गीत लिखे जो कदमताल से।
लिए तूलिका हाथों में कोशिश करता हूँ बार बार
पंखुड़ी पंखुड़ी रंग भरा पर आया ना फिर भी उभार
लगता ढीली ना हो जाये पकड़ तूलिका पर हाथों की
कहीं धुंध में खो ना जाये धुंधला पड़ जाए आकार
रह ना जाये विम्ब अधूरे रचे कभी जो विषयकाल में
चलो ढूँढते हैं वीथी पर गीत लिखे जो कदमताल से।।
नित किरणों ने जीवन देकर साँसों की इक डोर सजायी
रूप निखारा पल पल छिन छिन आशा अरु संचार जगायी
रुका नहीं राहों में पल पल साथ चला है साथ उठा है
मन के सूनेपन में जिसने पूजा वाली थाल सजायी
कहीं अधूरी रह ना जाये मन की वीणा मधुर ताल से
चलो ढूँढते हैं वीथी पर गीत लिखे जो कदमताल से।।
सुधियों की डोरी से जकड़े रहता मन का एकाकीपन
स्मृतियाँ मन के द्वार खड़ी हो मौन बढ़ाती हैं तड़पन
मृदुल भाव ले पाँव पखारे पलक सजाए स्वप्न सुनहरे
नित नूतन मृदु भाव सजाता रहता मन का सूना आँगन
मन के इस सूने आँगन को चलो सजायें मधुर ताल से
चलो ढूँढते हैं वीथी पर गीत लिखे जो कदमताल से।।
सूरज का रथ चला क्षितिज को गीत चलो नूतन रच डालें
टूटे मन के तारों को फिर जोड़ें हम नव साज सजा लें
खाली अंजुलि लेकर बोलो कैसे होगा संध्या वंदन
मन के सूने अँधियारे में चलो चलें नव दीप जला लें
अँधियारा ये मिट जायेगा ज्ञान दीप के मृदुल ज्वाल से
चलो ढूँढते हैं वीथी पर गीत लिखे जो कदमताल से।।
©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
19अक्टूबर, 2021
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