झुर्रियों की जुबानी
मुस्कुराती झुर्रियाँ ये, कह रहीं जिसको जुबानी।
दूर तक कितने चले हैं, पाँव राहें जानती हैं,
उम्र सी पगडंडियाँ ही, दर्द उसका जानती हैँ।
मौन हँसकर झाँकती थी, उम्र जूतों से जहाँ पर,
हर घड़ी हँसकर छुपाते, धूल से सनकर वहाँ पर।
झाँकती अब भी खड़ी हैं, उँगलियाँ बनकर निशानी,
मुस्कुराती झुर्रियाँ ये, कह रहीं जिसको जुबानी।
हैं थके बाजू न समझो, इनमें अब भी जोर है,
ध्यान से सुन लो जरा, हवा में अब भी शोर है।
नन्हीं-नन्हीं उँगलियाँ जो, झुर्रियों को थामती हैं,
बाजुओं के जोर को, वो ही बस पहचानती हैं।
बैठ काँधों पर ठुमक कर, तय हुई कितनी जवानी,
मुस्कुराती झुर्रियाँ ये, कह रहीं जिसको जुबानी।
कुछ स्वप्न पलकों पर सजाये, नींद कितनी मार दी,
बस जीत बाँटी हर घड़ी, स्वयं केवल हार ली।
एक कपड़े में सिमटकर, स्वप्न को रफ्फू किया है,
रातें सारी जानती हैं, कैसे सपनों को जिया है।
कोर की इन सिलवटों में, हैं छुपीं सारी निशानी,
मुस्कुराती झुर्रियाँ ये, कह रहीं जिसको जुबानी।
हर उम्र की अपनी व्यथा है, इक ओर दूजी छोर है,
उँगलियों से थाम लेना, हल्की बहुत ये डोर है।
कौन जाने किस घड़ी में , छूट जायें ये सहारे,
आसमां का क्या भरोसा, टूट जायें कब सितारे।
मखमली इन सिलवटों में, हैं उम्र की कितनी कहानी,
मुस्कुराती झुर्रियाँ ये, कह रहीं जिसको जुबानी।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
03 अप्रैल, 2024
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