एक बेरि आ जाइता गाँव

एक बेरि आ जाइता गाँव

बरिस-बरिस बीतल, अँखिया झुराइल, अउर छूटल ई पिपरा के छाँव हो।
हे विदेसिया, एक बेरि आ जाइता गाँव हो,
एक बेरि आ जाइता गाँव।

संगी छूटल, साथी छूटल, छूटल खेल-खिलौना, 
गली, मुहल्ला, आँगन छूटल, छूटल खाट-बिछौना।
छूट गयल माथे पे थपकी, जबसे, छूटल अँचरा के छाँव हो,
एक बेरि आ जाइता गाँव हो, एक बेरि आ जाइता गाँव।

हर आहट पे मनवा भागे, पुरवइया तड़पाये, 
ई चंदा के शीतल किरणें तन में आग लगाये।
पहर-पहर मुश्किल हौ बीतल, अब तारन की छाँव हो,
एक बेरि आ जाइता गाँव हो, एक बेरि आ जाइता गाँव।

ताल-तलैया पगडंडी सब, हर पल राह निहारे,
घर के सूनी-सूनी चौखट, घुट-घुट तोहें पुकारे।
बिन तोहरे ई जीवन लागे, लहर में भटकत नांव हो,
एक बेरि आ जाइता गाँव हो, एक बेरि आ जाइता गाँव।

केतनी बीत गइल ई जिनगी, बाकी जितनी बाटे,
पल-पल बरस-बरस लागत हौ, कइसे इहके काटे।
साँझ ढले से पहिले आ के, खतम करा अलगाव हो,
एक बेरि आ जाइता गाँव हो, एक बेरि आ जाइता गाँव।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        19 जून, 2024

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