चीख

चीख दब कर रह गयी क्या बेबसी की मार से,
या बँधी है जोर से या जुल्म से तलवार से।
वेदना का ये समर अब सहा जाता नहीं है,
दर्द मैं कैसे लिखूँ कुछ लिखा जाता नहीं है।

साँझ का वो धुँधलका और पुरवा थी सुहानी,
चल रही चाँदनी और खिल रही थी रातरानी।
एक मद्धम सी लहर हौले-हौले छू रही थी,
खेलती मस्त होकर मन का अंचल छू रही थी।

था अभी पूरा प्रहर ये तो बस शुरुआत थी,
लेख में विधना के पर वो तो अंतिम रात थी।
रौंद डाले स्वप्न सारे तेज इक रफ्तार ने,
कर दिए सब मौन सपने क्रूर के उस वार ने।

चीख दब कर रह गयी क्या जाने कैसे शोर में,
वक्त अब शायद नहीं है क्या कलम के जोर में।
बंद होकर रह न जाये पृष्ठ में बनकर कहानी,
लेखनी कुछ धार दे दो कह सके सच को जुबानी।

यूँ लिखो इस दर्द को कि बेध दे सबका हृदय,
मुक्त कर दो सत्य को या झूठ में कर दो विलय।
है विवश क्यूँ सत्य इतना अब सहा जाता नहीं,
दर्द मैं कैसे लिखूँ कुछ लिखा जाता नहीं है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01 जून, 2024

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