मधुऋतु का गीत
साथी तुमसे ही पाया हूँ।
बँधा हुआ था अब तक जीवन
पतझड़ के कंटक तारों से।
व्याप रहा चँहुओर कुहासा,
धुन्ध घनेरे व्यवहारों से।
मुक्त नहीं थे गीत हृदय के,
सब खोई-खोई आशा थी।
रहा अचेतन जीवन कल तक,
अरु सुप्त सभी अभिलाषा थी।
अभिलाषा के गीत अधर पर,
साथी तुमसे ही पाया हूँ।
खोये-खोये गीत सभी थे,
अधरों पर कैसा पहरा था।
फूल-फूल के हृदय पटल पर,
आहों का छाया कुहरा था।
दूर-दूर तक अँधियारे थे,
सब खोई-खोई राहें थीं।
रुँधे-रुँधे थे भाव हृदय के,
सब दबी कण्ठ में आहें थीं।
आहों का अनुरोध अधर पर,
साथी तुमसे ही पाया हूँ।
ऋतुएँ मदमाती मन को,
दूर गगन में ले जाती थीं।
चंदा तारों के आँगन में,
मधुऋतु के गीत सजाती थीं।
उन गीतों के केंद्र बिंदु में,
दबी कहीं मन की आशा थी।
उम्मीदों के उच्च शिखर पर,
मधुऋतु की इक अभिलाषा थी।
मधुऋतु का ये भाव हृदय में,
साथी तुमसे ही पाया हूँ।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
11 मार्च, 2024
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