काश मिल जाता मुझे मैं ढूँढता था जो किनारे।।
काश मिल जाता मुझे मैं ढूँढता था जो किनारे।।
भावनाओं के समर में बस डूबता गिरता रहा
ले के जाने ख्वाब कितने मन ही मन कुढ़ता रहा
खींचता खुद को कहाँ से स्वयँ जब मंझधार चाहा
और डूबा जब वहाँ मैं सारा जग हंसता रहा।।
मौन मेरी वेदना पथ जोहती कैसे सहारे
काश मिल जाता मुझे मैं ढूँढता था जो किनारे।।
बादलों को ओढ़कर सोचा सहारा मिल गया
उफान थी लहरों में पर सोचा किनारा मिल गया
थी वो शायद मरीचिका जिस पर भरोसा था किया
मेरे उस एहसास को अपराध का फल मिल गया।।
अपराध था मेरा वहाँ फिर चाहता कैसे सहारे
काश मिल जाता मुझे मैं ढूँढता था जो किनारे।।
काल के व्यवहार में सोचा यहाँ कुछ बदलाव कर दूँ
तोड़ कर अपवाद सारे मैं नया इतिहास रच दूँ
भूल बैठा मैं यहाँ पर वक्त में ठहराव कब है
स्वार्थ की आँधियों में संभव यहाँ बदलाव कब है।।
था असंभव जो यहाँ पर माँग बैठा वो सहारे
काश मिल जाता मुझे मैं ढूँढता था जो किनारे।।
है यही अफसोस मुझको सत्य को बतला न पाया
झूठ के आडंबरों को मैं यहाँ झुठला न पाया
भूल थी अपनी हि कोई झूठ कोई कह गया
देखते ही देखते मेरा सत्य सारा बह गया।।
यज्ञ की आहुति कब पूरी हुई बिना मंत्र सहारे
काश मिल जाता मुझे मैं ढूँढता था जो किनारे।।
©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
20नवंबर, 2021
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