इस प्रथा को हम नया आयाम दें।

इस प्रथा को हम नया आयाम दें।

देह पत्थर की हुई और जंगल के हुए मन,
आ बदल कर इस प्रथा को हम नया आयाम दें।

पत्थरों के वन उगे हैं हर गली हर मोड़ पर,
दहशतों में जी रहे हैं मस्तियों को छोड़ कर।
दे रही है सांध्य सूरज को सदा चेतावनी,
भीड़ की वीरानियों में ढूँढता मन सावनी।

हीनता हर दृष्टि में क्यूँ खो रहा मन का गगन,
आ बदल कर इस प्रथा को हम नया आयाम दें।

गिर रही हैं टूट कर आज सारी संहितायें,
और धूमिल हो रही हैं जो यहाँ थी पूर्णतायें।
खोजता है हर घड़ी मन अर्थ में आनंद बस,
चाहता आश्वाशनों में लाभ से अनुबंध बस।

संहिता के पृष्ठ पर कंटकों के युग रहे वन,
आ बदल कर इस प्रथा को हम नया आयाम दें।

आ चलें लेकर यहाँ पर सरगमों का गीत हम,
आ लिखें हर पृष्ठ पर अनुबन्धनों की जीत हम।
पर्वतों को फर्क क्या हो भले गहरे अँधेरे,
रोशनी के अंक में पल रहे बादल घनेरे।

सिंह द्वारों पर उगे हैं आज कितने वन सघन,
आ बदल कर इस प्रथा को हम नया आयाम दें।

उत्सवों के द्वार पर नामंजूर है मंगल कलश,
छाँव में आश्वासनों के है मची जब तक कलह।
गढ़ रहा है ये समय स्वार्थ का अहसास कैसा,
उँगलियों को चुभ रहा तंत्र का विश्वास कैसा।

तंत्र के विश्वास को खल रही है कैसी चुभन,
आ बदल कर इस प्रथा को हम नया आयाम दें।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18 अप्रैल, 2024



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