तुम्हारे माथ की सिलवट पे लिखी मृदु कहानी थी
हृदय के भाव वो सारे इन अधरों पर उतर आये।।

बड़ी मदहोशियों में थी तुमसे वो मुलाकातें
है मुझको याद अब भी वो सुहानी चाँदनी रातें।।

सिमट आये था आँचल में गिरे जो पुष्प तारों से
खिला फिर मधुमास का जीवन उन रिमझिम फुहारों से
हुए सभी दूर एकाकी खिले नव पुष्प उपवन में
हुआ अनमोल ये जीवन तुम्हारे मृदु इशारों से।।

स्मृतियों में बसी अब भी तुम्हारी दी वो सौगातें
है मुझको याद अब भी वो सुहानी चाँदनी रातें।।

नजारों ने बहारों संग लिखी नूतन कहानी फिर
अदाओं ने फिजाओं में रची नूतन कहानी फिर
वो घूँघट में सिमट कर जब भिंगोयी प्रीत की बारिश
सजायी गीतों से हमने हृदय की रात रानी फिर।।

बसी हैं आज तक अब भी पलकों में वो मुलाकातें
है मुझको याद अब भी वो सुहानी चाँदनी रातें।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18अक्टूबर, 2021

द्वंद है मेरे छिड़ा जो।

द्वंद है मेरे छिड़ा जो।   

तुम कहो तो आज कह दूँ भावनाओं में भरा जो
और लिख दूँ आतमा में द्वंद है मेरे छिड़ा जो।।

तुम कहो मैं भावनाओं को यहाँ कब तक समेटूँ
और जो दिल में छुपा है दर्द वो कब तक सहेजूँ
काल के निश्शेष क्षण में क्या रहा बाकी यहाँ पर
तुम कहो उस काल क्षण को अंक में कब तक सहेजूँ।।

हैं प्रहर छोटे यहाँ पर अरु शब्द हैं कितने बड़े
और पग पग देखता हूँ ये प्रश्न कितने हैं खड़े
तुम कहो वो प्रश्न कह दूँ मौन में मेरे भरा जो
और लिख दूँ आतमा में द्वंद है मेरे छिड़ा जो।।

प्यार के अहसास को उस प्रतिपल हृदय में देखता 
और भरकर पीर कितने बस मौन खुद को खोजता
नैन की उठती तरंगें भावनाओं को पुकारें
शब्द की बेचैनियों को है पंक्तियों में खोजता।।

पंक्तियों में भाव जितने वो गीत में सारे जड़े
फिर भाव के आकाश में वो प्रश्न बनकर क्यूँ खड़े
तुम कहो तो आज कह दूँ प्रश्न मन में है भरा जो
और लिख दूँ आतमा में द्वंद है मेरे छिड़ा जो।।

शेष न रह जाये सारे भाव इस व्याकुल हृदय में
और कुछ भी कह न पायें बीतते इस पल समय में
सोचता इस काल में अब रंग ये कैसा भरा है
डूब ना जाये कहीं वो भाव प्रश्नों के प्रलय में।।

काल फिर छल कर न जाये सब भाव रह जायें पड़े
मौन अधरों पर मचलते कुछ शब्द पीड़ा से जड़े
दे रहा हूँ आज मैं सब अंक से तेरे गिरा जो
और लिख दूँ आतमा में द्वंद है मेरे छिड़ा जो।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17अक्टूबर, 2021


सुधियाँ जिनके द्वार न आईं।

सुधियाँ जिनके द्वार न आईं।  

शब्दों में आकाश उतारा, अंजुलि भर कर पुष्प चढ़ाया
अर्ध्य चढ़ाया मंत्र उचारा, पग पग है आभार जताया
कर जोड़े हर बार खड़ा वो, बोलो कब उसकी सुध आई
ऐसे भी कुछ लोग यहाँ हैं, सुधियाँ जिनके द्वार न आई।।

पलकों में ले स्वप्न सुनहरे, बस आश्वासन में जिया किया
घनी रात हो या उजियारा, बस अनुशासन में जिया किया
मिला दिलासा पग पग उसको, वादों का आशीष मिला है
निज पलकों में सपने लेकर, बस सबके मन की सुना किया। 

अपने भावों को पुचकारा, सपनों में उम्मीद जताई
ऐसे भी कुछ लोग यहाँ हैं, सुधियाँ जिनके द्वार न आई।।


कितने जीवन बीत गए हैं, राह जोहते उजियारों की
रात रात भर जाग जाग कर, बातें करती मृदु तारों की
आशाओं अरु अभिलाषा को, पर मिला यहाँ अवकाश कहाँ
वीथी पर लिख डाले कितने, बीती बातें व्यवहारों की।

वीथी पर कुछ प्रश्न सिमटते, नजरें जिन पर जा ना पाईं
ऐसे भी कुछ लोग यहाँ हैं, सुधियाँ जिनके द्वार न आई।।


बोलो क्या अपराध किया है, दिनकर जो नाराज हुआ है
सूरज, चंदा, तारों ने क्यूँ, उनसे क्या अवकाश लिया है
चलो खिलायें नव पुष्प वहाँ, नव वितान का सूरज लायें
कुटिया के कोनों में झाँकें, खुशियों के नव दीप जलायें।

नव गीत लिखें उन विषयों पर, जिनकी अब तक याद न आई
अपनायें उस जीवन को हम, सुधियाँ जिनके द्वार न आई।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15अक्टूबर, 2021



प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

 प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें एक दूजे को हम इतना अधिकार दें, के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें। एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं, ...