जज्बात नहीं
कागज़ की कश्ती झुलस गई आयी पर बरसात नहीं
सूनी आँखें तरस गयीं चौखट को तकते-तकते
पाती के संदेशों में अब पहली वाली बात नहीं
अबके शायद मन भी तरसे भींगी-भींगी रातों में
भींगी-भींगी रातों में अब पहले से जज्बात नहीं
रातों ने हर रोज सजायी सपनों की बारातों को
लेकिन जो सपने दे जाए आती क्यूँ वो रात नहीं
दो वक्त की रोटी को दूर शहर तक आ पहुँचे
माँ तेरी बासी रोटी सी इस रोटी में बात नहीं
दूर शहर तक चली जा रही पगडंडी धीरे-धीरे
पगडंडी का मोल चुका लें इतनी भी औकात नहीं
कितने सपने झुलस रहे हैं रोज बरसते वादों से
महज खोखले इन वादों से बदलेंगे हालात नहीं
बाजारू जब हुई व्यवस्था महँगे सब रिश्ते-नाते
देव दरकते रिश्तों में अब पहले से जज्बात नहीं
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
18 फरवरी, 2024
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