सत्य संवाद।
भारत के प्रमुख काव्य ग्रंथ महाभारत के प्रमुख अंश में से एक अंश जब श्री कृष्ण अर्जुन को कुरुक्षेत्र में गीता का उपदेश देते हैं, को केंद्र बिंदु मान कर एक नवीन प्रयास कर रहा हूँ, इस पर आप सभी का आशीष व मार्गदर्शन का आकांक्षी हूँ--
सत्य संवाद।
कर के नमन माँ शारदे
कुछ भाव अपने रख रहा
शब्दों का ले आसरा
मैं पंक्तियां कुछ गढ़ रहा।।1।।
है प्रचुर इतिहास अपना
प्रभु नीति से व्यवहार से
और रचते हैं धरा पर
प्रेम का संसार ये।।2।।
ज्ञान का भंडार मिलता ,
धर्म का आधार है
कण कण में माँ भारती से
पाया अतुल उपहार है।।3।।
इतिहास के उस पृष्ठ से
कुछ भाव सुरभित कर रहा
भावनाओं के सहारे
पुष्प अर्पित कर रहा।।4।।
है जिंदगी का सार ये
है मोक्ष का व्यवहार ये
भक्ति का अधिकार ले मैं
भाव अपने रख रहा।।5।।
मध्य द्वापर काल के जब
सत्य हो धूमिल पड़ा था
कामनाओं से विवश हो
द्वार पर वंचित खड़ा था।।6।।
द्यूत का परिणाम था या
फिर समय का फेर वो
कब किया अपराध कोई
न्याय में फिर देर क्यों।।7।।
कब कहा था सत्य बोलो
राज्य उसको चाहिए
जिंदगी सामान्य हो
अधिकार इतना चाहिए।।8।।
झूठ का आतंक था या
थी परीक्षा सत्य की वो
स्वार्थ में मद लोभ के वश
जो चल रहा कुकृत्य वो।।9।।
मौन कैसे सह रहे थे
शब्द के कटु वाण सारे
थी शरण किसकी मिली जो
कूदता जिसके सहारे।।10।।
शब्द धूमिल हो चुके थे
संबंध बस अब नाम का
धूर्तता के आगे वहाँ
बस युद्ध ही परिणाम था।।11।।
क्रमशः--
भारत के प्रमुख काव्य ग्रंथ महाभारत के प्रमुख अंश में से एक अंश जब श्री कृष्ण अर्जुन को कुरुक्षेत्र में गीता का उपदेश देते हैं, को केंद्र बिंदु बनाकर एक नवीन प्रयास कर रहा हूँ, इस पर आप सभी का आशीष व मार्गदर्शन का आकांक्षी हूँ--
*गतांक से आगे--*
रथ ले चलो माधव वहाँ
अब मध्य में रण क्षेत्र के
इक बार मैं देखूँ यहाँ
जो हैं खड़े कुरुक्षेत्र में।।12।।
देख कर अपने सगों को
आज इस रण भूमि में
व्यग्र इतना हो गया
छूटा धनुष रण भूमि में।।13।।
सोच कर परिणाम रण का
दिल दहलने जो लगा
स्वयं से कैसे लड़ूँ ?
मन में बिखरने वो लगा।।14।।
हैं खड़े सम्मुख पितामह
गुरु द्रोण भी हैं सामने
हैं खड़े प्रियजन सभी वो
जो कभी संग संग पढ़े।।15।।
क्या करूँ कैसे लड़ूँ
अब सामना कैसे करूँ
शत्रु नहीं हैं ये हमारे
गांडीव क्या धारण करूँ।।16।।
हाथ, जिसने है दुलारा
औ खिलाया गोद में
कैसे कहो मैं अब लड़ूँगा
पड़ गया इस सोच में।।17।।
क्या फायदा ऐसी विजय का
जो मिले प्रतिकार से
क्या करूँ उस राज्य का
जो ना मिले व्यवहार से।।18।।
है कुटिल व्यवहार माना
भाई है पर वो मेरा
घात कैसे मैं करूँ
इस सोच में मन है घिरा।।19।।
ना मिला उत्तर कोई जब,
जब पार्थ कुंठित हो चला
ब्रह्म के अवतार का फिर
मृदु आसरा उसको मिला।।20।।
क्रमशः--
कर जोड़ कर पार्थ बोले
पाप ये कैसा हुआ है
क्या करूँ माधव कहो किस
अपराध का फल मिला है।।21।।
कैसे अपने शस्त्रों से
शीश इनका भेद पाऊँ
कुछ कहो मुझको बताओ
रक्त मैं कैसे बहाऊँ।।22।।
आज इस रणभूमि में यदि
रक्त इनका जो बहेगा
सोचता हूँ जग हमें क्या
कुलनाशक नहीं कहेगा।।23।।
पार्थ को विचलित देखकर
यूँ मोह उसका देखकर
श्री कृष्ण ने विचार किया
और रूप विकराल किया।।24।।
पार्थ से श्री कृष्ण बोले
देख मैं संसार में हूँ
मैं सभी दिक्काल में हूँ
मोक्ष के व्यवहार में हूँ।।25।।
तुम में हूँ मैं उसमें हूँ
जग के मैं कण कण में हूँ
मैं अवनी अंबर में हूँ
प्रलय में हूँ पवन में हूँ।।26।।
जीव में निर्जीव में हूँ
और इस गांडीव में हूँ
आकाश में पाताल में
मैं सृष्टि के हर काल में हूँ।।27।।
जगत का पालनहार हूँ
मैं यहाँ हर बाण में हूँ
निर्माण हूँ संहार हूँ
इस सृष्टि का आकार हूँ।।28।।
प्रेम हूँ आभार हूँ मैं
मोक्ष का आधार हूँ मैं
भावनाओं के सफर का
सार हूँ विस्तार हूँ मैं।।29।।
वाद हूँ विवाद में हूँ
हर किसी संवाद में हूँ
शब्द की इस जटिलता के
हर सरल अनुवाद में हूँ।।30।।
क्रोध भी मैं लोभ भी मैं
प्रेम का अनुरोध भी मैं
जो कहीं अन्याय है तो
न्याय का अनुरोध भी मैं।।31।।
मान में अपमान में हूँ
जो मिला सम्मान में हूँ
है मन में जो तुम्हारे
उस सभी अनुमान में हूँ।।32।।
इस जगत का ब्रह्म हूँ मैं
आदि हूँ मैं अंत हूँ मैं
है क्या शुरू अरु क्या खतम
प्रसार हूँ अनंत हूँ मैं।।33।।
है पार्थ तुम मुझको सुनो
जिस राह बोलूँ तुम चलो
तुम सभी में प्रिय मुझे हो
जो सत्य है उसको चुनो।।34।।
सत्य का संज्ञान हूँ मैं
अरु क्षमा का दान हूँ मैं
भय अभय का भाव भी मैं
मुक्ति वाला ज्ञान हूँ मैं।।35।।
वेदों में सामवेद हूँ
भावों की अभिव्यक्ति हूँ
चेतना का मूल भी मैं
अरु प्राणियों की शक्ति हूँ।।36।।
मैं महर्षियों में भृगु हूँ
मैं अक्षर ही ओंकार हूँ
सब यज्ञ का जपयज्ञ भी मैं
अचल हिमालय पहाड़ हूँ।।37।।
शस्त्रों में वज्र शस्त्र हूँ
गायों में कामधेनु हूँ
शास्त्रोक्त से उत्पत्ति हो
मैं ही वो कामदेव हूँ।।38।।
हार में हूँ जीत में हूँ
मैं जगत की रीत में हूँ
हृदय की भावनाओं के
मैं मचलते गीत में हूँ।।39।।
हैं प्रिय माना तुम्हारे
इनका अधर्म आधार है
जो है किया इनको मलिन
इनका ही अहंकार है।।40।।
सत्य इनके द्वार सोचो
जब हाथ जोड़े खड़ा था
इनके कुटिल व्यवहार से
धर्म संकट में पड़ा था।।41।।
यही सत्य यही धर्म है
नारी की रक्षा कर्म है
द्यूत क्रीड़ा में घटा जो
मात्र दंड ही अब धर्म है।।42।।
सब मोह माया त्यागकर
तू कर्म यहाँ निष्काम कर
असत्य जब सम्मुख खड़ा
तू न सोच बस प्रहार कर।।43।।
अब आर कर या पार कर
तू आस का उद्धार कर
कर्तव्य पथ पर हो खड़े
मन भाव पर अधिकार कर।।44।।
है खड़ा रण में यहाँ तू
कुछ सोच मत हुंकार भर
धर्म संस्थापना के लिए
तू अधर्म पर प्रहार कर।।45।।
ये हैं अधर्मी मान ले
अब सत्य को पहचान ले
ग्लानि मन से त्याग कर के
तू लक्ष्य का संधान ले।।46।।
कटु सत्य को स्वीकार लो
अपराध मन से त्याग दो
है नियति का खेल सारा
अब ऋण समस्त उतार दो।।47।।
आज जो विचलित हुआ तो
धर्म का अपमान होगा
झूठ को प्रश्रय मिलेगा
सत्य केवल नाम होगा।।48।।
हे पार्थ इस व्यवहार को
क्या नहीं कायर कहेंगे
द्वार पर जो नव सदी है
सोचो क्या गल्प गढ़ेंगे।।49।।
कहते कहते माधव फिर
मौन सोच में डूब गए
विचलित हुआ मन पार्थ का
और पसीने छूट गए।।50।।
हाथ जोड़ कहा पार्थ ने
है माधव मन तृप्त हुआ
जो थी ग्लानि भरी मन में
उससे मन ये मुक्त हुआ।।51।।
लोभ मोह अरु माया से
मन जातक बन जाता है
बुद्धि विकल हो जाती है
मन चातक हो जाता है।।52।।
मिला ज्ञान अब मुझे यहाँ
मन का संशय दूर हुआ
अँधियारा जो घना यहाँ
मन से मेरे दूर हुआ।।53।।
शस्त्र उठाऊँगा मैं अब
ये विश्वास दिलाता हूँ
न्यायोचित जो मार्ग यहाँ
वही मार्ग अपनाता हूँ।।54।।
सौगंध मुझे माटी की
धर्म पुनः स्थापित होगा
झूठ यहाँ जितना चाहे
सच नहीं पराजित होगा।।55।।
फल की चिंता नहीं मुझे
निष्काम कर्म ही मेरा है
छोड़ दिया परिणाम सभी
सत्य धर्म अब मेरा है।।56।।
धर्म विमुख जो हुए यहाँ
उन्हें मार्ग दिखलाना है
सत्य अहिंसा और धर्म का
उनको पाठ पढ़ाना है।।57।।
धर गांडीव धनंजय ने
कहा नहीं विलंब करो
रथ लेकर चलो वहाँ पर
युद्ध यहाँ अविलंब करो।।58।।
✍️©अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
26अक्टूबर, 2021
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