धूल बन कर रह गए।
जाने किस व्यवहार की हम भूल बनकर रह गये
रास्तों में कुछ यूँ गिरे हम धूल बन कर रह गये।।ताप की उम्मीद में दीपक जला बैठे थे हम
सूर्य के उस तेज को दीपक दिखा बैठे थे हम
आज उसकी लौ से ही झुलसी हमारी उँगलियाँ
सूर्य को होते हुए भी छा गयी हैं बदलियाँ।।
बदलियों के झुण्ड में हम राह भूलकर रह गए
रास्तों में कुछ यूँ गिरे हम धूल बन कर रह गये।।
जिस राह में सोचा बिछाऊँ पुष्प की पंखुड़ियाँ
उस राह में क्यूँ बिछ गये आज जंगल कटीले
जिस पुष्प में सोचा मिलेंगी सतरंगी तितलियाँ
उस पुष्प से क्यूँ कर मिले दंश विधना के नुकीले।।
उस दंश के एहसास में हम झूल कर रह गए
रास्तों में कुछ यूँ गिरे हम धूल बन कर रह गये।।
व्याकरण सब चुक गया नहीं कुछ कोष संचित रहा
जाने किन किन पंक्तियों में भाव भी वंचित रहा
सींचने जिस वृक्ष को थे कितने जतन हमने किये
हर जतन हर यत्न मेरा हर बार ही किंचित रहा।।
हर यत्न में संभावनाएँ बिखेर कर हम रह गए
रास्तों में कुछ यूँ गिरे हम धूल बन कर रह गये।।
©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
17नवंबर, 2021
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