कैसे कह दूँ मैं कहो कि आज सब सुलझा हुआ है
क्या पथिक भटका हुआ है, या समझ आयी न माया।
मन बदलती भावनाओं मध्य क्यूँ उलझा हुआ है,
कैसे कह दूँ मैं कहो कि आज सब सुलझा हुआ है।
मन वचन अरु कर्म सारे बिंदु पर सिमटे हुए हैं,
ज्वाल बनकर याचनाएं गात से लिपटे हुए हैं।
मिट रही है चाह प्रति पल क्यूँ संग की व्यवहार की,
मर रही है आस पल-पल क्यूँ मौन मन मनुहार की।
मन नित नए जंजाल के मध्य में उलझा हुआ है,
कैसे कह दूँ मैं कहो कि आज सब सुलझा हुआ है।
बोध क्या मन को नहीं है नृत-अनृत का क्लिष्ट अंतर,
या कहीं उलझा हुआ है शून्यता में आत्म अंतर।
हो रही जब से घनेरी स्वार्थ में अंधी ये रात,
है यही भय आत्मा पर जाने कैसा हो आघात।
नृत-अनृत के मध्य में जब क्लान्त मन उलझा हुआ है,
कैसे कह दूँ मैं कहो कि आज सब सुलझा हुआ है।
इस नियति से पूछ सकते काश मन के प्रश्न सारे,
दूर शायद हो सकें तब इस हृदय के कष्ट सारे।
जब करेगी लेखनी ये सत्य का सम्मान पथ पर,
तब गढेगी ज़िंदगी ये नित नया प्रतिमान पथ पर।
लेखनी का शब्द जब तक लोभ में उलझा हुआ है,
कैसे कह दूँ मैं कहो कि आज सब सुलझा हुआ है।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
26 मई, 2024
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