फिर खेल खेला जाएगा

फिर खेल खेला जाएगा

नेह का सपना दिखाकर स्वयं को अपना बताकर,
मान्यताओं को छुपाकर नीतियों को भी भुलाकर,
खेल खेला जायेगा विश्वास तोड़ा जाएगा।

सभ्यता रह-रह गिरेगी आतमा रह-रह मरेगी,
सत्य का अनुरोध धूमिल शून्यता रह-रह बढ़ेगी।
वासना का जाल फैला प्रेम अरु विश्वास मैला,
मुद्रिका के प्रेम के हर अंश का अनुप्रास मैला।

समर्पण के, आभार के, नींव को झूठा बताकर,
हर समर्पित मुद्रिका के अंश को झूठा बताकर,
खेल खेला जायेगा विश्वास तोड़ा जाएगा।

धर्म को अवरोध कहकर भावनाओं को गिराना,
भागवत के उपदेश के अर्थ को झूठा बताना।
वेदों के हर अंश से और नीतियों से दूर जाना,
गंग के तप-त्याग को बस स्वार्थ औ झूठा बताना।

व्यस्तताओं के बहाने संबंध का मन गिराकर, 
दूध के हर बूँद की आतमा को पल-पल गिराकर,
खेल खेला जायेगा विश्वास तोड़ा जाएगा।

हर सृजन की भावना में स्वार्थ का ही मूल होगा,
लाभ में वो ही रहेगा वक्त के अनुकूल होगा।
लाभ से सिंचित रहेगी वक्त की हर एक शिक्षा,
फिर भगीरथ क्यूँ करेगा गंग की वैसी प्रतीक्षा।

अब साधना के मूल्य को हर घड़ी हर पल गिराकर,
हर सृजन की आतमा पे झूठ का लेपन लगाकर,
खेल खेला जायेगा विश्वास तोड़ा जाएगा।

सत्य की होगी परीक्षा हर कदम पर व्यूह होगा,
झूठ आश्वासन से घिरा तर्क हर अभ्यूह होगा।
गांडीव होगा हाथ में नैन में प्रतिशोध होगा,
व्यर्थ सम्मुख पार्थ के हर कर्ण का अनुरोध होगा।

व्यूह लेकिन वो रचेंगे नीति को झूठा बताकर,
अभिमन्यु का फिर वध करेंगे व्यूह में झूठा फँसाकर,
खेल खेला जायेगा विश्वास तोड़ा जाएगा।

अब आत्मबल का शौर्य का स्वयं ही पहचान करना,
मत्स्य की उस आँख का अब स्वयं ही अनुमान करना।
कब तक करेगा ये जगत अब परशु की फिर प्रतीक्षा,
ये सदी खुद ही करेगी उपलब्धियों की समीक्षा।

फिर धर्म की स्थापना के मार्ग से मन को हटाकर,
छेड़कर इतिहास को कौटिल्य को झूठा बताकर,
खेल खेला जायेगा विश्वास तोड़ा जाएगा।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       30 जुलाई, 2024

खेल अभी भी जारी है

खेल अभी भी जारी है

जिसने सबका मन भरमाया कुछ और न दुनियादारी है,
द्वापर के चौसर का साथी वो खेल अभी भी जारी है।

दो रंगे पासे हाथों में ले अब भी शकुनी घूम रहा,
स्वार्थ प्रमुखता ले भावों में हर द्वार-द्वार को चूम रहा।
कुटिल भावना अंतस में भर हाथों में लिए कटारी है,
द्वापर के चौसर का साथी वो खेल अभी भी जारी है।

गली मोड़ हर चौराहे पर कटुता बैठी फ़न फैलाये,
पल-पल सोच रही पांचाली कैसे पथ पर आये जाये।
केशव के साये में क्यूँ कर छुपना उसकी लाचारी है,
द्वापर के चौसर का साथी वो खेल अभी भी जारी है।

सत्ता लोलुप दरबारों में सबके अपने स्वार्थ पल रहे,
भीष्म पितामह वाली चुप्पी देख यहाँ पर हृदय छल रहे।
सत्ता के चौखट पर कैसी लोकतंत्र की लाचारी है,
द्वापर के चौसर का साथी वो खेल अभी भी जारी है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29 जुलाई, 2024

सारे व्याकरण में है नहीं

सारे व्याकरण में है नहीं

कैसे लिख दूँ गीतों में मैं प्यार के अहसास को
वो शब्द अरु वो भाव सारे व्याकरण में है नहीं।

यादें जब भी आँसू बनकर नैन से बहने लगे,
ये मान लेना गीतिका का बंध पूरा हो गया।
आहों की बदली में जब-जब ये हृदय घिरने लगे,
ये मान लेना आतमा का द्वंद पूरा हो गया।

अब कैसे लिख दूँ गीत में आँसू के अहसास के,
वो शब्द अरु वो भाव सारे व्याकरण में है नहीं।

जब भी मचलकर मन कभी ये प्रश्न खुद करने लगे,
ये मान लेना आतमा का कार्य पूरा हो गया।
जब कभी मन की गली के हर रासते मिलने लगें,
ये मान लेना रासतों का कार्य पूरा हो गया।

अब कैसे लिख दूँ गीत मैं मन के हर विन्यास के,
वो शब्द अरु वो भाव सारे व्याकरण में है नहीं।

यूँ ही कभी जब भींग जाये मन भाव के अहसास में,
मान लेना प्रीत का का अनुबंध पूरा हो गया।
जब बूँद पलकों से उतरकर स्वयं ही हँसने लगे,
ये मान लेना अश्रुओं का पंथ पूरा हो गया।

अब जो अलौकिक बात है इस अश्रु के अहसास में,
वो शब्द अरु वो भाव सारे व्याकरण में है नहीं।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28 जुलाई, 2024

दीपक एक जला लेना

दीपक एक जला लेना

दुनिया के हर अँधियारे को साथी दूर भगा देना,
अँधियारा जब भी भरमाये दीपक एक जला लेना।

गीत न केवल लिखना साथी लहरों के आलिंगन के,
लिखो दर्द तटबंधों के प्रिय मिटते हर अनुबंधन के।
बलखाती लहरों में घुलकर तट को नहीं भुला देना,
अँधियारा जब भी भरमाये दीपक एक जला लेना।

कदम-कदम लाखों पहरे लाखों राह दिखाने वाले,
संबंधों की चौखट पर रिश्तों को समझाने वाले।
इस दुनियादारी में फँसकर तुम खुद को नहीं भुला देना,
अँधियारा जब भी भरमाये दीपक एक जला लेना।

पलकों के सपनों को यूँ ही व्यर्थ नहीं ढहने देना,
यादों के शीश महल में प्रिय कुछ सपने रहने देना।
सपनों को पाने की हठ में अपने नहीं भुला देना,
अँधियारा जब भी भरमाये दीपक एक जला लेना।

साँसों से अनुबंध हुए जो कभी नहीं वो कम करना,
औरों के आँसू से अपनी आँखों को भी नम करना।
हार गए जिन संबंधों को उनको नहीं भुला देना,
अँधियारा जब भी भरमाये दीपक एक जला लेना।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27 जुलाई, 2024

यूँ लग रहा उनकी गली का हर किवाड़ा बंद है।

यूँ लग रहा उनकी गली का हर किवाड़ा बंद है

इंद्रधनुषी आसमां का हर रंग सारा मंद है,
यूँ लग रहा उनकी गली का हर किवाड़ा बंद है।

जूझती है जिंदगी अहसास के विस्मृत पलों में,
छल रही है बंदगी भी जो कभी थी हर दिलों में।
हर आस के अहसास का पुष्पित इशारा मंद है,
यूँ लग रहा उनकी गली का हर किवाड़ा बंद है।

थी कभी मधुमित नशीली ये रात जो बरसात में,
आधरों से थी टपकती मधु हर घड़ी हर बात में।
सूखे मधु के हैं प्याले या कुछ नया अनुबंध है,
यूँ लग रहा उनकी गली का हर किवाड़ा बंद है।

अब न वो सुरताल सारे और न वही संगीत है,
बस झूठ के पैबंद से मन सिल रहा हर प्रीत है।
अब प्रीत का अनुराग का जो था सहारा मंद है,
यूँ लग रहा उनकी गली का हर किवाड़ा बंद है।

मेरी पेशानी के बल से हँस रहे जिनके महल,
द्वार पर उनके नहीं है मेरी पेशानी का हल।
बूँद की अंतिम सियाही तक ही यहाँ संबन्ध है,
यूँ लग रहा उनकी गली का हर किवाड़ा बंद है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       26 जुलाई, 2024

मुक्ति गीत

मुक्ति गीत

जाओ है विदा तुमको हमारे गीत अब न गायेंगे,
ना दूर तक नजरें तकेंगी न दूर तक हम आयेंगे।

था आचमन तुमको हमेशा और अर्पित मन सुमन सब,
था मंत्र के उच्चारणों में पुण्यता का आगमन सब।
अब जो न होगी पुण्यता तो ये गीत हम न गायेंगे,
ना दूर तक नजरें तकेंगी न दूर तक हम आयेंगे।

अब क्यूँ करे ये दिल प्रतीक्षा क्यूँ द्वार पर दीपक धरे,
क्यूँ कर सहे हर लांछनों को क्यूँ याचना अब मन करे।
जब प्रतीक्षा ही न होगी नहीं मीत हम कहलायेंगे,
ना दूर तक नजरें तकेंगी न दूर तक हम आयेंगे।

जब टूटना ही रेख में हो तो वृथा है भार ढोना,
क्यूँ व्यर्थ के अनुबन्धनों में स्वयं कालाहार होना।
जब तोड़ सारे बंधनों को मुक्त हृदय हो जायेंगे
ना दूर तक नजरें तकेंगी न दूर तक हम आयेंगे।

मन चल पड़े जब मुक्त होकर सब व्यर्थ है फिर सोचना,
शीतल करे जो दो दृगों को क्यूँ अश्रुओं को पोछना।
आँसू में अनुभूतियों के अहसास जब बह जायेंगे,
ना दूर तक नजरें तकेंगी न दूर तक हम आयेंगे।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20 जुलाई, 2024

जीवन का आशय

जीवन का आशय

बिना लड़े कब मिल पाया है जीवन का आशय बोलो,
बिना बढ़े कब मिल पाया है जीवन में आश्रय बोलो।

लहरों की धारा संग चलकर गहराई का ज्ञान हुआ,
आत्म विभूषित हुआ जहाँ राहों का अनुमान हुआ।
अनुमानों के बिना मिला कब संकल्पों को आशय बोलो,
बिना बढ़े कब मिल पाया है जीवन में आश्रय बोलो।

अरुणोदय का बोध नहीं तो चन्द्र रश्मियाँ व्यर्थ रहीं,
जब तक ताप नहीं मिलता है शीतलता का अर्थ नहीं।
धूप-ताप जो सहा नहीं है छाँवों का आशय बोलो,
बिना बढ़े कब मिल पाया है जीवन में आश्रय बोलो।

उच्च कभी तो निम्न कभी है अपने जीवन की रेखा,
पौरुष का सम्मान किया जो उसने मरु में जल देखा।
अनुदानों में मिलने वाले सपनों का आशय बोलो,
बिना बढ़े कब मिल पाया है जीवन में आश्रय बोलो।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       19 जुलाई, 2024

शहर विकास तो गाँव है गहना।

शहर विकास तो गाँव है गहना

पगडंडी से सड़क का रास्ता,
इक दूजे के मन में बसता।
गली-गली से होती बातें,
तारों के संग कटती रातें।
पुरवइया का घर-घर बहना,
शहर विकास तो गाँव है गहना।

राहों में कदमों की करवट,
नयनों में सपनों की सिलवट।
एक चली तो दूजी चली है,
फूल है एक तो दूजी कली है।
हँसकर इक दूजे से मिलना,
शहर विकास तो गाँव है गहना।

इक सपनों की भूल-भुलैया,
दुजे में पीपल की छइयाँ।
भाग-दौड़ है एक में पल-पल,
दूजे में सपनों की हलचल।
सपनों का शहरों में बसना,
शहर विकास तो गाँव है गहना।

ऐसी जुड़ी राहें जीवन की,
गाँव सुने है शहर के मन की।
तब टूट सकेगी कैसे डोरी,
शहर चले जब गाँव की ओरी।
शहरों के संग गाँव का रहना
शहर विकास तो गाँव है गहना।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       18 जुलाई, 2024




मेरे स्वर

मेरे स्वर

मौन अभी मेरे स्वर माना, इक दिन वो भी आयेगा,
होंगे मुखर कभी अधरों पे, जग भी इसको गायेगा।

उम्मीदों का दामन थामे, प्रति दिन पथ पर चलता हूँ,
शूल चुभे कितने ही पग में, हँस कर खुद से मिलता हूँ।
कंटक पथ भी फूल बनेंगे, इक दिन वो भी आयेगा,
आज चला हूँ भले अकेले, इक दिन जग भी आयेगा।

मौन अभी मेरे स्वर माना, इक दिन वो भी आयेगा,
होंगे मुखर कभी अधरों पे, जग भी इसको गायेगा।

जीवन पथ मुश्किल है माना, नामुमकिन कुछ रहा कहाँ,
इस जीवन में संघर्ष न हो, ऐसा पथ कब रहा यहाँ।
उद्द्यम के बल पर सपनों की, गाथा मन लिख पायेगा,
आज उगाता जिसे अकेले, जग उसको उपजायेगा।

मौन अभी मेरे स्वर माना, इक दिन वो भी आयेगा,
होंगे मुखर कभी अधरों पे, जग भी इसको गायेगा।

कदम ताल औरों के नापूं, मुझको ये अधिकार नहीं,
औरों की शर्तों पर गाऊँ, मुझको ये स्वीकार नहीं।
अपने हिस्से के मधुवन में, सावन इक दिन आयेगा,
उम्मीदों की इस लतिका पे, फूल कभी मुस्कायेगा।

मौन अभी मेरे स्वर माना, इक दिन वो भी आयेगा,
होंगे मुखर कभी अधरों पे, जग भी इसको गायेगा।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16 जुलाई, 2014

अधूरे स्वर

अधूरे स्वर

कितने मंजर नयनों में आकर पलकों को छल जायेंगे,
कितने स्वर अधरों पे आकर बिना कहे ही टल जायेंगे।

है जितना मुश्किल अनुमानों की राहों में खुलकर जाना,
है उतना मुश्किल दुविधाओं से जीवन का बाहर आना।
अनुमानों दुविधाओं के पल जब सपनों में मिल जायेंगे,
कितने स्वर अधरों पे आकर बिना कहे ही टल जायेंगे।

जितना मुश्किल इस जीवन में है वादा कर हँसते रहना,
उतना ही मुश्किल है पलकों के आँसू का कहते रहना।
हँसते आँसू जब अधरों के कंपन में घुल-मिल जायेंगे,
कितने स्वर अधरों पे आकर बिना कहे ही टल जायेंगे।

मन को माटी जैसा रखकर इस जीवन में रहना होगा,
जीना है यदि इस जीवन को सब धूप-छाँव सहना होगा।
जीवन तब इस धूप-छाँव में हँसते-हँसते पल जायेंगे,
कितने स्वर अधरों पे आकर बिना कहे ही टल जायेंगे।

जो जीवन भर बाधित स्वर ले निज आहों में जीता होगा,
हृद घट खंडित भावों से छल पल-पल कितना रीता होगा।
रीते अंक लिए आँसू फिर घावों को ना सिल पायेंगे,
कितने स्वर अधरों पे आकर बिना कहे ही टल जायेंगे।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13जुलाई, 2024

अपनी नाव उतारी है

अपनी नाँव उतारी है

कितनी कश्ती आशाओं की, लहरों में उलझी जाती,
फिर भी हमने तूफानों में, अपनी नाव उतारी है।

हार-जीत के अनुमानों से, आशंकित मन की राहें,
लेकिन आलिंगन में लेने, को आतुर मन की बाहें।
हार-जीत के सम्मोहन में, नींदें भी उलझी जातीं,
फिर भी हमने तूफानों में, अपनी नाव उतारी है।

जीवन के इस कुरुक्षेत्र में, सपनों के सब अनुयायी,
कुछ सपने जीवंत हुए हैं, कुछ पानी की परछाईं।
लेकिन सपनों के चौसर पर, नींदें भी उलझी जातीं,
फिर भी हमने तूफानों में, अपनी नाव उतारी है।

लिखा रेख में जो जीवन के, चाहा टाल नहीं पाया,
पग-पग कितने जतन किये पर, मन का हाल नहीं पाया।
पग तल जितने राह चले हैं, मंजिल दूर हुई जातीं,
फिर भी हमने तूफानों में, अपनी नाव उतारी है।

नीलकंठ बनना चाहा पर, अंतस शुद्ध न हो पाया,
जीत गया जीवन कलिंग पर, मन ये बुद्ध न हो पाया।
इच्छाओं के महा जलधि में, चाहे कितनी बलखाती,
फिर भी हमने तूफानों में, अपनी नाव उतारी है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12जुलाई, 2024

किधर जाऊँगा

किधर जाऊँगा

जिंदगी तू साथ देगी तो निखर जाऊँगा
हाथ छूटा जो तेरा तो मैं बिखर जाऊँगा

यूँ तो वादे हैं हज़ारों यहाँ इन राहों में
मुझसे वादा जो कर तो सफर पाऊँगा

वैसे बन-बन के भी बिगड़ा हूँ बहुत
तू जो हँस देगी तो सुधर जाऊँगा

तेरी कश्ती का मैं मुसाफिर हूँ यहाँ
छूटी जो कश्ती तो किधर जाऊँगा

"देव" चलता है सफर जब तलक साँसें हैं
है ये लम्हों का सफर हँस के गुजर जाऊँगा

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08 जुलाई, 2024


बूँदों का मधुमास

बूँदों का मधुमास।   

सावन की मधु बूंदें गिरकर, यूँ अन्तस् में अधिवास किया
मचला यूँ मन का आँगन ये, ज्यूँ बूँदों ने मधुमास किया।

हरित हुआ धरती का आँचल,
काली मेघ घटायें छाईं।
बारिश की बूँदेँ जीवन में,
बनकर के सौगातें आयीं।
तन मन ऐसे भींगा जैसे, मृदु भावों ने अनुप्रास किया।
मचला यूँ मन का आँगन ये, ज्यूँ बूँदों ने मधुमास किया।।

देख धरा का खिलता आँचल,
मेघों का भी मन डोला है।
दूर क्षितिज पर मिलन देख कर, 
पपिहे का भी मन डोला है।
पपिहे ने भी गीत सुना कर, फिर प्रियतम को है याद किया,
मचला यूँ मन का आँगन ये, ज्यूँ बूँदों ने मधुमास किया।।

सावन ऋतु की देख उमंगें,
हिय प्रेम राग भर जाता है।
दूर देश बैठे पियतम की, 
यूँ बरबस याद दिलाता है
प्रेम फुहारों से भींगा मन, अब मधुर मिलन की आस किया,
मचला यूँ मन का आँगन ये, ज्यूँ बूँदों ने मधुमास किया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद

नयनों के आलोड़न से

नयनों के आलोड़न से

बन जाये इतिहास यहाँ पर, तेरी मेरी मधुर कहानी,
दो नयनों के आलोड़न से, बस इतना अहसास करा दो।

विरह वेदना साथी मेरे, अश्रु मेरे काव्य की भाषा,
बन जाऊँ ना कहीं यहाँ मैं, दुनिया में बस खेल तमाशा।
इस विरह लेखनी को मेरे, बस स्नेहिल आभास करा दो,
दो नयनों के आलोड़न से, बस इतना अहसास करा दो।

पग तल नाप रहे हैं रस्ते, निशा कहाँ है भोर कहाँ है,
एक जलन है नयन कोर में, क्या जाने मन ठौर कहाँ है।
इन नयनों के कोरों में बस, सपनों को मधुमास करा दो,
दो नयनों के आलोड़न से, बस इतना अहसास करा दो।

दर्द प्रेम है अश्रु स्नेह है, बैरन लगती यहाँ श्वास है,
बाती जैसा जल जाऊँगा, क्या मेरा यही इतिहास है।
मधुर प्रेम की एक फूँक से, सपनों का विन्यास करा दो,
दो नयनों के आलोड़न से, बस इतना अहसास करा दो।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30 जून, 2024

छाँव

छाँव

ढूँढ़ते हो क्यूँ सुखन बस उम्र के ही गाँव में
आओ मिल बैठो घड़ी भर जिंदगी की छाँव में

जो वहाँ पर दर्द है तो खुशियों का भी राज है
कट रही है जिंदगी इन बादलों की छाँव में

जब से छूटी है जमीं छूटी गलियाँ गाँव की
दर्द गाँवों का बढ़ा है देख छाले पाँव में

जिनके कदमों की धमक से डोलते थे रास्ते
ढूँढ़ते हैं अब सफर वो इस नए बदलाव में

भूख का मतलब यहाँ बतलायेगी वो जिंदगी
जिसने खुद को है तपाया धूप के इस गाँव में

उम्र का वो मोड़ अब भी है वहीं पहले जहाँ था
जिसने कभी चलना सिखाया आँचलों की छाँव में

फिर चलो बैठे वहाँ और खुद से ही बातें करें
राह भी शायद मिले उन्हीं बरगदों की छाँव में

 ©️✍️अजय कुमार पाण्डेय 
        हैदराबाद

ओ री चिरइया

ओ री चिरइया

ओ री चिरइया, प्यारी चिरइया
तुझसे सजा अँगना रे।
तेरी ही कुह-कुह से
तेरे ही कलरव से
सोना और जगना रे।

हो कितना अँधेरा, जग में कहीं भी,
काँटे हों कितने भी, पग में कहीं भी,
तुझसे ही रस्ता दिखा।
गीत अधूरे हों, आहों के घेरे हों,
मन की गली में, कैसे अँधेरे हों,
नयनों में सपना लिखा।

सूने नयन का तू सपना सलोना,
पलकों का पलना रे।
ओ री चिरइया, प्यारी चिरइया,
तुझसे सजा अँगना रे।

अंबर से चुन-चुन के, तारे ले आऊँ,
सतरंगी चूनर में, उनको जड़ाऊँ,
बाहों के पलने में झूला झुलाऊँ।
नयनों में तेरे, काजल लगाऊँ,
तेरे आँचल में मैं, चाँद तारे सजाऊँ,
परियों की तुझको कहानी सुनाऊँ।

तुझ पर लिखूँ, गीत प्यारे सुहाने,
तुझ संग सँवरना रे।
ओ री चिरइया, प्यारी चिरइया,
तुझसे सजा अँगना रे।

©✍️ अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
         22 जून, 2024

काव्य में नव भाव रच तूलिका ने सम्मान पाया

काव्य में नव भाव रच तूलिका ने सम्मान पाया

क्रोंच पक्षी के रुदन को काव्य का इक रूप देकर,
मौन आँसू जो गिरे थे भाव को इक रूप देकर।
कुछ पंक्तियों में सिमटकर दर्द ने नव गान पाया,
काव्य में नव भाव रच तूलिका ने सम्मान पाया।

दर्द भावों में उभरकर नव गीत बनकर छा गये,
गीत अधरों से उतरकर नव काव्य बनकर छा गये।
पंक्ति का आकार पाकर सब भावनायें खिल गईं ,
जो रचे उसे रोज हिय ने दर्द बनकर छा गईं।

शब्द का श्रृंगार पाकर दर्द को सबका बनाया,
काव्य में नव भाव रच तूलिका ने सम्मान पाया।

जो थी घुटन मन में कहीं वो भाव पन्नों पर लिखे,
अरु शब्द के हर उस चुभन के घाव पन्नों पर दिखे।
लिख दिये प्रतिरोज जाने पीर जीवन के पलों की,
पास फिर भी रह गयी आह बिछड़े उन पलों की।

भाव को विस्तार देकर गीत को सबका बनाया,
काव्य में नव भाव रच तूलिका ने सम्मान पाया।

गीत में जीवन सुरों के वो राग सारे लिख दिये,
नेह के सुंदर पलों के पिय राग सारे लिख दिये।
लिख दिये नव गीत कितने मन लुभाती कामना के,
राग को सम्मान देती प्रीत की नव भावना के।

साज का नव सुर सजाकर गीत ने सोपान पाया,
काव्य में नव भाव रच तूलिका ने सम्मान पाया।

 ©✍️अजय कुमार पाण्डेय 
        हैदराबाद

एक बेरि आ जाइता गाँव

एक बेरि आ जाइता गाँव

बरिस-बरिस बीतल, अँखिया झुराइल, अउर छूटल ई पिपरा के छाँव हो।
हे विदेसिया, एक बेरि आ जाइता गाँव हो,
एक बेरि आ जाइता गाँव।

संगी छूटल, साथी छूटल, छूटल खेल-खिलौना, 
गली, मुहल्ला, आँगन छूटल, छूटल खाट-बिछौना।
छूट गयल माथे पे थपकी, जबसे, छूटल अँचरा के छाँव हो,
एक बेरि आ जाइता गाँव हो, एक बेरि आ जाइता गाँव।

हर आहट पे मनवा भागे, पुरवइया तड़पाये, 
ई चंदा के शीतल किरणें तन में आग लगाये।
पहर-पहर मुश्किल हौ बीतल, अब तारन की छाँव हो,
एक बेरि आ जाइता गाँव हो, एक बेरि आ जाइता गाँव।

ताल-तलैया पगडंडी सब, हर पल राह निहारे,
घर के सूनी-सूनी चौखट, घुट-घुट तोहें पुकारे।
बिन तोहरे ई जीवन लागे, लहर में भटकत नांव हो,
एक बेरि आ जाइता गाँव हो, एक बेरि आ जाइता गाँव।

केतनी बीत गइल ई जिनगी, बाकी जितनी बाटे,
पल-पल बरस-बरस लागत हौ, कइसे इहके काटे।
साँझ ढले से पहिले आ के, खतम करा अलगाव हो,
एक बेरि आ जाइता गाँव हो, एक बेरि आ जाइता गाँव।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        19 जून, 2024

कैसे अलविदा कह दूँ

कैसे अलविदा कह दूँ

जाने किस मोड़ पे, मुलाकात हो जाये,
बता जिंदगी कैसे, मैं अलविदा कह दूँ।

बस अभी-अभी ही तो, शुरू हुआ है सफर,
कैसे कह दूँ मैं कि, बड़ी लंबी है डगर।
जाने किस मोड़ पे, सवालात हो जाये,
बता जिंदगी कैसे, मैं अलविदा कह दूँ।

कितने सपने हैं सजाए, इन पलकों में,
कितने वादे हैं छुपाए, इन अलकों में।
क्या पता किस मोड़ पे, वो साथ हो जायें,
बता जिंदगी कैसे, मैं अलविदा कह दूँ।

बीत चुकी कितनी, कितनी कहानी बाकी,
अब भी अधरों पे, उनकी निशानी बाकी।
क्या पता फिर से वही, बरसात हो जाये,
बता जिंदगी कैसे, मैं अलविदा कह दूँ।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       16 जून, 2024

जाने कैसा है मिलन

जाने कैसा है मिलन

धुँधलके में साँझ के आस मद्धम पल रही है,
मौन हैं हम तुम मगर आँख कुछ-कुछ कह रही है।
इन मचलती कामनाओं में छुपी कुछ तो चुभन,
अपना कैसा है मिलन जाने कैसा है मिलन।

मौन हम दोनों यहाँ, पर साँस कुछ तो कह रही,
छू के आँचल को तेरे पौन मद्धिम बह रही।
जब पवन का गीत मद्धम डर रहा क्यूँ आज मन,
अपना कैसा है मिलन जाने कैसा है मिलन।

चाँद के अपने सफर पर रात का क्या जोर है,
जल रही जब दीपिका फिर क्यूँ हृदय में शोर है।
जब खिला उपवन हृदय का मौन फिर क्यूँ मन सुमन,
अपना कैसा है मिलन जाने कैसा है मिलन।
 
कहीं ऐसा न हो गीत अधूरे फिर रह जाएं,
ठहरो न जरा सा आज कि दूरी कम हो जाएं।
है अधरों को स्वीकार काँपता पर अंतर्मन,
अपना कैसा है मिलन जाने कैसा है मिलन।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       10 जून, 2024

मुक्तक

वो मौसिकी ही क्या जिसमें जिंदगी न हो।
वो शायरी ही क्या जिसमें बन्दगी न हो।
यूँ तो आशिकी के लाखों तलबगार हैं,
वो आशिकी ही क्या जिसमें तिश्नगी न हो।

घटेगी कब तलक साँसें कहीं कुछ जोड़ तो होगा।
हमारी मुश्किलों का भी कहीं कुछ तोड़ तो होगा।
भटकेगी इन राहों में अकेली जिंदगी कब तक,
कहीं तो इस कहानी का सुहाना मोड़ तो होगा।


यमुक्त गीत- यादें

यादें

मेरी यादें जब तुम्हारे दिल को छूकर जाएंगी,
हिचकियाँ अधरों पे सजकर गीत बनकर गायेंगी।

क्या हुआ जो उस घड़ी में गीत पूरे हो सके न,
और रहकर पास भी हम पास इतने हो सके न।
दूरियाँ जब-जब भी अपने रास्ते में आएंगी,
हिचकियाँ अधरों पे सजकर गीत बनकर गायेंगी ।

एक लम्हा था जिसे हमसे सँभाला न गया,
एक लम्हा उम्र का हमसे निकाला न गया।
जब भी लम्हे दर्द बनकर उम्र को तड़पायेंगी,
हिचकियाँ अधरों पे सजकर गीत बनकर गायेंगी।

अनलिखी रह जाये न अपनी कहानी प्यार की,
हार कर भी जीत की और जीत में भी हार की।
हार ये मेरी तुम्हारे दिल को जब तड़पायेगी,
हिचकियाँ अधरों पे सजकर गीत बनकर गायेंगी।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08 जून, 2024

गजल- निभाया न गया

निभाया न गया

दिल पे लगी उसको छुपाया न गया
मुझसे रिश्ता कोई निभाया न गया

उम्र भर दर्द के साये में जीता कैसे
चाह कर दर्द दिल में दबाया न गया

कहने को ही रिश्ता उनसे था अपना
ये भरम भी दिल में बनाया न गया

कैसे दे दूँ मैं दोष लकीरों को यहाँ
आशियाना मुझसे ही बसाया न गया

उनकी नजरों में गिर न जाऊँ फिर से
चाह कर उनको फिर से बुलाया न गया

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03 जून, 2024

चीख

चीख दब कर रह गयी क्या बेबसी की मार से,
या बँधी है जोर से या जुल्म से तलवार से।
वेदना का ये समर अब सहा जाता नहीं है,
दर्द मैं कैसे लिखूँ कुछ लिखा जाता नहीं है।

साँझ का वो धुँधलका और पुरवा थी सुहानी,
चल रही चाँदनी और खिल रही थी रातरानी।
एक मद्धम सी लहर हौले-हौले छू रही थी,
खेलती मस्त होकर मन का अंचल छू रही थी।

था अभी पूरा प्रहर ये तो बस शुरुआत थी,
लेख में विधना के पर वो तो अंतिम रात थी।
रौंद डाले स्वप्न सारे तेज इक रफ्तार ने,
कर दिए सब मौन सपने क्रूर के उस वार ने।

चीख दब कर रह गयी क्या जाने कैसे शोर में,
वक्त अब शायद नहीं है क्या कलम के जोर में।
बंद होकर रह न जाये पृष्ठ में बनकर कहानी,
लेखनी कुछ धार दे दो कह सके सच को जुबानी।

यूँ लिखो इस दर्द को कि बेध दे सबका हृदय,
मुक्त कर दो सत्य को या झूठ में कर दो विलय।
है विवश क्यूँ सत्य इतना अब सहा जाता नहीं,
दर्द मैं कैसे लिखूँ कुछ लिखा जाता नहीं है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01 जून, 2024

मुक्त गीत- गीत न लिख पाऊँगा

गीत न लिख पाऊँगा

तुम जो रूठे शब्द रूठे गीत न लिख पाऊँगा,
फिर कभी इस दिल में अपने प्रीत न लिख पाऊँगा।

है तुम्हीं से आस सारी और तुमसे ही शिकायत,
है तुम्हीं से दोस्ती और तुमसे ही अदावत।
बिन तुम्हारे जिंदगी में जीत न लिख पाऊँगा,
तुम जो रूठे शब्द रूठे गीत न लिख पाऊँगा।

साँस तुम धड़कन तुम्हीं हो जिंदगी भी तुम हो मेरी,
भोर की पहली किरण हो बन्दगी भी तुम हो मेरी।
बिन तुम्हारे जिंदगी की रीत न लिख पाऊँगा,
तुम जो रूठे शब्द रूठे गीत न लिख पाऊँगा।

ये जहाँ या वो जहाँ हो तुम पे ही दिल आसना,
इक सिवा तेरे हृदय को और न कुछ कामना।
तुम बिना इस जिंदगी को मीत न लिख पाऊँगा,
तुम जो रूठे शब्द रूठे गीत न लिख पाऊँगा।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        28 मई, 2024

रुक गए जो पंथ में तो ज्ञान का फिर बोध कैसा

रुक गए जो पंथ में तो ज्ञान का फिर बोध कैसा

चल रही धरती गगन अरु चल रही पुरवा सुहानी,
चल रहे हैं चांद तारे खिल रही है रात रानी।
जब प्रकृति गीत सुंदर मन में हो फिर क्षोभ कैसा,
रुक गए जो पंथ में तो ज्ञान का फिर बोध कैसा।

है वही जीवन समर्पित स्वयं की जो भूल समझे,
पंथ के हर कंटकों को पंथ का ही फूल समझे।
जो विकल हो कंटकों से पंथ पर फिर क्रोध कैसा,
रुक गए जो पंथ में तो ज्ञान का फिर बोध कैसा।

दे रहे यदि पुष्प जग को स्वयं फिर अधिकार कैसा,
स्वार्थ पोषित पंक्तियों में सत्य का प्रतिकार कैसा।
जो मिथक है ये जगत तो सत्य पर अवरोध कैसा,
रुक गए जो पंथ में तो ज्ञान का फिर बोध कैसा।

हैं सभी की भावनाएं और सबकी जिंदगानी,
लिख रहे हैं पंक्तियों में पृष्ठ पर अपनी कहानी।
यदि कथानक क्षुब्ध है तो अन्य से अनुरोध कैसा,
रुक गए जो पंथ में तो ज्ञान का फिर बोध कैसा।

प्रात किरणें नित हृदय में चेतना संचार करतीं,
पल्लवित नव आस देतीं क्षोभ का निस्तार करतीं।
भोर है जब हर निशा का रात्रि फिर गतिरोध कैसा,
रुक गए जो पंथ में तो ज्ञान का फिर बोध कैसा।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27 मई, 2024

कैसे कह दूँ मैं कहो कि आज सब सुलझा हुआ है।

कैसे कह दूँ मैं कहो कि आज सब सुलझा हुआ है

है भ्रमित मन प्राण क्यूँ कर, साथ दे पाती न काया,
क्या पथिक भटका हुआ है, या समझ आयी न माया।
मन बदलती भावनाओं मध्य क्यूँ उलझा हुआ है,
कैसे कह दूँ मैं कहो कि आज सब सुलझा हुआ है।

मन वचन अरु कर्म सारे बिंदु पर सिमटे हुए हैं,
ज्वाल बनकर याचनाएं गात से लिपटे हुए हैं।
मिट रही है चाह प्रति पल क्यूँ संग की व्यवहार की,
मर रही है आस पल-पल क्यूँ मौन मन मनुहार की।

मन नित नए जंजाल के मध्य में उलझा हुआ है,
कैसे कह दूँ मैं कहो कि आज सब सुलझा हुआ है।

बोध क्या मन को नहीं है नृत-अनृत का क्लिष्ट अंतर,
या कहीं उलझा हुआ है शून्यता में आत्म अंतर।
हो रही जब से घनेरी स्वार्थ में अंधी ये रात,
है यही भय आत्मा पर जाने कैसा हो आघात।

नृत-अनृत के मध्य में जब क्लान्त मन उलझा हुआ है,
कैसे कह दूँ मैं कहो कि आज सब सुलझा हुआ है।

इस नियति से पूछ सकते काश मन के प्रश्न सारे,
दूर शायद हो सकें तब इस हृदय के कष्ट सारे।
जब करेगी लेखनी ये सत्य का सम्मान पथ पर,
तब गढेगी ज़िंदगी ये नित नया प्रतिमान पथ पर।

लेखनी का शब्द जब तक लोभ में उलझा हुआ है,
कैसे कह दूँ मैं कहो कि आज सब सुलझा हुआ है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        26 मई, 2024

भोर की आस में रात सो ना सकी

भोर की आस में रात सो ना सकी

चाँदनी सिलवटों में सिमटती रही,
भोर की आस में रात सो ना सकी।
बात कुछ अनकही कुछ अधूरी रही,
बात हो ना सकी रात सो ना सकी।

नैन के ख्वाब सारे पिघलते रहे,
रात भर नींद द्वारे सिसकती रही।
इक तमन्ना दिलों में मचलती रही,
इक तमन्ना कलेजा मसलती रही।

याद नश्तर बनी रात चुभती रही,
चाह कर बात कितनी सँजो ना सकी।
चाँदनी सिलवटों में----

सुबह की आस में रात चलती रही,
हर जगह राह में बस अँधेरा मिला।
जब दिखी रोशनी की झलक सी कहीं,
एक बिखरा हुआ सा सवेरा मिला।

आँधियाँ तेज थीं राह में इस तरह,
दीपिका रात भर टिमटिमा ना सकी।
चाँदनी सिलवटों में ------

कुछ यादों की परछाइयों के सिवा,
और कुछ पास बाकी बचा क्या यहाँ।
इन लम्हों की तन्हाइयों के सिवा,
अब कहने को बाकी नहीं कुछ यहाँ।

आधरों पे सजे गीत सब खो गए,
चाह कर गीतिका गुनगुना ना सकी।
चाँदनी सिलवटों में-------

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        24 मई, 2024

तुम आये जीवन आया है

तुम आये जीवन आया है

पलकों के विचलित भावों में,
सपनों की स्नेहिल सी हलचल।
नयनों के भींगे कोरों में,
आये खुशियों के पावन पल।

तप्त हृदय जलती साँसों ने,
पतझड़ में मधुवन पाया है,
तुम आये जीवन आया है।

आहों ने था किया बसेरा,
सब खुशियों से अनजाने थे।
तन्हाई थी यहाँ भीड़ में,
हम अपनों में बेगाने थे।

क्लान्त हृदय ने सूनेपन में,
जीवन का आशय पाया है,
तुम आये जीवन आया है।

मधुर यामिनी ने आँगन में,
अंतस के प्रतिपल ताप भरा।
चन्द्र रश्मियों की हलचल ने,
प्रतिपल बस घाव किया गहरा।

बदला पल घड़ियाँ बदली हैं,
घावों ने मलहम पाया है,
तुम आये जीवन आया है।

मरुधर की तपती राहों को,
शीतल कोई छाया दे दे।
मुरझाई लतिका को जैसे,
कोई नूतन काया दे दे।

मधु मिश्रित सब गीत हृदय के,
संग-संग जो भी गाया है,
तुम आये जीवन आया है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17 मई, 2024


आपन माटी

आपन माटी

भोजपुरिया के मान बदे सब अपने के तैयार करा,
गर्व करा अपनी भाषा पे अउरन के स्वीकार करे।

बिन भाषा के जिनगी दूभर,
कइसे मन के बात कही।
मिली न जब तक मन से मनवा,
आपन माटी दूर रही।
लाज शरम सब छोड़ इहाँ पे माटी से तू प्यार करा,
भोजपुरिया के मान बदे सब अपने के तैयार करा।

जब से छूटल माटी आपन,
डगर नेह के दूर भइल।
हँसी ठिठोली दूर भइल सब,
जिनगी आपन झूर भइल।
नजर फेरि के कब तक रहबा, महिमा तू स्वीकार करा,
भोजपुरिया के मान बदे सब अपने के तैयार करा।

इ बाल्मीकि गौतम के माटी,
तुलसी कबीर की घाटी।
विश्वनाथ अउ सारनाथ के,
हौ कुम्भ जनम के साथी।
पाप नाशिनी गंगा माई, महिमा के गुणगान करा,
भोजपुरिया के मान बदे सब अपने के तैयार करा।

नालंदा अरु काशी यहिं पर,
शिक्षा के जीवन दिहनी।
रामायण अरु रामचरित से,
जन गण के अवगुण हरनी।
धर्म परायण भूमि इहाँ के अइसन ही व्यवहार करा,
भोजपुरिया के मान बदे सब अपने के तैयार करा।

इ कबीर दास के बोली हौ,
इहमन ही रसखान मिलल
हुंकार बहादुर कुँवर सिंह,
मंगल सा अभिमान मिलल।
आजाद मिलल यहिं माटी से जिनपर तू अभिमान करा,
भोजपुरिया के मान बदे सब अपने के तैयार करा।

दिनकर, मुंशी प्रेमचंद अरु,
हरिश्चंद्र परिपाटी हैं।
काव्य जगत के क्षेत्र में इहाँ,
घर-घर सोंधी माटी है।
वेद पुराण ग्रन्थ से अपने मन के सबहि विकार हरा,
भोजपुरिया के मान बदे सब अपने के तैयार करा।

कहिया तक शर्माइल रहबा,
अपने तन के माटी से।
कहिया तक भकुआइल रहबा,
देखि नई परिपाटी से।
नवका के अपनावा लेकिन मौलिकता से प्यार करा,
भोजपुरिया के मान बदे सब अपने के तैयार करा।

 ©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15 मई, 2024


दोहा

दोहा

श्रद्धा जाके मन बसे, हृदय बसे हनुमान।
निश्चय विजय प्रतीत हो, बढ़े बुद्धि अरु ज्ञान।

जोरि-जोरि धन मन मुआ, मिला न मन को चैन।
चिंता मन को सालती, कैसे बीते रैन।।

मन में है संतोष यदि, और प्रेम का भाव।
जीवन ये फूले-फले, मिलती प्रभु की छाँव।।

मुक्तक- नई प्रीत मैं लिख दूँ

मुक्तक- नई प्रीत मैं लिख दूँ

कहो तो चाहतों का फिर नया कुछ गीत मैं लिख दूँ।
लिखूँ कुछ ख्वाहिशों को फिर नई सी रीत मैं लिख दूँ।
जो हो मुझको इजाजत यदि तुम्हारे पास आने की,
बनूँ फिर गीत अधरों का नई सी प्रीत मैं लिख दूँ।

खिलेंगे फूल राहों में तुम्हारा साथ मिल जाये।
कटेगी राह ये सारी तुम्हारा साथ मिल जाये।
नहीं होंगे नजारे दूर कभी अपनी निगाहों से,
चलेंगे साथ सब अपने तुम्हारा साथ मिल जाये।

मैं अपने भाव गीतों में यहाँ तुमको सुनाता हूँ।
मिले दो पल सुकूँ मुझको तुम्हारे पास आता हूँ।
जमाने में कई होंगे मोहब्बत के तराने यूँ,
मगर दिल के तरानों को मैं गीतों में सजाता हूँ।

बड़ी तनहाइयाँ पसरी मगर ये काम तू कर दे।
नहीं कुछ और है यदि तो सभी गम नाम तू कर दे।
जो संभव हो सके न यदि हमारे पास आने की,
ज़माने में मुझे कुछ और फिर बदनाम तू कर दे।

बड़ी कमबख्त यादें हैं मुझे सोने नहीं देतीं।
मिले जो जख्म जीवन में कभी खोने नहीं देतीं।
जाने दुश्मनी है क्या मिरी पलकों की आँसू से,
कि चाहूँ लाख मैं लेकिन मुझे रोने नहीं देतीं।

अपने जज्बातों को अकसर मैं छुपा लेता हूँ।
मिले हर दर्द से यूँ रिश्ता मैं निभा लेता हूँ।
जमाना देख न ले मेरी पलकों के आँसू को,
भींग कर बरसात में मैं आँसू बहा लेता हूँ।



विदेसिया

विदेसिया

दूर भयल देसवा के माटी दूर भयल खरिहानी सब,
दूर भयल सब ताल तलैया राह भयल अनजानी सब।
बाग बगइचा छाँह छूटि गा बचपन वाली राह छूटि गा,
खेल खिलौना छूट गयल सब झूला वाली बाँह छूटि गा।

परदेसी हो गइल जिंदगी परदेसी अब छाँव हो,
दू रोटी को गइल विदेसिया छूटल आपन गाँव हो।

अबहुँ खरिहाने में खटिया रखि के बाबू बैठत होइहैं,
होरहा भूनि-भूनि के माई ओनकर रहिया जोहत होइहैं।
अबहुँ दरवाजे पे कोल्हू ऊखी से रस पेरत होइहैं,
चक्का पे गुड़ नवका देखी लइके अबहुँ खेलत होइहैं।

भूनि-भूनि आलू के भरता और बटुली वाली दाल हो,
दू रोटी को गइल विदेसिया छूटल आपन गाँव हो।

लिट्टी-चोखा सतुआ के सब महक अबहु भी बाकी बा,
पिज़्ज़ा बर्गर नूडल, यहिके आगे सगरो बासी बा।
लाई गट्टा बिना बताशा सब चना चबैना फीका बा,
चौराहे के चाहि बिना ई साँझ यहाँ के फीका बा।

घुघरी अउर जलेबी गुड़ के बाकी बचल अब नाम हो,
दू रोटी को गइल विदेसिया छूटल आपन गाँव हो।

गाँव चलल ब शहर के ओरी राह बहुत अरुझाइल बा,
पगडंडी के पेड़ रुख सब लागत हौ मुरझाइल बा।
नवा दौर में नवा रूप में जिनगी सबक लिपटत बा,
पाथर के जंगल के आगे पेड़ रुख सब सिमटत बा।

जो छूटल पहचान गाँव के रह जाई इहाँ बस नाम हो,
दू रोटी को गइल विदेसिया छूटल आपन गाँव हो।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       08 मई, 2024

गजल- दोस्ताना

गजल- दोस्ताना

तुझसे मिलकर के मैंने ये जाना मेरे दोस्त
बाद मुद्दतों के खुद को पहचाना मेरे दोस्त

एक अरसा हुआ आईना देखे हुए मुझको
तुझे देखा तो आईना भी हुआ दीवाना मेरे दोस्त

अपनी यादों की महक अब भी वहीं बाकी है शायद
फिर सपनों में वहीँ पर हुआ आना-जाना मेरे दोस्त

माना कुछ पल का ही साथ हमारा था उस दिन
पा अपना वो साथ कब हुआ पुराना मेरे दोस्त

अपनी मसरूफ़ियतें हमें फिर मौका दे या न दे
मगर सदा सलामत रहे ये दोस्ताना मेरे दोस्त

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02 मई, 2024

प्रेम का कैसा प्रमाणन

प्रेम का कैसा प्रमाणन

गिनता रहेगा यदि जगत ये, योगफल क्या प्रेम का है,
चुनता रहेगा वृत्तियों में, नेह यदि तो प्रेम क्या है।
होता गणित का बोध बौना, भाव की अनुरागिनी में,
योगफल कोई क्या गिनेगा, प्रेम की मधु यामिनी में।

यदि भाव में अनुबंध है तो, नेह का कैसा प्रवारण।

जो है कथानक छद्म यदि तो, नेह का अस्तित्व कैसा,
कहो आत्मा यदि है अमर तो, देह पर स्वामित्व कैसा।
हो भोर चाहे सांध्य तन की, साँस की सबको जरूरत,
क्या बन सकेगा इस जगत में, साँस का कुछ और पूरक।

यदि साँस से अनुबंध है तो, देह में कैसा प्रमादन।

जो सारथी यदि प्रेम है तो, पार्थ हो तुम स्वयं रथ में,
होगा समर्पित वन सुमन सब, साधना के मौन पथ में।
अहसास के जीवंत पथ का, न और अब प्रमाण होगा,
अब यवनिका के हर पतन पर, इक नया निर्माण होगा।

जब हो समर्पित वन सुमन सब, और जीवन हो पुजारन।
फिर प्रेम का कैसा प्रमाणन, प्रेम का कैसा प्रमाणन।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       30 अप्रैल, 2024


नारी

नारी

नव सपनों की आशाओं की, तुम मौन समर्पण हो नारी,
जीवन के मूल भावना की, तुम असली दर्पण हो नारी।
व्यर्थ याचना से हटकर के, तुम बिना झुके ही रहा करो,
चंचल लहरों सी नदिया की, तुम बिना रुके ही बहा करो।

तुम सृष्टि नियंता हो जग की, तुम ही पालक हो जीवन की,
तुम आशाओं का झुरमुट हो, तुम अभिलाषा हर उपवन की।
तुम छंद युक्त हो गीत मधुर, तुम कविताओं की जननी हो,
हो मानस की तुम चौपाई, तुम वेद ग्रन्थ की सरिणी हो।

खुशियों का तुम हो प्रथम पृष्ठ, तुम उम्मीदों का प्रमुख चित्र,
अनुशीलन हो सब भावों का, तुम ही जीवन का प्रथम मित्र
सूर्योदय से गोधूली तक, तुम चतुर्दिशा में रहती हो,
सब बाधाओं सब विध्नों से, तुम बिना रुके ही बहती हो।

तुम  प्राण वायु इस सृष्टि की, तुम मूल स्रोत हर दृष्टि की,
तुम हो पावस की प्रथम बूँद, और मृदुल रागिनी वृष्टि की।
तुम केंद्र बिंदु हो जीवन के, हर मधुर यामिनी रागों की,
शीतलता का मूल स्रोत हो, इस विकल हृदय की बातों की।

तुम श्रेष्ठ भावना धरती की, तुम मृदुल कामना धरती की,
तुम भावों का हो एक कल्प, तुम श्रेष्ठ प्रार्थना धरती की।
जीवन के हर इक पथ पर तुम, प्रतिपल अबाध गति चला करो,
औरों से मिलने से पहले तुम, अपने मन से मिला करो।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22 अप्रैल, 2024




इस प्रथा को हम नया आयाम दें।

इस प्रथा को हम नया आयाम दें।

देह पत्थर की हुई और जंगल के हुए मन,
आ बदल कर इस प्रथा को हम नया आयाम दें।

पत्थरों के वन उगे हैं हर गली हर मोड़ पर,
दहशतों में जी रहे हैं मस्तियों को छोड़ कर।
दे रही है सांध्य सूरज को सदा चेतावनी,
भीड़ की वीरानियों में ढूँढता मन सावनी।

हीनता हर दृष्टि में क्यूँ खो रहा मन का गगन,
आ बदल कर इस प्रथा को हम नया आयाम दें।

गिर रही हैं टूट कर आज सारी संहितायें,
और धूमिल हो रही हैं जो यहाँ थी पूर्णतायें।
खोजता है हर घड़ी मन अर्थ में आनंद बस,
चाहता आश्वाशनों में लाभ से अनुबंध बस।

संहिता के पृष्ठ पर कंटकों के युग रहे वन,
आ बदल कर इस प्रथा को हम नया आयाम दें।

आ चलें लेकर यहाँ पर सरगमों का गीत हम,
आ लिखें हर पृष्ठ पर अनुबन्धनों की जीत हम।
पर्वतों को फर्क क्या हो भले गहरे अँधेरे,
रोशनी के अंक में पल रहे बादल घनेरे।

सिंह द्वारों पर उगे हैं आज कितने वन सघन,
आ बदल कर इस प्रथा को हम नया आयाम दें।

उत्सवों के द्वार पर नामंजूर है मंगल कलश,
छाँव में आश्वासनों के है मची जब तक कलह।
गढ़ रहा है ये समय स्वार्थ का अहसास कैसा,
उँगलियों को चुभ रहा तंत्र का विश्वास कैसा।

तंत्र के विश्वास को खल रही है कैसी चुभन,
आ बदल कर इस प्रथा को हम नया आयाम दें।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18 अप्रैल, 2024



राही तुम कब आओगे

राही तुम कब आओगे

चौखट पर दो ठहरी आँखें, आँचल का बना बिछौना है,
पूछ रहे हैं कोर नयन के, हे राही तुम कब आओगे।

धरती पर जब आसमान के, चिड़ियों का देखूँ छाया क्रम,
परदों की झुरमुट से उठती, इन आवाजों से होता भ्रम।
कब तक मन को समझायेंगे, हम संदेशों से पाती से,
कब तक मन को बहलायेंगे, हम मधु गीतों से पाखी के।
पूछ रहे सावन के झूले, गीत मिलन के कब गाओगे।।

बरस-बरस दिन बीत रहे हैं, ऋतुओं ने भी करवट बदली,
सूने छत के मुंडेरों से, हँसती बैठ पवन ये पगली।
झड़े हुए पत्तों की खड़-खड़, कब तक मन को भरमायेंगे,
पनघट पर सूनी गागर के, लौट दिवस कब फिर आयेंगे।
पलकों की पनघट के आँसू, कब आकर के सहलाओगे।।

धूप सताती यहाँ छाँह में, अरु शूल चुभे हैं फूलों में,
इस सिलवट से उस सिलवट तक, ये रात कट रही शूलों में।
आँखों से सपने ओझल हैं, ये बैरन रात सताती है,
चन्द्र किरण की चंचल किरणें, बस पल-पल आग लगाती हैं।
धूप सने मन के दलान में, बारिश बनकर कब छाओगे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15 अप्रैल, 2024


ढलने से पहले सांध्य प्रिये तुम आ जाना

ढलने से पहले सांध्य प्रिये तुम आ जाना

क्या बतलाऊँ दीवारों में, कितना सूनापन पसरा है,
क्या बतलाऊँ अँधियारों का, रंग अभी कितना गहरा है।
क्या बतलाऊँ तुम बिन मेरे, घर मे कितना खाली पन है,
क्या बतलाऊँ तुम बिन कितना, इन साँसों में भारीपन है।

मत जाना इतना दूर हृदय से, के टूटे ये ताना-बाना,
ढलने से पहले सांध्य प्रिये तुम आ जाना।।

तुम बिन देगा कौन सहारा, जब दर्द दाह तड़पायेगा,
कौन करेगा दूर तपन को, कौन आह को सहलायेगा।
पलकों के कोरों में गलकर, यूँ बह न जाये दिल की बात,
चौखट पर यादों के बीते, चरण पखारते सारी रात।

धुँधले होने से पहले तुम, इन यादों को सहला जाना,
ढलने से पहले सांध्य प्रिये तुम आ जाना।।

धुंध भरे मौसम में कब तक, गूंजे गीतों की शहनाई,
क्या जाने कब ढल जायेगी, इन बालों की ये कजराई।
क्या जाने कब तक बीतेगी, ये उम्र यहाँ इन पहरों में,
क्या जाने कब बह जायेगी, ये उम्र भँवर, में लहरों में।

गिनी चुनी बाकी घड़ियों में, इन साँसों को बहला जाना,
ढलने से पहले सांध्य प्रिये तुम आ जाना।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       14 अप्रैल, 2024

प्रिय आज सुना दो मधुर गान

प्रिय आज सुना दो मधुर गान

यादों को ताम्रपत्र पे लिख दो, भावों को अमरत्व दिला दो,
अंतस के भित्ति चित्र पे चित्रित, आकृतियों में रंग मिला दो।
मधुर प्रणय की इस बेला में, आ मिले तोड़ सारे बंधन,
उल्लासित मधुमित भावों से, करें सुवासित मन को चंदन।
प्रलय प्रणय की मधु सीमा में, आ रखें इक दूजे का मान,
प्रिय आज सुना दो मधुर गान।।

मन की बंद गली में आकर, भावों को अनुमोदित कर दो,
श्रृंगारित मृदु छंदों से, अंतर्मन को मोहित कर दो।
मन के कोरे भित्ति चित्र पर, प्रणय रंग से रचो अल्पना,
चित के कुंज निलय में आकर, पूरी कर दो सभी कल्पना।
अंतस के निज सूनेपन में, प्रिय हो गुंजित फिर मृदुल तान,
प्रिय आज सुना दो मधुर गान।।

घन बन बरसो आज धरा पर, तप्त हृदय शीतल हो जाये,
चन्द्र रश्मि की मृदु छाया से, सिंचित मन कोमल हो जाये।
प्रलय प्रणय से पुण्य प्रवाहित, ये सारा दामन भर जाये,
जीवन का हो राग सुवासित, सूना मन आँगन भर जाये।
चन्द्र किरण की शीतलता में, हो पूर्ण सभी मन के अनुमान,
प्रिय आज सुना दो मधुर गान

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13 अप्रैल, 2024

गीतों को वरदान

गीतों को वरदान

गीतों के आंदोलित स्वर को, जग में जब सम्मान मिलेगा,
उच्च शिखर आशायें होंगी, गीतों को वरदान मिलेगा।

नयनों के इस आंदोलन में, मुश्किल मन का भाव छुपाना,
बदल रहे इन हालातों में, नामुमकिन है हाल छुपाना।
कब जाने दिल की राहों में, कौन यहाँ किसको मिल जाये,
दिल के पतझड़ में कब जाने, पुष्प कहीं फिर से खिल जाये।

नयनों के आंदोलन को जब, गीतों का अनुदान मिलेगा,
उच्च शिखर आशायें होंगी, गीतों को वरदान मिलेगा।

झुकी हुई तरु की छाया में, जाने कितने पल सिमटे हैं,
उलझी माथे की सिलवट में, अनुभव के धागे लिपटे हैं।
दूर घनेरे अँधियारे जब, राहों से मन को भटकाये,
अवसादों से घिरे गगन में, नाहक ही मन उलझा जाये।

झुके हुए उस तरुवर के जब, अनुभव को सम्मान मिलेगा,
उच्च शिखर आशायें होंगी, गीतों को वरदान मिलेगा।

दरबारी हो गया अगर तो, कविताई का अर्थ नहीं है,
सत्ता को अनुनादित करना, कवि का केवल धर्म नहीं है।
जन गण मन की दिव्य भावना, सत्ता तक पहुँचाना होगा,
सोया है यदि सिंहासन तो, उसको पुनः जगाना होगा।

जनश्रुतियों को कविताओं में, जब मन वांछित स्थान मिलेगा,
उच्च शिखर आशायें होंगी, गीतों को वरदान मिलेगा।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        11 अप्रैल, 2024




अधूरी रही

अधूरी रही

उम्र भर इक कहानी अधूरी रही
बात जो थी सुनानी अधूरी रही

ढूँढता ही रहा साथ वो उम्र भर
पास थी जो निशानी अधूरी रही

चाह दिल में दबी के दबी रह गयी
प्रीत दिल की पुरानी अधूरी रही

स्वप्न पलकों से बोझल हुए इस तरह
रात की रात रानी अधूरी रही

रोटी की दौड़ में उम्र यूँ खो गयी
जो भी आई जवानी अधूरी रही

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08 अप्रैल, 2024

सारी रात बीनते बीती

सारी रात बीनते बीती

छिन्न भिन्न यादों के टुकड़े, सारी रात बीनते बीती

दिन के कोरे तापमान में, संबंधों की कोरी छाया,
झूठे वादे आसमान से, बीता दिवस न कोई आया।
बार-बार अखबार उठाकर, बासी खबरों को दुहराया,
नाम मात्र की सुबह हुई थी, कह-कह कर मन को बहलाया।

बेबस दिन के सूनेपन को, रात-रात भर गिनते बीती।।

ताप वात अनुकूलित घर में, जिंदा मौसम रहा तड़पता,
आधी उमर खोजते बीती, आधी को मन रहा कलपता।
जीवन भर जिस पावदान पे, सारी उम्र रगड़ते बीती,
उसका जर्जर हाल देख कर, सारी रात तड़पते बीती।

पावदान से जर्जर मन को, सारी रात सीलते बीती।

सजे-सजे तोरड़द्वारों से, जीवन भर मन रहा भटकता,
कितने सपने झोली में भर, खूँटी पर मन रहा लटकता।
गिरे अंक से कितने सपने, टूटे कितने ताने-बाने,
लेकिन मन के संधिपत्र पे, हस्तलिखित कितनी मुस्कानें।

संधिपत्र को मुस्कानों से, सारी रात लीपते बीती।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06अप्रैल, 2024

झुर्रियों की जुबानी

झुर्रियों की जुबानी

कच्ची सफेद चादरों में, लिपटी उम्र की है कहानी,
मुस्कुराती झुर्रियाँ ये, कह रहीं जिसको जुबानी।

दूर तक कितने चले हैं, पाँव राहें जानती हैं,
उम्र सी पगडंडियाँ ही, दर्द उसका जानती हैँ।
मौन हँसकर झाँकती थी, उम्र जूतों से जहाँ पर,
हर घड़ी हँसकर छुपाते, धूल से सनकर वहाँ पर।

झाँकती अब भी खड़ी हैं, उँगलियाँ बनकर निशानी,
मुस्कुराती झुर्रियाँ ये, कह रहीं जिसको जुबानी।

हैं थके बाजू न समझो, इनमें अब भी जोर है,
ध्यान से सुन लो जरा, हवा में अब भी शोर है।
नन्हीं-नन्हीं उँगलियाँ जो, झुर्रियों को थामती हैं,
बाजुओं के जोर को, वो ही बस पहचानती हैं।

बैठ काँधों पर ठुमक कर, तय हुई कितनी जवानी,
मुस्कुराती झुर्रियाँ ये, कह रहीं जिसको जुबानी।

कुछ स्वप्न पलकों पर सजाये, नींद कितनी मार दी,
बस जीत बाँटी हर घड़ी, स्वयं केवल हार ली।
एक कपड़े में सिमटकर, स्वप्न को रफ्फू किया है,
रातें सारी जानती हैं, कैसे सपनों को जिया है।

कोर की इन सिलवटों में, हैं छुपीं सारी निशानी,
मुस्कुराती झुर्रियाँ ये, कह रहीं जिसको जुबानी।

हर उम्र की अपनी व्यथा है, इक ओर दूजी छोर है,
उँगलियों से थाम लेना, हल्की बहुत ये डोर है।
कौन जाने किस घड़ी में , छूट जायें ये सहारे,
आसमां का क्या भरोसा, टूट जायें कब सितारे।

मखमली इन सिलवटों में, हैं उम्र की कितनी कहानी,
मुस्कुराती झुर्रियाँ ये, कह रहीं जिसको जुबानी।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03 अप्रैल, 2024

चाँदनी का रूप

चाँदनी का रूप

सांध्य का यदि एक टुकड़ा अंक में जो डाल पाता,
चाँदनी के रूप में मैं काश तुमको ढाल पाता।

पंक्ति को विस्तार देता तोड़ सकता जो सितारे,
छंदों की रश्मियों को माँग मैं भरता तुम्हारे।
काश मैं मधुमित पलों को इन पलों में पाल पाता,
चाँदनी के रूप में मैं काश तुमको ढाल पाता।

काश लिख सकता पलों में मैं सदी की हर कहानी,
काश कह सकता हृदय के भाव आँखों की जुबानी।
काश अंतस के विकल हर भावों को सँभाल पाता,
चाँदनी के रूप में मैं काश तुमको ढाल पाता।

हर निकलता पल हृदय में प्राण का अहसास देता,
शून्यता के हर पलों में नेह का आभास देता।
चाँदनी की रश्मियों को माँग में मैं डाल पाता,
चाँदनी के रूप में मैं काश तुमको ढाल पाता।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03 अप्रैल, 2024

आपके नूर से

आपके नूर से

आपको देख कर आपके नूर से 
लिख रहे हैं गजल आपके नूर से

एक पल में सदी जी लिए उस घड़ी
जिस घड़ी हम मिले आपके नूर से

उम्र अँधियारों में ही भटकती मेरी
राह मुझको मिली आपके नूर से

आशिकी कब यहाँ रास आयी मुझे
चाह जिंदा रही आपके नूर से

दवा की मुझे अब जरूरत नहीं
दर्द ही है दवा आपके नूर से

बंद हैं रास्ते मैकदे के सभी
पी रहे हैं सभी आपके नूर से

" देव " कैसे कहें उम्र ढल जाएगी
उम्र रोशन है जब आपके नूर से

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       30 मार्च, 2024

प्रिय तुम्हारे मृदुल स्वरों में मैंने अपनापन पाया है

प्रिय तुम्हारे मृदुल स्वरों में मैंने अपनापन पाया है

रोमांचित मन प्राण हुआ है, अधरों से अमृत छलका है।
नयनों के स्नेहिल कोरों से, सपनों का मधुरस छलका है।
पुष्पित मन के भाव हुए हैं, दूर हुआ मन का अँधियारा।
गुंजित मन के गीत हुए हैं, या है मीरा का इकतारा।

स्नेहिल गीतों के भावों की, अंतस पर पावन छाया है
प्रिय तुम्हारे मृदुल स्वरों में, मैंने अपनापन पाया है।।

छँटे सभी शंका के बादल, आहों को विश्वास दिया है।
अंतस का हर कोना महका, साँसों ने मधुमास जिया है।
हमने अपने मन के भीतर, है पाया मृदु अहसास प्रिये।
छँटे धुंध के काले साये, है पाया तुमको पास प्रिये।

मेरे मन के हृदयाँगन ने, तुमसे ही गायन पाया है।
प्रिय तुम्हारे मृदुल स्वरों में, मैंने अपनापन पाया है।।

आह्लादित मन उपवन सारा, जब भेजे भँवरों ने प्रस्ताव।
गीतों में आमंत्रण पाकर, सब दूर हुए मन के दुर्भाव।
मेरे मन के रिक्त कोष ने, पाया मधु का भंडार प्रिये।
सूखे पतझड़ के मौसम में, पाया बाहों का हार प्रिये।

पोर-पोर रोमांचित है यूँ, चाहत का सावन आया है।
प्रिय तुम्हारे मृदुल स्वरों में, मैंने अपनापन पाया है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30 मार्च, 2024

लहरों का गीत

लहरों का गीत

जीवन के हर मूल बिंदु पे,
मधुमित सुरभित हो संसार।
झर-झर-झर निर्झर सम पुलकित,
लहरें करतीं हैं मनुहार।

राग अमर भावों में भरती,
भरती मधु घट सा अनुराग।
निशा दीप से जगमग होए,
भींगे दिवस बने मन फाग।
तन उपवन मन कुसुमित होए,
हरषि सुरभि हो मन संसार।

पग-पग पथ जगमग-जगमग हो,
पूर्ण मनोरथ का हो नाद।
सहज भाव आनंदित मन से,
पथ से पथ का हो संवाद।
विजय पंथ में नवजीवन भर,
पथिक पंथ का हो विस्तार।

अश्रु सिंधु से पूजित करता,
देता जीवन को मधु राग।
कंटक पथ भी पुण्य बने तब,
सजे कण्ठ में जब नव राग।
अनुरंजित भावों से सज्जित,
रखती मन वीणा के तार।

मुक्त कंठ से कहती कविता,
देती सपनों का उपहार।
झिलमिल ज्योति पुंज से सिंचित,
करती नयनों का उद्धार।
जीवन का हर पृष्ठ सजाकर,
देती कविता को आधार।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28 मार्च, 2024







गीत पुरानी यादों वाले साथ अभी भी चलते हैं

गीत पुरानी यादों वाले साथ अभी भी चलते हैं

छायावादी गीत अभी तक हृदय पटल पर अंकित हैं,
श्रेष्ठ कल्पना की लहरों से भाव हृदय के सिंचित हैं।
मूर्त अल्पना के विंबों से भाव निखरकर ढलते हैं,
गीत पुरानी यादों वाले साथ अभी भी चलते हैं।

कोमल भावों की मृदुल छुअन अब भी मन ललचाती है,
वनिताओं की मधुर कामना भावों को मदमाती है।
कहीं अनसजे अनुमानों के भाव हृदय में पलते हैं,
गीत पुरानी यादों वाले साथ अभी भी चलते हैं

बदले भाव छंद हैं बदले गीतों ने नवरूप लिया,
आहों से अनुमोदन पाकर साँसों को नवरूप दिया।
मुदित मगन मन मोहित होकर मनुहारों में मिलते हैं,
गीत पुरानी यादों वाले साथ अभी भी चलते हैं

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25 मार्च, 2024

जा रे कागा मेरे मन के गीत पिया तक ले जाओ

जा रे कागा मेरे मन के गीत पिया तक ले जाओ

बीते कितने फाग सुहाने कुछ रंग न मुझको भाया,
नहीं डाकिया आया कोई और न संदेशा आया।
बिन साजन फागुन ना भाये ये जा उनको बतलाओ,
जा रे कागा मेरे मन के गीत पिया तक ले जाओ।

कब तक झूठे सपनों से मैं पलकों का आँगन लीपूँ,
कब तक अंतस के आँगन में मैं रेख पिया के खींचूँ।
खो ना जाये धीरज मन का आ कर के आस जगाओ,
जा रे कागा मेरे मन के गीत पिया तक ले जाओ।

बरसों-बरसों गाँव चले हैं शहर पास ले आने को,
कितने फागुन कितने सावन तरसे साथ मनाने को।
इस फ़ागुन में अपने संग-संग उनको भी ले आओ,
जा रे कागा मेरे मन के गीत पिया तक ले जाओ

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        24 मार्च, 2024

कोर के अश्रु भी मुस्कुराने लगे

कोर के अश्रु भी मुस्कुराने लगे

पीर को जब मिला आसरा नेह का
कोर के अश्रु भी मुस्कुराने लगे।

साँस भी ले न पाती यहाँ जिंदगी,
आस को भी यहाँ सहारा न होता।
घुटती बेचैनियों में हर बन्दगी
उम्मीद का एक इशारा न होता।

आस को जब मिला आसरा नेह का,
नैन के स्वप्न भी मुस्कुराने लगे।

तोड़ पनघट किनारे लहर मुड़ गयी,
नाव मँझधार में राह तकने लगी।
बीच पतवार ने जब सहारा दिया,
तेज मँझधार में नाव चलने लगी।

नाँव को जब मिला आस पतवार का,
तेज मँझधार भी साथ आने लगे।

समय के अंक से मौन पल जब गिरा,
सदियों तक रास्ते छटपटाते रहे।
राह को जब मिला दीप का आसरा,
दूर तक दीप से जगमगाते रहे।

रात को जब मिला आसरा दीप का,
दूर जो राह थे पास आने लगे।
पीर को जब मिला आसरा नेह का
कोर के अश्रु भी मुस्कुराने लगे।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       19 मार्च, 2024
        

छले जा रहे हैं

 छले जा रहे हैं

झूठी मोहब्बत का अहसास झूठा उजाले ही अब तो छले जा रहे हैं
करें क्या शिकायत गैरों की बोलो अपनों के हाथों छले जा रहे हैं

बुझा दो चिराग ए मोहब्बत दिलों से कि  इनकी किसी को जरूरत नहीं है
फरेबी उजालों ने ऐसा छला है के देखा जिधर दिलजले जा रहे हैं

ये मुहब्बत हमें रास आयी नहीं या इस राह के हम ही काबिल नहीं थे
कि गुजरे मोहब्बत की जब भी गली से धोखे ही दिल को मिले जा रहे हैं

प्याले उन्हीं को यहाँ रास आते कि मय से मोहब्बत जिन्हें हो गयी हो
प्याले को पूजा रही प्यास जब तक फेंक फिर " देव " देखो चले जा रहे हैं

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17 मार्च, 2024



नेह की अभिव्यक्तियाँ

नेह की अभिव्यक्तियाँ

शब्द के अनुरोध को सब आज भूली पँक्तियाँ
हाय करे क्या काम आये जब न कोई युक्तियाँ

आज रोया आसमां भी हाल सारा देखकर
दूर आँचल से धरा के जब हो रहीं थीं वृत्तियाँ

क्या कहूँ है कौन रिश्ता दरमियाँ दो जिंदगी के
हो रही हों क्षीड मन की जब वो सारी शुद्धियाँ

आज दीवारें भी छिपकर बात सुनती हैं यहाँ पर
दूर मन से जब हुईं हैं विश्वास की प्रवृत्तियाँ

पेड़ की उस शाख से अब " देव " रिश्ता क्या टुटेगा
धमनियों में बह रही जब नेह की अभिव्यक्तियाँ

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       16 मार्च, 2024

गीत ये गुमसुम रहें ना आ चलो हम गुनगुनाएं।

गीत ये गुमसुम रहें ना आ चलो हम गुनगुनाएं

है हवा का गीत मद्धम चाँदनी शरमा रही है,
रात के अनुरोध पर गीत मधुमित गा रही है।
अलगनी पे एक टुकड़ा साँझ का घबरा रहा है,
बादलों के बीच छिपता सूर्य मद्धम गा रहा है।

सांध्य के अनुरोध पर चाँदनी का रथ सजायें
गीत ये गुमसुम रहें ना आ चलो हम गुनगुनाएं।

दूर सपनों के नगर में एक हलचल सी मची है,
आस का आँगन खिला है भावों पे मेहँदी रची है।
सज रहे हैं कामनाओं के सुहाने पुष्प पल-पल,
और अधरों पर मचलते अहसास के गीत हर पल।

कामनाओं के नगर में आ चलो हम दूर जायें,
गीत ये गुमसुम रहें ना आ चलो हम गुनगुनाएं।

कौन जाने किस घड़ी में सांध्य जीवन की ढलेगी,
कौन जाने किस सफर के राह को मंजिल मिलेगी।
उम्मीद का ये सांध्य तारा कर रहा हमको इशारा,
छोड़ दें अब प्रश्न सारे कौन जीता कौन हारा।

नेह का आधार लिख कर जुगनुओं सा जगमगाएं,
गीत ये गुमसुम रहें ना आ चलो हम गुनगुनाएं।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       15 मार्च, 2024

मधुऋतु का गीत

मधुऋतु का गीत

ये मधुऋतु का गीत अधर पर
साथी तुमसे ही पाया हूँ।

बँधा हुआ था अब तक जीवन
पतझड़ के कंटक तारों से।
व्याप रहा चँहुओर कुहासा,
धुन्ध घनेरे व्यवहारों से।

मुक्त नहीं थे गीत हृदय के,
सब खोई-खोई आशा थी।
रहा अचेतन जीवन कल तक,
अरु सुप्त सभी अभिलाषा थी।

अभिलाषा के गीत अधर पर,
साथी तुमसे ही पाया हूँ।

खोये-खोये गीत सभी थे,
अधरों पर कैसा पहरा था।
फूल-फूल के हृदय पटल पर,
आहों का छाया कुहरा था।

दूर-दूर तक अँधियारे थे,
सब खोई-खोई राहें थीं।
रुँधे-रुँधे थे भाव हृदय के,
सब दबी कण्ठ में आहें थीं।

आहों का अनुरोध अधर पर,
साथी तुमसे ही पाया हूँ।

ऋतुएँ मदमाती मन को,
दूर गगन में ले जाती थीं।
चंदा तारों के आँगन में,
मधुऋतु के गीत सजाती थीं।

उन गीतों के केंद्र बिंदु में,
दबी कहीं मन की आशा थी।
उम्मीदों के उच्च शिखर पर,
मधुऋतु की इक अभिलाषा थी।

मधुऋतु का ये भाव हृदय में,
साथी तुमसे ही पाया हूँ।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       11 मार्च, 2024


चला जाऊँगा

चला जाऊँगा

न होगा तेरी पलकों को मेरा इंतजार चला जाऊँगा।
जब न रहेगा बीच हमारे कोई इकरार  चला जाऊँगा।
एक भरोसे की डोर ही तो थी जिसने बाँध रखी थी हमें,
अब जो भरोसे में ही पड़ गयी है दरार चला जाऊँगा।




गीतों में गुणगान

गीतों में गुणगान

सत्य से लग कर गले, जो जिंदगी को तार दे
सांध्य के अंतिम पलों का, गीत जो स्वीकार ले
शून्यता में गूँजते हों, हर घड़ी गान जिसका
रश्मियाँ न करें क्यूँ, गीतों में गुणगान उसका।

दूर इस गोधूलि में, एक आकृति जो दिख रही 
सूर्य के अवसान का, वो गीत देखो लिख रही
इस दिवस के अंत में, गूँजता सम्मान जिसका
रश्मियाँ न करें क्यूँ, गीतों में गुणगान उसका।

सत्य को जिसने जिया, दी है साँसों को निशानी
और पदचाप जिसके, हैं लिखे पल-पल कहानी
पंथ के हर भाव में, सौम्य था अनुमान जिसका
रश्मियाँ न करें क्यूँ, गीतों में गुणगान उसका।

अश्रु भी जिसके पलक में, मौन हो हँसते रहे
आह भी जिसके अधर पर, गीत बन सजते रहे
अश्रु के सम्मान में, भी रहा अहसान जिसका
रश्मियाँ न करें क्यूँ, गीतों में गुणगान उसका।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09 मार्च, 2024

एक संत की अंतिम यात्रा

एक संत की अंतिम यात्रा

देह की अंतिम अवस्था का गीत मैं न खोज पाया
लिख रहा हूँ गीत कब से आज तक न जान पाया
व्याकरण थे मौन सारे भावों का वो अंत था
सांध्य के अंतिम पलों में जो गया वो संत था

उम्र जिसके द्वारा पर जब तक रही हँसती रही
देह की अंतिम अवस्था शून्य से कहती रही
है चला वो शून्य में सब मोह से कर के किनारा
लिख जिंदगी का पृष्ठ अंतिम मृत्यु को देने सहारा
शून्य के अंतिम शिखर पर जिंदगी का अंत था
सांध्य के अंतिम पलों में जो गया वो संत था

गंग की निर्मल लहर ज्यूँ कर रही जिसकी प्रतीक्षा
अंक में रख शीश अपना सो गया कर पूर्ण इच्छा
देवताओं के नगर में आज कुछ हलचल रहेगी
आगमन ऐसा हुआ है रश्मियाँ सब कुछ कहेंगी
गंग की निर्मल लहर का प्रभाव वो अंनत था
सांध्य के अंतिम पलों में जो गया वो संत था

सत्य है ये अंत है बस देह की मन की नहीं
आत्मा तो मुक्त है तन से कब बँध कर रही
यादों में हरपल रहेंगी मौन स्मृतियाँ हमेशा
और गीतों में सजेंगी शब्दों की कलियाँ हमेशा
बनके फिर नवयुग सजेगा न कहो के अंत था
सांध्य के अंतिम पलों में जो गया वो संत था

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       08 मार्च, 2024

मौन लेखनी-क्यूँ

मौन लेखनी-क्यूँ

आवाज आ रही है कैसी मचान से
बदले हुए हालात हैं हिंदुस्तान के
अश्रु बह रहे हैं आज बागबान के
संस्कार बदले हैं आज नौजवान के
बिक रहा जमीर संस्कार दांव पे
पाँव भी झुलस रहे हैं आज छाँव से
शब्द के प्रभाव का सम्मान खो रहा
भावनाओं के समर में वीर सो रहा
स्वयं से ही पूछता है स्वयं कौन है
कोई कहे लेखनी क्यूँ आज मौन है।

सत्ता केंद्रबिंदु राजनीति स्वार्थ की
बातें झूठी हो रही सब परमार्थ की
इस बगल से उस बगल झाँकते सभी
पद, लोभ, मोह को ही ताकते सभी
कौन जाने ऊँट किस करवट पे बैठेगा
सत्ता के प्रभाव से दुर्बल भी ऐंठेगा
इतिहास है गवाह ऐसी कामनाओं की
सुध नहीं रही किसी के भावनाओं की
इतिहासों के पृष्ठों को लिखा जो कौन है
कोई कहे लेखनी क्यूँ आज मौन है।

बदल रही सदी में व्यवहार खो रहा
झूठ के प्रभाव से सत्यकाम रो रहा
बिक रही जमीन आसमान बिक रहा
जाने क्यूँ जमीर बेलगाम बिक रहा
अर्थ के प्रभाव से हृदय मचल रहा
लोभ, मोह, लालसा में फिसल रहा
दूरियों से रिश्तों के आकार बदलते
आपसी सद्भाव के व्यवहार बदलते
रिश्ते सभी पूछते पहचान कौन है
कोई कहे लेखनी क्यूँ आज मौन है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03 मार्च, 2024

नैन तेरे द्वार को ही तक रहे हैं

नैन तेरे द्वार को ही तक रहे हैं

ये कटीले शूल अब तक पुष्प का अहसास देते,
क्या अभी तक नैन तेरे द्वार को ही तक रहे हैं।

हैं हवायें शुष्क लेकिन कहीं कुछ इनमें नमी है,
उष्णता से हैं भरे पथ पर कहीं कुछ तो नमी है,
बदलियाँ सागर किनारे नेह का आभास देते,
क्या अभी तक बदलियों को नैन तेरे तक रहे हैं।

पुष्प की है पंखुरी अब स्वयं खिलती जा रही है,
थी खुली जो लट अभी तक उँगलियाँ सुलझा रही हैं,
नैन में काजल निखर कर कोर को आवाज देते,
क्या अभी तक नैन तेरे कोर को ही तक रहे हैं।

है कहीं कुछ बात ऐसी सांध्य भी शरमा रही है,
बदलियों की ओट में अब चाँदनी शरमा रही है,
चाँदनी की रश्मियाँ भी प्रेम को अनुप्रास देतीं,
क्या अभी तक नैन तेरे चाँदनी को तक रहे हैं।

दूरियाँ नजदीकियों में आज परिवर्तित हुई हैं,
मधुमास की तारिकाएँ स्वयं अनुबंधित हुई हैं,
पंथ के जो शूल थे सब पुष्प का अहसास देते,
क्या अभी तक नैन तेरे द्वार को ही तक रहे हैं।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01 मार्च, 2024

रेल हमारी

रेल हमारी

नदिया लहरें खेत पहाड़ी
इनसे गुजरे रेल हमारी।

ले छोटी सी आशा मन में,
मुस्कानों को ओढ़ लिया है।
जंगल झाड़ी और सुरंगें,
पर्वत रस्ते मोड़ लिया है।

छुक-छुक करती भाव लुभाती,
गाँव-गाँव से अपनी यारी।
नदिया लहरें खेत पहाड़ी
इनसे गुजरे रेल हमारी।

लाखों सपने लिए साथ में,
नित-नित उम्मीदें गढ़ते हैं।
हर आने जाने वालों के,
मन के भावों को पढ़ते हैं।

हर रिश्तों से नेह हमारा,
अपनी सबसे रिश्तेदारी।
नदिया लहरें खेत पहाड़ी
इनसे गुजरे रेल हमारी।

हमने भारत के कण-कण को,
सदियों से खिलते देखा है।
जीवन रेखा हम भारत के,
हर सपना पलते देखा है।

भारत की आशाओं में है,
अपनी थोड़ी हिस्सेदारी।
नदिया लहरें खेत पहाड़ी
इनसे गुजरे रेल हमारी।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       29 फरवरी, 2024

डाकिया जब खबर दे गया

डाकिया जब खबर दे गया

दूर पगडंडियाँ गीत गाती रहीं,
रात भर दीपिका टिमटिमाती रही।
द्वार पर नींद से नैन उलझे रहे,
कोर की बूँद में मौन उलझे रहे।

रात के मौन को वो सहर दे गया,
डाकिया जब सुबह ये खबर दे गया।

आस की बूँदों में पाती भिंगोकर,
नैन ने देखा फिर सपना सँजोकर।
देख पाती हृदय ये मचलता रहा,
थी कहीं इक तपिश मन पिघलता रहा।

नेह की पंक्तियों को लहर दे गया,
डाकिया जब सुबह ये खबर दे गया।

खुली पाती चेहरा दिखाई दिया,
पंक्ति में भाव मन के सुनाई दिया।
दूरियों से नजर डबडबाती रही,
आस की तितलियाँ मन लुभाती रही।

आस को इक नई वो प्रहर दे गया,
डाकिया जब सुबह ये खबर दे गया।

दूरियाँ जो रहीं आज मिटने लगीं,
धुंध की बदलियाँ आज छँटने लगीं।
मन मिलन का नया गीत गाने लगा,
ऋतु पतझड़ में मधुमास छाने लगा।

शांत मन की नदी को लहर दे गया,
डाकिया जब सुबह ये खबर दे गया।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      28 फरवरी, 2024

मिल के सब निभाना

मिल के सब निभाना

आ जी लें जिंदगी को किस पल का क्या ठिकाना,
सुख-दुख ये जिंदगी है इसे मिल के सब निभाना।

हमने काट ली है आधी सदी यहाँ पर,
कौन जाने कितनी है बाकी यहाँ पर।
अब आसमान पूरा तुम्हारे वास्ते है,
ध्यान से तो देखो कितने रास्ते हैं।

इन रास्तों के संग-संग रिश्ते सभी निभाना
सुख-दुख ये जिंदगी है इसे मिल के सब निभाना।

बीती उस सदी में माना कमी रही थी,
तंग जेब कारण कोई कमी कहीं थी।
पल आने वाला सारे सपने नए सजाएं,
फूलों के रास्ते हों खुशियों से जगमगाएं।

पर बीते उन पलों का न नेह तुम भुलाना,
सुख-दुख ये जिंदगी है इसे मिल के सब निभाना।

जो गीत लिख रहा हूँ सब भाव हैं हमारे,
है आशीष ये हमारा के पथ सदा सँवारे।
मुश्किलें भी हों गर तो तुम विचल न जाना,
हो कैसा भी प्रलोभन तुम मचल न जाना।

तुम जीतने से पहले न हार मान जाना
सुख-दुख ये जिंदगी है इसे मिल के सब निभाना।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       28 फरवरी, 2024

रात होती रही

रात होती रही

रात भर तारों से बात होती रही
चाँद चलता रहा रात होती रही

किए अँधेरों ने यूँ तो लाखों जतन
शमा जलती रही रात होती रही

दर्द सिलवट का दिल ये भुला न सका
रात भर ऐसी बरसात होती रही

कैसे कह दूँ के हम तुम मिले ही नहीं
जब ख्यालों में मुलाकात होती रही

देव यादों ने दिल पे यूँ कब्जा किया
रात भर हिचकियों में बात होती रही

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        24 फरवरी, 2024



शायरी

शायरी

मलाल है मुझको तेरे यूँ रूठ जाने का,
करूँ क्या जतन ऐ दिल तुझे मनाने का।

मेरी आँखों मे जो ये थोड़ी सी नमी है,
कहीं अब भी इस दिल में तेरी कमी है।

ये जो है दर्द का टुकड़ा ये जीने को जरूरी है,
वरना कौन है इतना जो मुझे प्यार यूँ करता।

नजर ये फेरते हैं जो मेरे आने के बाद,
करेंगे याद रो-रो कर मेरे जाने के बाद।

भला ऐसे भी कोई दूर जाता है क्या
जैसे आते हो तुम कोई याद आता है क्या

मुझे कहते थे जो बेवफा हो गया हूँ
वही राह में छोड़ मुझे चल दिये

दुनिया में कोई कब हमेशा रहा है,
जाना तो है हम सभी को यहाँ से।
पर जैसे गये तुम हमें छोड़ कर,
ऐसे भी कहो कोई जाता है क्या।

चले जाना ज़रा ठहरो अभी कुछ बात बाकी है,
सितारों ने सजाई है जो सारी रात बाकी है।

महफ़िल में तेरी कभी यूँ भी आयेंगे
हम न होंगे पर लम्हे गुनगुनायेंगे

ये अंदाजे बयां बहुत दिलकशी है
मगर चाहता दिल जिसे तुम नही हो

ऐसा नहीं प्यार मुझको नहीं है
मगर अब तलक ये जताना न आया

जिंदगी क़ा सफ़र यूँ सुहाना बहुत है
मगर ये सफर इतना आसान कब था

जंग है जिंदगी तुम लड़ो तो सही
मुश्किलें हैं तो क्या तुम बढ़ो तो सही

मुश्किलों से यहाँ रार क्या ठानना
जीतने तक यहाँ हार क्या मानना

बिन कहे पलकों से वो सब कह दिए
और कहते हैं कि उनको कहना न आया

जिंदगी कब किसी को कहाँ रोकती है।
उम्र की सिलवटें भी कहाँ टोकती है।
गर हौसला हो दिल में करे कुछ नया,
मुश्किलें कब किसी को यहाँ रोकती हैं।

साथ चल न सके जो जुदा हो गये
मोहब्बत के अब वो खुदा हो गये

रात भर चाँद से बात होती रही
तेरे ख़याल ने मुझे सोने न दिया

कैसे मानूँ के मैं याद आता नहीं
इन आँखों ने कह दी कहानी सभी

मुझसे नजरें चुरा कर भले चल दिये
आईना देखिएगा जरा सोच के

कुछ है बाकी निशानी मेरे प्यार की
बेसबब आईना तुमने चूमा न होता

रात भर हिचकियों ने सताया मुझे
और कहते हैं मैं याद आता नहीं

याद करना ही मोहब्बत की निशानी नहीं 
भूल जाना भी मोहब्बत हुआ करती देव

भूल जाना किसी को बड़ी बात नहीं है देव
फिर याद न आना बड़ी बात हुआ करती है

कौन कहता है कि अब हम उन्हें याद नहीं हैं
कमबख्त हिचकियाँ आज भी सोने नहीं देती

जिंदगी एक दिन तू भी ये मान लेगी
मेरी शख्शियत क्या है पहचान लेगी

हर पल मंजिलों पे नजर रखता हूँ
ऐ जिंदगी हर रोज सफ़र करता हूँ

खुद ही बोले खुद ही खफा हो गये
और कहते हैं हम बेवफा हो गये

अब तो तन्हाईयाँ भी सताती नहीं
तेरी रुसवाईयाँ रास आने लगीं

जिन्हें मेरी परछाइयाँ भी गँवारा नहीं
उम्र भर दुश्मनी क्या निभायेंगे वो

जीवन के अँधियारे में रोशनी की आस हैं दोस्त,
बेचैनियों में भी इस दिल के सबसे पास हैं दोस्त।
मुश्किल हालात में जब कुछ भी नहीं सूझता दिल को,
आँख का अश्रु, अधरों की हँसी, मौन जज्बात हैं दोस्त।

जिस गली से गये वो मुझे छोड़ कर
ले चली जिंदगी फिर उसी मोड़ पर

गुनाहों की फेहरिस्त में एक गुनाह और जोड़ आया हूँ,
उन्हें भरी महफ़िल में तन्हा छोड़ आया हूँ।

बड़े अजीब रंग हैं यहाँ जमाने के,
बहाने ढूँढते हैं लोग दिल जलाने के।

जागेंगे कब तलक हम यूँ ही रात भर
ए सितारों चलो रात को ओढ़ लें

चल दिये छोड़ कर मुझको तन्हा यहाँ
ये न सोचा कि तुम बिन जियें किस तरह

फूलों से नाजुक मेरा दिल ये था
जाने क्यूँ राह तुमने चुनी काँटों की

ये दर्द ही है जिसने अकेला होने न दिया
वर्ना जमाने में कौन इतना सगा होता है

क्या करूँ कोई शिकायत क्या तुम्हें इल्जाम दूँ
दोष था अपना कि तुमको मान बैठे हम खुदा

लिख सका न गीत कोई लाख जतन दिल ने किए
थी जाने क्या अपनी खता जो शब्द सारे रूठ गये

ऐ सितारों आ मिलें हम उस सुहाने मोड़ पर
क्या पता कोई कहानी मोड़ पर अब भी खड़ी हो

माना तेरी नजरों में मैं बस एक फसाना रह गया
शुक्र है इतना कि अब भी याद है मेरी कहानी

चाँद के संग रात भर हम भी सफर करते रहे
पटरियों पर रेल सी यूँ जिंदगी चलती रही

जब से गुजरे हैं हम उनकी गली से
खुद से भी हम अजनबी हो गये हैं

कैसे कह दूँ कि मैखाने में आ के कुछ पाया नहीं
ये साकी ये पैमाना जैसा कोई हमसाया नहीं

तेरी यादों की खुशबू से महकने लगे
बिन पिये ही कदम ये बहकने लगे

तेरे दिए दर्द को हम पिये जा रहे हैं
जिंदगी हँसकर तुझे हम जिये जा रहे हैं

तेरे सिवा मुझको कोई भाता नहीं है
सच तो ये है कोई नजर आता नहीं है

ये न समझो हमेशा यूँ तन्हा रहा हूँ
कभी जिंदगी का तेरे एक लम्हा रहा हूँ

उम्र की सिलवटें भाने लगी हैं
तेरी चाहतें रास आने लगी हैं

दूर जाना था तो पास आये ही क्यूँ
जो था मुमकिन नहीं गीत गाये ही क्यूँ

खुशियों में तुम्हारी मुस्कुराना चाहता हूँ।
तुम्हारे दर्द में ऑंसू बहाना चाहता हूँ।
थक गया हूँ मैं जमाने में दिखावे से,
सब कुछ छोड़ कर मैं पास आना चाहता हूँ।

बिन तेरे आँसुओं को पिये जा रहे हैं
एक अधूरा सा जीवन जिये जा रहे हैं

कैसे लिख दूँ मैं तेरे बिना जिंदगी
मेरी साँसों के हर तार में तू ही तू

✍️अजय कुमार पाण्डेय

अजनबी

अजनबी

दो कदम साथ जब हम चले ही नहीं,
कहें कैसे कि हम अजनबी हो गये।
साथ हम तुम कभी जब रहे ही नहीं,
कहें कैसे कि हम अजनबी हो गये।

दूर तुम भी रहे दूर हम भी रहे,
एक हसरत दिलों में दबी रह गयी।
रेल की पटरी संग चले साथ पर,
चाह दिल में मिलन की दबी रह गयी।

मिलन जब हमारा हुआ ही नहीं,
कहें कैसे कि हम अजनबी हो गये।

कर सके न वफ़ा अपने दिल से कभी,
चाहतों को सदा हम छुपाते रहे।
बात थी जो दिलों में नहीं कह सके,
हसरतों को सदा हम दबाते रहे।

हसरतें जब मिलन की दबी रह गयी,
कहें कैसे कि हम अजनबी हो गये।

एक अहसास से हम बँधे जब यहाँ,
कहें कैसे कि हम जानते ही नहीं।
इक कसक सी दिलों में दबी थी कहीं,
कहें कैसे कि पहचानते ही नहीं।

है कहीं कुछ कसक हम छुपाते रहे
कहें कैसे कि हम अजनबी हो गये।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22 फरवरी, 2024

आँसू- जीवन है ताना बाना

आँसू- जीवन है ताना बाना

1
कुछ कहना चुप हो जाना 
पलकों से सब कह जाना 
कुछ खोना कुछ है पाना 
जीवन है ताना-बाना।

कुछ रुक रुक कर के चलना 
फिर मिलना और बिछड़ना 
ठोकर खा-खाकर गिरना 
गिर-गिर कर और सँभलना। 

फिर गीतों मे ढल जाना 
बिन कहे बहुत कह जाना 
हँस- हँस कर सब अपनाना
जीवन है ताना-बाना। 

2
निज मन ये पुण्य पथिक है
चलता, रुकता न तनिक है
अभिलाषाओं का जगना
पलकों पर उनका सजना।

वो रात-रात भर जगना
नींदों से स्वयं उलझना
मन बहलाने की करवट
वो खिली माथ की सिलवट

सिलवट में भाव छुपाना
आँसू यदि, तो पी जाना
फिर से नव स्वप्न सजाना
जीवन है ताना-बाना।

3
कब जीवन रहा सरल है
पग-पग पे भरा गरल है
कभी नीलकंठ बना है
विष पीकर स्वयं तना है।

मन कितना क्रंदन करता
या जीता या फिर मरता
तब मन खुद की है सुनता
आँसू में जीवन बुनता।

ले बीती पीर पुरानी
तब लिखता नई कहानी
फिर स्वयं पात्र बन जाना
जीवन है ताना-बाना।

4
करुणा के मौन पलों में
झर-झर नयनों से बहती
अधरों पे मौन भले हो
आँसू हर पीड़ा कहती

सब बीती-बीती बातें
नयनों की सूनी रातें
जब-जब स्मृतियाँ तड़पातीं
तब-तब मन को समझातीं।

नयनों की अगन बुझाती
कुछ सुनती कुछ कह जाती
आहों से नेह जताना
जीवन है ताना-बाना।

5
मन गंगा से निर्मल था
सपनों में नीलकमल था
पल-पल ये दृश्य बनाता
मन ही मन उसे सजाता।

चुनता पग-पग के कंटक
वो पथ के सारे झंझट
फिर देता नई निशानी
कुछ अनजानी पहचानी।

जब उसको कुछ मिल जाता
मन ही मन वो खिल जाता
अंतस में नेह जताना
जीवन है ताना-बाना।

6
मन सुख को मौन तरसता
दुख आँसू बनकर झरता
इस कोमल हृदय कमल में
अलकों के मौन निलय में।

आँसू आयी बहलाने
घन पीड़ा को सहलाने
जो कह न सकी वो कहने
मन की पीड़ा को हरने।

देने को मौन दिलासा
बन कर छोटी सी आशा
फिर-फिर मन को समझाना
जीवन है ताना-बाना।

7

पलकों ने मौन पुकारा
आँसू ने दिया सहारा
दिल के छाले सहलाये
पल-पल मन को बहलाये।

आहों को दिया सहारा
साँसों ने जहाँ पुकारा
क्या करता मौन अकिंचन
कोरों से आये छन-छन।

आहों को पुनः मनाने
सपनों का पंथ सजाने
पलकों में फिर सज जाना
जीवन है ताना बाना।

©️✍️अजय कुमार पांडेय 
        हैदराबाद 
       19 फरवरी, 2024




जज्बात नहीं

जज्बात नहीं

बदल गए कितने ही मौसम बदले पर हालात नहीं
कागज़ की कश्ती झुलस गई आयी पर बरसात नहीं

सूनी आँखें तरस गयीं चौखट को तकते-तकते
पाती के संदेशों में अब पहली वाली बात नहीं

अबके शायद मन भी तरसे भींगी-भींगी रातों में
भींगी-भींगी रातों में अब पहले से जज्बात नहीं

रातों ने हर रोज सजायी सपनों की बारातों को
लेकिन जो सपने दे जाए आती क्यूँ वो रात नहीं

दो वक्त की रोटी को दूर शहर तक आ पहुँचे
माँ तेरी बासी रोटी सी इस रोटी में बात नहीं

दूर शहर तक चली जा रही पगडंडी धीरे-धीरे
पगडंडी का मोल चुका लें इतनी भी औकात नहीं

कितने सपने झुलस रहे हैं रोज बरसते वादों से
महज खोखले इन वादों से बदलेंगे हालात नहीं

बाजारू जब हुई व्यवस्था महँगे सब रिश्ते-नाते
देव दरकते रिश्तों में अब पहले से जज्बात नहीं

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      18 फरवरी, 2024

राम वनगमन व दशरथ विलाप

राम वनगमन व दशरथ विलाप माता के मन में स्वार्थ का एक बीज कहीं से पनप गया। युवराज बनेंगे रघुवर सुन माता का माथा ठनक गया।।1।। जब स्वार्थ हृदय म...