विस्तार मैं देने लगा हूँ।

विस्तार मैं देने लगा हूँ।  

शब्द मिरी भावना के तेरे अधरों से झरे यूँ
कामनाओं को यहाँ विस्तार मैं देने लगा हूँ।।

कुछ सुनहरे शब्द लाये गीत की माला बनाकर
इस रात की चाँदनी से ओस की बूँदें चुराकर
है यही करता हृदय अब चाहतों में डूब जाऊँ
और फिर तुमको रिझाऊँ गीत कोई गुनगुनाकर।।

गीत कुछ ऐसा सजा दूँ मीत बन कर वो सजे यूँ
भावनाओं को यहाँ आकार मैं देने लगा हूँ।।

रूप कुछ ऐसा सजे जो नैन में बस मुस्कुराए
प्रीत की पेंगें हृदय में कामनाओं को जगायें
बात जो निकले हृदय से बात वो पहुँचे हृदय तक
और पलकों में सजे जो स्वप्न सारे झिलमिलायें।।

स्वप्न कुछ ऐसा बुनूँ जो दे मौन को संचार यूँ
स्वप्न को आधार को व्यवहार मैं देने लगा हूँ।।

पुण्य पावन प्रीत गायें आरती मन में बसाकर
शब्द को श्रृंगार देकर भावनाओं में सजाकर
आस का आकाश लेकर पंथ नूतन कुछ सजाऊँ
और फिर तुमसे मिलूँ मैँ प्रीत की कलियाँ खिलाकर।।

आस को स्वीकार कर ले दे प्रीत को अधिकार यूँ
आस के संसार को विस्तार मैं देने लगा हूँ।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       05नवम्बर, 2021

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