चल रही धरती गगन अरु चल रही पुरवा सुहानी,
चल रहे हैं चांद तारे खिल रही है रात रानी।
जब प्रकृति गीत सुंदर मन में हो फिर क्षोभ कैसा,
रुक गए जो पंथ में तो ज्ञान का फिर बोध कैसा।
है वही जीवन समर्पित स्वयं की जो भूल समझे,
पंथ के हर कंटकों को पंथ का ही फूल समझे।
जो विकल हो कंटकों से पंथ पर फिर क्रोध कैसा,
रुक गए जो पंथ में तो ज्ञान का फिर बोध कैसा।
दे रहे यदि पुष्प जग को स्वयं फिर अधिकार कैसा,
स्वार्थ पोषित पंक्तियों में सत्य का प्रतिकार कैसा।
जो मिथक है ये जगत तो सत्य पर अवरोध कैसा,
रुक गए जो पंथ में तो ज्ञान का फिर बोध कैसा।
हैं सभी की भावनाएं और सबकी जिंदगानी,
लिख रहे हैं पंक्तियों में पृष्ठ पर अपनी कहानी।
यदि कथानक क्षुब्ध है तो अन्य से अनुरोध कैसा,
रुक गए जो पंथ में तो ज्ञान का फिर बोध कैसा।
प्रात किरणें नित हृदय में चेतना संचार करतीं,
पल्लवित नव आस देतीं क्षोभ का निस्तार करतीं।
भोर है जब हर निशा का रात्रि फिर गतिरोध कैसा,
रुक गए जो पंथ में तो ज्ञान का फिर बोध कैसा।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
27 मई, 2024
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