नैन तेरे द्वार को ही तक रहे हैं
क्या अभी तक नैन तेरे द्वार को ही तक रहे हैं।
हैं हवायें शुष्क लेकिन कहीं कुछ इनमें नमी है,
उष्णता से हैं भरे पथ पर कहीं कुछ तो नमी है,
बदलियाँ सागर किनारे नेह का आभास देते,
क्या अभी तक बदलियों को नैन तेरे तक रहे हैं।
पुष्प की है पंखुरी अब स्वयं खिलती जा रही है,
थी खुली जो लट अभी तक उँगलियाँ सुलझा रही हैं,
नैन में काजल निखर कर कोर को आवाज देते,
क्या अभी तक नैन तेरे कोर को ही तक रहे हैं।
है कहीं कुछ बात ऐसी सांध्य भी शरमा रही है,
बदलियों की ओट में अब चाँदनी शरमा रही है,
चाँदनी की रश्मियाँ भी प्रेम को अनुप्रास देतीं,
क्या अभी तक नैन तेरे चाँदनी को तक रहे हैं।
दूरियाँ नजदीकियों में आज परिवर्तित हुई हैं,
मधुमास की तारिकाएँ स्वयं अनुबंधित हुई हैं,
पंथ के जो शूल थे सब पुष्प का अहसास देते,
क्या अभी तक नैन तेरे द्वार को ही तक रहे हैं।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
01 मार्च, 2024
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