अपनी नाव उतारी है

अपनी नाँव उतारी है

कितनी कश्ती आशाओं की, लहरों में उलझी जाती,
फिर भी हमने तूफानों में, अपनी नाव उतारी है।

हार-जीत के अनुमानों से, आशंकित मन की राहें,
लेकिन आलिंगन में लेने, को आतुर मन की बाहें।
हार-जीत के सम्मोहन में, नींदें भी उलझी जातीं,
फिर भी हमने तूफानों में, अपनी नाव उतारी है।

जीवन के इस कुरुक्षेत्र में, सपनों के सब अनुयायी,
कुछ सपने जीवंत हुए हैं, कुछ पानी की परछाईं।
लेकिन सपनों के चौसर पर, नींदें भी उलझी जातीं,
फिर भी हमने तूफानों में, अपनी नाव उतारी है।

लिखा रेख में जो जीवन के, चाहा टाल नहीं पाया,
पग-पग कितने जतन किये पर, मन का हाल नहीं पाया।
पग तल जितने राह चले हैं, मंजिल दूर हुई जातीं,
फिर भी हमने तूफानों में, अपनी नाव उतारी है।

नीलकंठ बनना चाहा पर, अंतस शुद्ध न हो पाया,
जीत गया जीवन कलिंग पर, मन ये बुद्ध न हो पाया।
इच्छाओं के महा जलधि में, चाहे कितनी बलखाती,
फिर भी हमने तूफानों में, अपनी नाव उतारी है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12जुलाई, 2024

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