विदेसिया

विदेसिया

दूर भयल देसवा के माटी दूर भयल खरिहानी सब,
दूर भयल सब ताल तलैया राह भयल अनजानी सब।
बाग बगइचा छाँह छूटि गा बचपन वाली राह छूटि गा,
खेल खिलौना छूट गयल सब झूला वाली बाँह छूटि गा।

परदेसी हो गइल जिंदगी परदेसी अब छाँव हो,
दू रोटी को गइल विदेसिया छूटल आपन गाँव हो।

अबहुँ खरिहाने में खटिया रखि के बाबू बैठत होइहैं,
होरहा भूनि-भूनि के माई ओनकर रहिया जोहत होइहैं।
अबहुँ दरवाजे पे कोल्हू ऊखी से रस पेरत होइहैं,
चक्का पे गुड़ नवका देखी लइके अबहुँ खेलत होइहैं।

भूनि-भूनि आलू के भरता और बटुली वाली दाल हो,
दू रोटी को गइल विदेसिया छूटल आपन गाँव हो।

लिट्टी-चोखा सतुआ के सब महक अबहु भी बाकी बा,
पिज़्ज़ा बर्गर नूडल, यहिके आगे सगरो बासी बा।
लाई गट्टा बिना बताशा सब चना चबैना फीका बा,
चौराहे के चाहि बिना ई साँझ यहाँ के फीका बा।

घुघरी अउर जलेबी गुड़ के बाकी बचल अब नाम हो,
दू रोटी को गइल विदेसिया छूटल आपन गाँव हो।

गाँव चलल ब शहर के ओरी राह बहुत अरुझाइल बा,
पगडंडी के पेड़ रुख सब लागत हौ मुरझाइल बा।
नवा दौर में नवा रूप में जिनगी सबक लिपटत बा,
पाथर के जंगल के आगे पेड़ रुख सब सिमटत बा।

जो छूटल पहचान गाँव के रह जाई इहाँ बस नाम हो,
दू रोटी को गइल विदेसिया छूटल आपन गाँव हो।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       08 मई, 2024

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