राष्ट्र प्रथम।

     राष्ट्र प्रथम। 

हार जीत का ये अंतर
आज है कुछ कह रहे
सोच औ राहें मुड़ी हैं
अभिव्यंजनाएँ ढह रहे।

है चल रही ऐसी पवन
के राह निश्चित दिख रही
औ भविष्य के बर्ताव की
परिमाण' भी अब लिख रही।

सोचिये अब आज हमसे
चूक कैसी हो रही है
हर घड़ी मन प्राण से अब
भूल कैसी हो रही है।

वर्जनाओं तक को हमने
विजय से आज जोड़ रखा
नैतिकताओं को हमने
ताखों" पर है छोड़ रखा।

परचम धर्म और जाति का
चहुँओर बस लहरा रहा 
राष्ट्रहित का भाव भी अब
क्या गौण होता जा रहा।

वक्त रहते आज हमको
चिंतन यहाँ करना होगा
हिंदुस्तान के पर्याय का 
रक्षण यहाँ करना होगा।

एक सूत्र एक भाव का
सिद्धांत केवल राष्ट्र है
जो प्रगति को मोक्ष दे वो
वृद्धान्त"' केवल राष्ट्र है।।

 ' परिमाण- मापन
" ताखों- दीवार में कुछ रखने हेतु बनाई गई जगह
"' वृद्धान्त- प्रतिष्ठा करने योग्य 

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
     हैदराबाद
     12नवंबर,2020


मैं चला हूँ।

  मैं चला हूँ।   

आज जग के ताप को
मैं मिटाने को चला हूँ
बंधनों औ रोक को
मैं हटाने को चला हूँ।

आज नूतन भाव ले
सुर सजाने को चला हूँ
और अपने गीत से
उर रिझाने को चला हूँ।

है सफर मुश्किल मगर
आज तय करने चला हूँ
हार हो या जीत हो
स्वीकारने मैं चला हूँ।

प्यार, करुणा औ दया
का यहाँ पारावार है
रण ये पुण्य पंथ का
जो भी मिले स्वीकार है।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       11नवंबर, 2020

वेदनाओं का समर।



खुद का खुद से संवाद-अंतर्द्वंद

वेदनाओं का समर।  

वेदनाओं के समर में
मौन मैं चुपचाप ठहरा
और मेरे होंठ पर भी
वर्जनाओं का है पहरा।

उस तरफ हैं लोग अपने
द्वंद जिनसे हो रहा है
मोह, माया से ग्रसित हो
मन विकल सा हो रहा है।

आज उनके वार का मैं
कैसे करूंगा सामना
अपमान के प्रतिकार में
मुश्किल है शस्त्र थामना।

सत्य-असत्य के समर में
सब तर्क गुंफित हो चले हैं
अर्थ ही जब प्रश्न बन गए
पर्याय कुंठित हो चले हैं।

इस समर में आज अपनी
तू भूमिका स्वीकार कर
त्याग सारे मौन अपने
बस सत्य खातिर वार कर।

अब कौन किसका है यहाँ
वक्त का न इससे वास्ता
इस समर का पार्थ है तू
चुन अपना खुद तू रास्ता।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय 
     हैदराबाद 
     11नवंबर, 2020

जीवन जीना सीख लिया।

जीवन जीना सीख लिया। 

नव पल्लव को शाखों पर
हमने खिलते देखा है
कलियों औ फूलों को भी
अकसर मिलते देखा है।

रश्मि भोर की किरणों से
कुहरा छँटते देखा है
नव प्रभात के शंखनाद से
अँधियारा मिटते देखा है।

नदियों को उद्गम स्थल पर
कल कल चलते देखा है
औ सांझ ढले बेला में
सागर से मिलते देखा है।

अकसर फूलों को हमने
शाखों से गिरते देखा है
और कभी पंखुड़ियों को
फूलों से झरते देखा है।

बसंत ऋतु के आते ही
सारा उपवन खिल जाता है
लेकिन पतझड़ के मौसम में
उनका भी उजड़न देखा है।

मिलना और बिछड़ना दोनों
जीवन की मजबूरी है
पास रहें या दूर रहें हम
आपस में प्रेम जरूरी है।

आंखों का आंसू से अपने
कितना सुंदर नाता है
लेकिन अवसादों के क्षण में
उनका बिछड़न देखा है।

छोटी-छोटी खुशियों में हम
जब इक दूजे से जुड़ते हैं
कोई कैसी राह चले पर
सब इक दूजे से जुड़ते हैं।

जीवन के इस मौसम को
जिसने भी हँसकर देख लिया
उसने ही बस जीवन समझा
औ उसको जीना सीख लिया।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय 
      हैदराबाद 
      11नवंबर, 2020

कविताओं का सम्मान।

कविताओं का सम्मान। 

मैंने अपनी कविताओं में
जीवन का सम्मान किया
सामाजिक मुद्दों पर बोला
समरसता पर मान किया।

कविताएं वो साधन हैं जो
दिल की बातें कहती हैं
मन की सारी पीड़ाओं को
पन्नों पर वो लिखती हैं।

उर में जब भी उठी वेदना
कविताओं ने दिया सहारा
होने लगी जहां सुप्त चेतना
तब गीतों ने दिया सहारा।

जब लोगों ने ताने मारे
कविताएं तारनहार बनीं
छोड़ चले मँझधार में सभी
कविताएं खेवनहार बनीं।

लिए कलम हाथों में मैंने
जब जब दरपन देखा है
मन में नव अहसास जगा है
मरुधर भी खिलते देखा है।

इसके हर बंधों में मैंने
नूतन जीवन पाया है
कदम कदम जो बढ़ीं पंक्तियां
खिलता उपवन पाया है।

जीवन की कविताओं में भी
मैंने कांटों का मान किया
उठी कलम हाथों में जब भी
जीवन का गुणगान किया।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       11नवंबर, 2020

मनमीत।

          मनमीत।  

तुमको मनमीत बनाने को
मैने नवगीत सजाया है
मैंने गीतों में छंदों में
बस तुमको ही पाया है।

है खिला-खिला जीवन अपना
तुम जबसे इसमें आन बसे
सांसों की हर सरगम में
बस तेरे ही अरमान बसे।

तुझसे शुरू हुआ ये जीवन
अब तुझपे ही खत्म करूं
आये जाए कोई मौसम
एक बस मैं तुझको ही जियूँ।

तुमसे ही है चाँद सितारे
तुमसे जीवन की बगिया
तुम ही धरती तुम ही अंबर
तुमसे हैं मेरी खुशियाँ।

जाना जीवन मधुरिम कितना
जबसे तुमसे मेल हुआ
सच कहता हूँ मिलकर तुमसे
जीवन ये परिपूर्ण हुआ।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06नवंबर,2020





पुकार।



पुकार।               

भारत माता के हाथों में
जाने कैसी रेखा है
जब भी देखा है इसको
दो-दो भारत देखा है।

चमक-दमक के पीछे इक भागे
दूजी सीधी राह चले
एक चली है दरबारों में
दूजी बस फुटपाथ चले।

कहीं शब्द की गहराई है
और कहीं है हलकापन
कहीं स्वार्थ की परछाईं है
और कहीं है अपनापन।

कहीं विचारों की टकराहट
और कहीं दीवानापन
कभी किसी से प्रेम निखरता
और कभी बेगानापन।

अवसरवादी राजनीति की
पल पल झलक दिखाती है
मुंह में राम बगल में छूरी
फिर भी खुद पर इतराती है।

शहरों के रस्तों ने अकसर
पगडंडी को घेरा है
गांव शहर की ओर चला पर
शहरों ने मुंह फेरा है।

लोकतंत्र के पैमानों पर
वादों के कितने फ़ेरे हैं
सत्ता के आमद की खातिर
जनता पर कितने घेरे हैं।

इक भारत वादा करता है
दूजा उसकी बाट जोहता
एक इशारा करता जब भी
दूजा उसकी थाह टोहता।

एक चले है अपनी धुन में
दूजा पाँव सँभल कर रखता
एक भरा है चकाचौंध से
दूजा राह सँभल कर चलता।

दोनों के इस अंतर को
आखिर कब तक सहना होगा
पगडंडी के सब वादों को
पूरा अब करना होगा।

वरना इस अंतर की खाई
और यहाँ जो बढ़ जाएगी
अपनी ही छवि धूमिल होगी
मान प्रतिष्ठा खो जाएगी।

लोकतंत्र के सरोकार का
मान यहां  करना होगा
संविधान की प्रस्तावना का
सम्मान यहां करना होगा।।

 
 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय 
        हैदराबाद 
        03नवंबर, 2020

कशमकश।

   कशमकश।   

मौन उदासी चेहरे की
कितना कुछ कह जाती है
जिन बातों का मोल नहीं
उन सबको सह जाती है।

कितनी ही खामोश व्यथाएँ
मन में लेकर चलते है
अपने सारे भाव छुपाते
हँसकर सबसे मिलते है।

सब दर्द छुपाते चेहरों के
घाव मगर सब गहरे हैं
कहना चाहे कितना कुछ पर
होठों पर ही पहरे हैं।

कितने सागर डूब गए 
आंखों की अँगड़ाई से
फिर क्यूँ हम पछताते हैं
अपनी ही परछाईं से।

कदम कदम पर ताने कितने
औ कितने हैं धोखे खाये
मजाक सहे हैं जज्बातों के
कितने अपने हुए पराए।

चाहे कितने तूफां आये
लेकिन आस कभी ना छोड़ी
कितनी ही बाधाएं झेलीं
पर उम्मीद कभी ना तोड़ी।

जीवन के घने थपेड़ों ने
बस इतना सिखलाया है
रात अँधेरी भले घनेरी
पर सूरज दिखलाया है।

देख प्रलोभन जीवन पथ में
कभी नहीं झुक जाना तुम
औ घबराकर बाधाओं से
कभी नहीं रुक जाना तुम।

हार-जीत जीवन के पहलू
इनसे मिलकर रहना है
जिसने इन भावों को समझा
ताज उसी ने पहना है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       02नवंबर,2020







नदी और समंदर का संवाद।

नदी और समंदर का संवाद।


माना तुम हो घना समंदर
मैं नदिया की इक धारा
माना तुम हो स्थिर, शांत, विरल
मैं चंचल उश्रृंखल धारा।

कितने ही तूफान समेटे
अपने भीतर रहते हो
चुपचाप देखते हो सबकुछ
ना सुनते ना कहते हो।

चाहे कैसा भी हो मौसम
सबका तुमसे है यारा।
माना तुम हो घना समंदर
मैं चंचल उश्रृंखल धारा।।

दुनिया भर के महाद्वीप के
तट से मिलते रहते हो
पर अपनी ही नदियों से
टुकड़ों में तुम मिलते हो।

तुमसे जब इतनी उम्मीदें
तब जल तेरा  क्यूं खारा।
माना तुम हो घना समंदर
मैं नदिया की उश्रृंखल धारा।।

राहों के कंकर पत्थर को
हमने भी राह दिखाई है
सूखी बंजर धरती पर भी
हमने फसलें  लहराई है।

हर मौसम से लड़कर हमने
तुमको दिया सहारा है।
माना तुम हो घना समंदर
मैं नदिया की उश्रृंखल धारा।।

मत इतना अभिमान करो
तुम अपनी इस स्थिरता से
कितने सागर सूख गए हैं
मौसम की अस्थिरता से।

मत भूलो हर मौसम में
हमने ही है तुम्हें संवारा ।
माना तुम हो घना समंदर
मैं नदिया की उश्रृंखल धारा।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
     हैदराबाद
     01नवंबर, 2020

आफताब हो जाऊं।

   आफताब हो जाऊं।    

कभी जो तुम बनो गुलाब तो मैं किताब हो जाऊं
तुम्हें पाकर के पन्नों में आबताब हो जाऊं।

चाहत और नहीं कोई मुझे फिर इस ज़माने से
यही कि तुमसे मिल जाऊं औ आफताब हो जाऊं।

तुम पर ही समर्पित है मेरी सांसें मेरी धड़कन
तुम्हारा जो इशारा हो मैं महताब हो जाऊं।

चाहा है औ गाया है मैंने तुमको गजलों में
तुम्हारा साथ मिल जाये मैं आबाद हो जाऊं।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
     02नवंबर,202





नीलकंठ बनना होगा।

 नीलकंठ बनना होगा।


बहुत किया मधुपान अभी तक

विष तुझको भी पीना होगा

मुश्किल हो ये जीवन कितना

हंसकर इसको जीना होगा। 


माना तुमने  रसपान किया

अबतक भरपूर जवानी का

माना तू प्रतीक बना रहा 

अगणित प्रेम कहानी का।


मगर नए इन हालातों को

तुझको आज समझना होगा।

बहुत किया मधुपान अभी तक

विष तुझको भी पीना होगा।।


इतना कब आसान रहा है

जीवन का मरम समझ पाना

पाप-पुण्य की सीमाओं को

इतना आसान समझ जाना।


पाप-पुण्य की गहराई को

फिर से आज समझना होगा।

बहुत किया मधुपान अभी तक

विष तुझको भी पीना होगा।।


जीवन भर मधुपान किया पर

स्वाद कभी भी समझ न पाया

विष की एक घूंट पीते ही

मधु का मरम समझ में आया।


जीवन की सब कटुताओं पे

पैबंद लगा सीना होगा।

बहुत किया मधुपान अभी तक

विष तुझको भी पीना होगा।।


जीवन की ये सच्चाई है

विष-मधु दोनों साथ मिले

एक हाथ ने थामा मधु को

औ दूजे में विष लिए चले।


कुछ भी मुश्किल नहीं रहेगा

बस नीलकंठ बनना होगा।

बहुत किया मधुपान अभी तक

विष तुझको भी पीना होगा।।


 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय

       हैदराबाद

       29अक्टूबर,2020

पाप-पुण्य।

       पाप-पुण्य।   

क्या पाप है औ पुण्य क्या
ये वक्त हमसे पूछता है
हर घड़ी इंसान क्यूँ कर
इस वार से ही जूझता है।

दो घड़ी को साथ चलना
आज मुश्किल लग रहा है
पर अकेली राह चलना
आज सबको खल रहा है।

हर कोई एक दूसरे की 
ओर देखे जा रहा है
कौन आखिर में उठेगा
मौन सोचे जा रहा है।

सत्य की आवाज मन में 
कहीं घुटी  जो रह गयी
मान लेना सांस जीवन की
वहीं थमी सी रह गयी।

जीवन ये मंचन है सारा
पाप-पुण्य दो पात्र यहां
सबकी डोरी हाथ बंधी है
मानव निमित्त मात्र यहां।

इस विषाद के सारे क्षण से
आज हमें उठना होगा
पाप-पुण्य के मंथन का
मोह हमें त्यजना होगा।

कर्म प्रधान इस दुनिया में
कर्मों का आलिंगन कर
अमृत सा अधरों पर रखो
और शिखरों का चिंतन कर।

जीवन के शुभ आंगन को
अपने उद्दवेलित न करना
अपने कर्मयोग के बल पर
सुंदर सा जीवन रचना।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29अक्टूबर,2020



पुकार।

        पुकार।  

वेद पुराण सभी ग्रन्थों में 
नारी को सम्मान मिला
ना जाने फिर भी क्यूँ इनको
हर युग में अपमान मिला।

तब नारी को आजादी थी
वो अपना आकाश चुनें
अपने उम्मीदों की खातिर
खुद अपना विश्वास चुनें।

फिर क्यूँ कदम कदम पर उनके
पैरों में इतनी बेड़ी है
पग पग पर अपमान यहां क्यूँ
राहों में कैसी मेंड़ी है।

उन पर अत्याचारों से
आकाश नहीं क्यूँ फट जाता
धरती क्यूँ खामोश पड़ी 
फिर सीना क्यूँ ना फट जाता।

सीता माता की खातिर 
धरती ने प्रतिकार किया
आज मगर सीताओं पर
कुंठाओं ने वार किया।

पुतले रावण के जलते हैं
हर बरस यहां चौराहों पे
पर नहीं यहां सुरक्षित नारी
क्यूँ चौकों चौराहों पे।

कहीं चली है गोली देखो
टूट रही कहीं मर्यादा है
कभी सुलगती दरवाजों में
औ चीख यहां पर ज्यादा है।

नैतिकता क्या भीष्म बन चुकी
क्या अब भी दिल नहीं पिघलता
सैरंध्री के अपमानों पर
कान्हा का मन नहीं मचलता।

आखिर कब तक अपमानों का
बोझा संस्कृतियां ढोएंगी
कितने दिन तक और अभी
ये धरती माता रोएंगी।

अब तो चेतो दुनिया वालों
वरना ऐसा दिन आएगा
रोयेगी जब सृष्टि सारी
चैन नहीं फिर मिल पायेगा।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      28अक्टूबर,2020












मजदूर की इच्छा।

एक प्रयास , बस यूं ही-


*मजदूर की इच्छा।*      

तंग गली का जीवन मेरा
तुम महलों के वासी हो।
हम धरती पर रहने वाले
तुम देवलोक निवासी हो।। 

तिनका तिनका जोड़ रहा हूँ
खुद को खुद में खोज रहा हूँ
खाऊं और बिछाऊं क्या
मन ही मन ये सोच रहा हूँ।

जी करता है मैं भी बोलूँ
पर यायावर वनवासी हूँ।
तंग गली का जीवन मेरा
तुम महलों के वासी हो।।

राह अकेले चलते देखा
भूख-प्यास को मरते देखा
इच्छाओं को जीवन में
पल पल रंग बदलते देखा।

नहीं चाहता धन औ दौलत
खुशियों का अभिलाषी हूँ।
तंग गली का जीवन मेरा
तुम महलों के वासी हो।।

मेरे दिन तेरी रातों में
बस इतना सा अंतर है
तुझे उजाला देने को
हमने पिया समंदर है।

इस अंतर के कई मायने
पर थोड़ा सा ध्यान धरो
मानव को मानव समझो
मानवता का सम्मान करो।

रंग लहू का एक यहां जब
फिर क्यूँ यहां उबासी है।
तंग गली का जीवन मेरा
तुम महलों के वासी हो।।

 *✍️©️अजय कुमार पाण्डेय* 
       *हैदराबाद* 
       *26अक्टूबर,2020*

बदलाव।

         बदलाव।   


कैसी ये आँधी चली कैसा अब ये दौर है
जिस तरफ भी देखिए बस शोर ही शोर है।
हर तरफ धोखाधड़ी या बाहुबल का जोर है
क्षितिज अब दिखता नहीं, दिखता न कोई छोर है।
हर तरफ आरोप औ चालाकियाँ है दिख रहे
क्यूँ ये लगता काल भी नादानियाँ हैं लिख रहे।
कदम कदम पे चोट है लहर लहर में घाव है
दरख्तों की भीड़, पर मिलती न कोई छांव है।
हर दिलों में आज क्यूँ बारूद जैसा पल रहा
इंसान क्यूँ इंसानियत के वजूद को छल रहा।
पद, प्रतिष्ठा, मान का संज्ञान छूटा जा रहा
लग रहा जैसे कोई स्वाभिमान लूटा जा रहा।
लोभ, मोह, स्वार्थ का अब बोलबाला हो रहा
सत्यकाम, सत्य का अकेले झोला ढो रहा।
संवाद का आपस में लगता अब न कोई मोल है
हर तरफ अवसाद दिखता और दिखता झोल है।
हे कलम कुछ ऐसा लिख बदलाव फिर से आ सके
डूबती कश्ती को जो फिर से  किनारे ला सके।
हर दिलों में प्रेम पनपे, हर किसी का मान हो
सद्भाव के पुष्प महके, राष्ट्र का सम्मान हो।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      26अक्टूबर,2020




कुछ मालूम नहीं।



   कुछ मालूम नहीं।

निकल पड़ा हूँ राह अकेले
मंजिल क्या मालूम नहीं
जायेगी तकदीर कहाँ तक
कुछ मुझको मालूम नहीं।

कहाँ मिलेगा प्यार न जानूँ
और कहाँ दुत्कार न जानूँ
कहां मिलेगा ठौर ठिकाना
और कहां सत्कार न जानूँ।

धूप मिले राहों में चाहे
या मिले मुझे छांव कहीं
कहीं प्रेम की हों बरसातें
या उजड़ी हो रात कहीं।

पीछे मुड़कर ना देखूंगा
रुसवाई मंजूर नहीं।
आज चला हूँ राह अकेले
मंजिल क्या मालूम नहीं।।

तुम कैसे सब कुछ भूल गए
क्या तुमको कुछ याद नहीं
कैसे याद दिलाऊं तुमको
जाती अब फरियाद नहीं।

जब मेरी बातों का तुमको
साथ यहां मंजूर नहीं।
निकल पड़ा फिर राह अकेले
मंजिल क्या मालूम नहीं।।

कहीं कभी जब याद सताए
खुद से बातें करना तुम
याद दिलाना सारी बातें
खुद कहना खुद सुनना तुम।

विश्वास नहीं तुमको मुझपर
जब मुझसे कोई नेह नहीं।
निकल पड़ा फिर राह अकेले
मंजिल क्या मालूम नहीं।।

तुम्हे मुबारक जीवन सारा
सारी खुशियां औ सौगातें
मेरा क्या है, मैं सह लूंगा
ताने जग के औ आघातें।

फिर से तेरी रुसवाई हो
मुझको अब मंजूर नहीं।
निकल पड़ा फिर राह अकेले
मंजिल क्या मालूम नहीं।।
✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      25अक्टूबर,2020

माँ का दरबार।

   माँ का दरबार।   

दूर बसाइउ आपन डेरा, 
दरसन कइसे पाइब माँ
पग पग पर ठोकर लागे है,
द्वारे कइसे आइब मां।।

हम बालक नादान अही औ
तू ही अहू दुलारी मइया
हमके अपने चरण बुलावा 
तू भक्तन के प्यारी मइया।।

तोहार नेह, आशीष इहाँ 
अब हमहूँ कइसे पाइब माँ।
दूर बसाइउ आपन डेरा
दरसन कइसे पाइब माँ।।

धूप, दीप औ बाती लइके
बारी आपन जोहत बानी
अड़हुल फूल हाथ में लइके
ध्यान तिहारे खोवल बानी।

हम बालक नादान अही 
कइसे गुहार लगाइब माँ।
दूर बसाइउ आपन डेरा
दरसन कइसे पाइब माँ।।

संकट हमरो दूर करा माँ
गलती सारी क्षमा करा
आपन नेह दिखावा मइया
यहि बालक पर दया करा।

हम पर भी आशीष करा माँ
कइसे भेंट चढ़ाइब माँ।
दूर बसाइउ आपन डेरा
दरसन कइसे पाइब माँ।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       25अक्टूबर,2020

विजयादशमी- आवाहन।




विजयादशमी- आवाहन।         


आओ फिर कण कण में देखो पूण्य बेला खो रही

ढल रही है दीप्ति सारी धवल किरण है खो रही।

आज दिनकर भी धरा पर शांत है अब हो रहा

चांदनी  का  नेह  शीतल  जाने  कैसे  खो रहा।


प्रभु राम क्या तुमको हमारी याद अब आती नहीं

या हमारी प्रार्थना अब तुमतक पहुंच पाती नहीं।

हो गयी क्या भूल हमसे जो धरा को भूल गए

या यहां के त्रास में वो अहसास सारे भूल गए।


है नहीं अब और कोई ना ही कोई आस है

अंधड़ों का दौर दिखता, न दिख रहा प्रभात है।

आज हर मोड़ पे सीतायें कितनी विलख रहीं

उनके हृदय की वेदना आंखों से है छलक रही।


आ भी जाओ अब प्रभु एक तुमसे आस है

छोड़ तुम सकते नहीं हमको यही विश्वास है।

वेदना जब जब सतायी याद तुम आये  प्रभु

अंधकार जब भी बढ़ा, प्रकाश तुम लाये प्रभु।


ये ना सोचो राष्ट्र तुमको भूल सकता है कभी

आज जो जीवन मिला है वो आपका ही है प्रभु।

अपने ही तो कहा था आप आओगे वहां

धर्म पर जहां चोट होगी आप जाओगे वहां।


आपके आने में प्रभु अभी और कितनी देर है

दुर्भाग्य है कैसा यहां या वक्त का ये फेर है।

दर्द में सब जी रहे हैं संजीवनी बस आप हो

इस देह रूपी पंचपात्र की आचमनी आप हो।


आज मानव ज्ञान, गुण, सम्मान सारा खो रहा

ऐसा लगता सत्य का अपमान है अब हो रहा।

आज कैसा वक्त है और  कैसी आयी ये घड़ी

जिस तरफ भी देखिए निज स्वार्थ की सबको पड़ी।


ऐसे इन हालात में सब सम्मान सारे खो रहे

आपने जो भी बनाया प्रतिमान सारे खो रहे।

जो आ नहीं सकते प्रभु तो हमको ऐसी शक्ति दो

सम्मान फैले बस मनुज का हमको ऐसी भक्ति दो।


है यही विनती हमारी अब इसे स्वीकार करो

अवतरण हो ज्ञान का सबका प्रभु उद्धार हो।

धर्म की स्थापना हो, प्रेम हो कण कण यहां

ज्ञान का विस्तार हो धाम बन जाये जहां।।


 ✍️©अजय कुमार पाण्डेय

       हैदराबाद 

       25अक्टूबर,2020

इक कसक।

  इक कसक।

जो गुनगुनाया ना गया
वो राग बन गया हूँ मैं।
जल के भी जो ना बुझी
वो आग बन गया हूँ मैं।।

जिधर भी देखो धुंध का
इक आवरण लिपटा हुआ
दर्द भी नासूर बनकर
अब मौन है, चिपटा हुआ।

अपने ही इस देह में
वनवास बन गया हूँ मैं।
जल के भी जो ना बुझी
वो आग बन गया हूँ मैं।।

सूर्य से पहले सफर में
हर बार मैं तो चल पड़ा
साथ ना आया कोई
था देर तक फिर भी खड़ा।

जिंदगी में इंतज़ार की
पहचान बन गया हूँ मैं।
जल के भी जो ना बुझी
वो आग बन गया हूँ मैं।।

जज्बात की रौ में बह
फिर मौन जब कुछ कह उठा
रिश्ते कुछ ऐसे बुझे
बस थोड़ा सा धुंआ उठा।

बच गए जज्बातों की
राख बन रह गया हूँ मैं।
जल के भी जो ना बुझी
वो आग बन गया हूँ मैं।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       24अक्टूबर
,2020

विश्वास नहीं खोना।

विश्वास नहीं खोना।   

धीर नहीं खोना मन मेरे
दुःख के बादल हट जाएंगे
किरण नई फिर से फूटेगी
पुनः अंधेरे छँट जाएंगे।

कहीं अँधेरे कहीं उजाले
ये जीवन की बारातें हैं
बस कुछ दिन की बातें हैं
फिर अपने दिन औ रातें हैं।

इनसे ना डर कर रुक जाना
आज घने, कल छँट जाएंगे।
धीर नहीं खोना मन मेरे
दुःख के बादल हट जाएंगे।।

कहने को तो सब अपने हैं
पर कितने, कहना मुश्किल है
चले सफर में यहां सभी पर
साथ रहा जो, तेरा दिल है।

बिछड़े यहां सफर में जो भी
कहीं कभी फिर मिल जाएंगे।
धीर नहीं खोना मन मेरे
दुःख के बादल हट जाएंगे।।

चाहे कितनी मुश्किल आये
लाख अँधेरे पथ भटकाएँ
जीवन से अहसास न खोना
बस खुद से विश्वास न खोना।

विश्वास अटल, जो बना रहा
वीराने भी खिल जाएंगे।
धीर नहीं खोना मन मेरे
दुःख के बादल हट जाएंगे।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      22अक्टूबर,2020

दहेज-एक अभिशाप।

   दहेज-एक अभिशाप।   

दहेज के दावानल में कितनी
अभी और जलेंगी बेटियाँ
कब तक सजेगा बाजार औ
रिश्तों की लगेंगी बोलियां।

इक कोख से जन्में सभी
क्या बेटे और क्या बेटियाँ
फिर भी जमाने मे खटकती
क्यों आज भी हैं बेटियाँ।

यूँ तो नारों से है गुंजित
यहां सारा पारावार है
दुल्हन ही दहेज है, से
गूंजे सकल संसार है।

जब भाव इतने नेक हैं
सिसकती क्यूँ हैं बेटियां
दहेज के दावानल में कितनी
अभी और जलेंगी बेटियाँ।

कैसा मुखौटा ओढ़ करके
अब भी सो रहा संसार है
भेद कर रहा है सृष्टि में
कैसा यहां व्यवहार है।

बिक गए हैं खेत कितने
और बिकी हैं कितनी जिंदगी
बिक गयी पगड़ी कहीं पर
और बिकी कहीं पर बंदगी।

स्वार्थ औ लालच में कबतक
पिसती रहेंगी  बेटियाँ।
दहेज के दावानल में कितनी
अभी और जलेंगी बेटियाँ।

बेटियों से संसार रचता
इनसे ही घर-द्वार सजता
गूंजती किलकारियां हैं
सभ्यता औ प्यार बसता।

इनके अपमानों से अब तो
रो रही हैं सारी सृष्टियाँ।
दहेज के दावानल में कितनी
अभी और जलेंगी बेटीयाँ।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      21अक्टूबर,2020

यूँ ही पाया तो क्या पाया।

यूँ ही पाया तो क्या पाया।   

पल पल जीने की चाहत में
जीवन ये कितनी बार मरा
सोच, विकल होता है अब ये
कहां उठा औ कहां गिरा।

मर मर कर जीवन में अबतक
कुछ पाया तो क्या पाया
जो उद्द्यम से मिल सकता था
यूँ ही पाया तो क्या पाया।।

जो करना था वो किया नहीं
खुल कर जीना था जिया नहीं
प्रतिपल खुशामदी में बीता
मन की अपने किया नहीं।

सांझ ढले जीवन बेला में
पछतावा करके क्या पाया।
जो उद्द्यम से मिल सकता था
यूँ ही पाया तो क्या पाया।।

सब चले जिधर दो पैर चले
सब रुके जहां दो पैर रुके
दूजे पदचिन्हों पर चल चल
जाने कितनी बार झुके।

लिख सकते जो इतिहास यहां
उसे दोहरा कर के क्या पाया।
जो उद्द्यम से मिल सकता था
यूँ ही पाया तो क्या पाया।।

भूतकाल से सीखा ना कुछ
वर्तमान में कभी जिया नही
हर पल जुगत का फेर किया
यत्न कभी कुछ किया नहीं।

सांझ ढले फिर जीवन के
अब पछताया तो क्या पाया।
जो उद्द्यम से मिल सकता था
यूँ ही पाया तो क्या पाया।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
     20अक्टूबर,2020





तुम आकार बने।

तुम आकार बने।   

जो तस्वीर बनी थी दिल में
तुम उसके आकार बने
जो भी स्वप्न संजोया मैंने
तुम उसके साकार बने।

जो तुम बनी नदिया हृदय की
हम नदिया की धार बने
मेरे जीवन की नैया की 
तुम ही तो पतवार बने।

बिन तेरे ये सारा जीवन
सूना सूना हो जाता
जो तुम ना मिलती मुझको
उपवन सूना हो जाता।

तेरी सांसों की सरगम से
दिल की वीणा बजती है
तेरे माथे की कुमकुम से
दुनिया मेरी सजती है।

तेरी चाहत की किरणें ही
जीवन के विश्वास बने
तेरे आने से जीवन में
पतझड़ भी मधुमास बने।

तुम ही साँसों की सरगम
तुम वीणा की तान बने
जो तस्वीर बनी थी दिल में
तुम उसके आकार बने।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      20अक्टूबर,2020

फिर सोचना होगा।



  फिर सोचना होगा।

कलम की नोक से तलवार को अब तोड़ना होगा
नदी की धार को भी इस तरह ही मोड़ना होगा।।

बहुत सुन चुके ताने कितने शिशुपालों के अब तक हम
सुदर्शन चक्र जैसा कुछ हमें भी छोड़ना होगा।।

रहे हैं सेंकते जो रोटियां अब राजनीति की
उन्हें स्याही की ताकत से हमें अब रोकना होगा।।

शिक्षा, संस्कृति और सभ्यता के रक्षण की खातिर
पल रहे सारे कुचक्रों को हमें अब तोड़ना होगा।।

प्रश्न उठेंगे किंचित कहीं किसी दरबानों से जो
होकर अटल आज उसका हल खोजना होगा।।

इक धागे में पिरो सके जो सारे भारत को
ऐसा कोई नवगीत हमे अब सोचना होगा।।

जन गण मन के भावों को जो आह्लादित कर दे
फिर ऐसा नूतन राष्ट्रगीत हमें अब सोचना होगा।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      19अक्टूबर,2020

देश।

देश क्या होता है इसपर मेरे विचार कविता के रुप में समीक्षा हेतु-        
       
        देश।               

जल थल नभ की सीमाओं से
कभी देश नहीं बना करता
नदियों से सागर तक केवल
यहां देश नहीं चला करता।

देश नहीं होता है केवल
राजमार्ग से गांवों तक
देश नहीं बनता है केवल
अट्टालिकाओं की छाँवों तक।

देश नहीं सिमटा है केवल
सरहद की सीमाओं तक
देश नहीं सजता है केवल
समझौतों औ सुविधाओं तक।

देश महज कोई पार्क नहीं
जहां सभी घूमा करते हैं
ये हरगिज कोई मंच नहीं
जो गलगौज किया करते हैं।

देश नहीं बस गांव, नगर
ना संसद और ना ये सड़क
देश नहीं फूलों की क्यारी
ना आयोगों की अलमारी।

देश हृदय की भावभंगिमा
प्रेम प्यार सब पलते हैं
ये वो सुंदर पथ है जिसपर
सब मिलकर के चलते हैं।

ये भावों की अभिव्यक्ति है
मजबूत इरादों की बस्ती है
थामे दामन उम्मीदों का
पल पल बस खुशियाँ हँसती हैं।

जहां धर्म जाति का भेद नहीं
है भाषा का मतभेद नहीं
जहां सत्य विजयी है हरपल
संबंधों में विच्छेद नहीं।

ऐसे भारत का सपना अब
हर आंखों में भरना है
दुनिया मे परचम लहराए
ऐसा भारत गढ़ना है।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
   हैदराबाद 
   19अक्टूबर,2020

आज कहना होगा।

आज कहना होगा।     

गर निकली है बात यहां
तो बात आज कहना होगा
जो बीत रही है सपनों पे
कब तक उसको सहना होगा।

सुनते तो हैं, पर दिखे नहीं
था पढा कहीं, पर लिखे नहीं
डटने की बातें खूब करी
मौके पर लेकिन डटे नहीं।

कोरी बातों से क्या हासिल
अब तो कुछ करना होगा।
गर निकली है बात यहां
तो बात आज कहना होगा।।

आज धरातल को लगता है
सूरज खूब चिढ़ाता है
खुद बादल की ओट छिपे है
जग को बस भरमाता है।

इसकी आंख मिचौली को अब
दीप यहां दिखलाना होगा।
गर निकली है बात यहां
तो बात यहां कहना होगा।।

अपने प्रकाश की खातिर
तारे सारे मिल जाते हैं
रात अंधेरी घनी भले हो
इक दूजे को राह दिखाते हैं।

धरती पर अब नजर करो
खुलकर के अब कहना होगा।
गर निकली है बात यहां
तो बात आज कहना होगा।।

धरती की नीलामी करते
अपना आकाश बचाते हैं
माटी पर ना पैर पड़े
इसलिए धूल हटवाते हैं।

पर आंखों में पड़ी धूल को
साफ आज करवाना होगा।
गर निकली है बात यहां
तो बात आज कहना होगा।।

कह दो, देर नहीं हो जाये
अवनी, अंबर ना बिक जाए
बेमौसम उन्मादों से 
धरती अपनी ना फट जाए।

अवनी-अंबर सबका है
अब बात यहां कहना होगा।
गर निकली है बात यहाँ
तो बात आज कहना होगा।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय 
     हैदराबाद
     18अक्टूबर,2020

आभास तुम्हारा होता है।

आभास तुम्हारा होता है।  

जीवन के स्पंदन में
आभास तुम्हारा होता है
साँसों की हर सरगम में
अहसास तुम्हारा होता है।

दुःख की चाहे तपिश यहां हो
या हो सुख की बरसातें
उजली उजली भोर खिले या
कितनी हो काली रातें।

तेरे अहसासों में हरपल
मधुमास हमारा होता है।
जीवन के स्पंदन में
आभास तुम्हारा होता है।

तेरे आलिंगन में मुझको
खुशियां सारी मिल जाती हैं
तेरे अनुरंजन से मेरी
जीवन बगिया खिल जाती है।

मुझको अब हर रंगों में
अहसास तुम्हारा होता है
जीवन के स्पंदन में
आभास तुम्हारा होता है।

है यही प्रार्थना ईश्वर से
हरपल में तेरा साथ रहे
हो कोई भी क्षण जीवन का
हाथों में तेरा हाथ रहे।

हर पूजा में हर वंदन में
विश्वास तुम्हारा होता है
जीवन के स्पंदन में
आभास तुम्हारा होता है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       17अक्टूबर,2020

माँ तेरे दर पर आया हूँ।

मां तेरे दर पर आया हूँ।  


तेरे दर आया हूँ मैया
मेरा भी उद्धार करो
शरण चरण में दे दो मुझको
मेरा बेड़ा पार करो।

तेरा दर साँचा लागे है
झूठा सारा जग लागे
अपनी शरण में ले लो मैया
मेरी भी किस्मत जागे।

शीश नवाये बैठा हूँ माँ
सिर पर मेरे हाथ धरो
तेरे दर आया हूँ मैया
मेरा भी उद्धार करो।

वर्षों से मैं फँसा हुआ हूँ
जाने कितने आशंका में
नहीं सूझती राह मुझे
निकलूं कैसे अब शंका से।

माँ तू तो अंतर्यामी है
सारे जग की स्वामी है
सिर मेरे हाथ धरो मां
मेरा भी उद्धार करो।

तेरे दर आया हूँ मैया
मेरा बेड़ा पार करो।।

कर जोड़ करूं विनती मैया
अपनी कृपा सदा रखना
जग के सब संताप मिटे माँ
बहे प्रेम का शीतल झरना।

तू ही दुर्गा तू ही काली
तू सारे जग की रखवाली
दर पर तेरे जो भी आया
गया नहीं कभी वो खाली।

तेरे दर आया हूँ मैया
मेरा भी उद्धार करो
शरण चरण में दे दो मुझको
मेरा बेड़ा पार करो।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      17अक्टूबर,2020





वोट की ताकत।

वोट की ताकत।   

आज राज की जय बोलो
नैतिकता की बातें छोड़ो
काम अगर होता चुपके से
और किसी का दिल ना तोड़ो।

मेजों के नीचे से देखो
आते जाते कितने सारे
कोई करे इशारा छुप कर
और आंख कोई धीरे से मारे।

बिना वजन रखे यहां अब
कौन किसी को पूछेगा
गलती से जिसने प्रश्न किया
वो आफिस आफिस खेलेगा।

भूख प्यास पर बैठक सारी
पांच सितारा होती है
बैठक का सारा खर्चा
जनता बेचारी ढोती है।

कर भरता कोई और यहां
मजा और कोई लेता है
खूब लुटाया लोकतंत्र जो
ज्ञान वही अब देता है।

त्याग तपस्या से देखो वो
जन गण को राह दिखाते हैं
रोटी चाहे नसीब में ना हो
पर सब्जबाग दिखलाते हैं।

लकुटि कमरिया ओढे दादा
फिर पीछे पीछे जाते हैं
घंटे भर हैं साथ घूमते
वादों का चाबुक खाते हैं।

वादों का चाबुक सह सहकर
कितने सावन बीत गए
खुद की कुर्सी की खातिर
हमरी भी खटिया लूट गए।

लोकतंत्र के बागीचे में
रंग रंग के फूल खिले
भारत के कोने कोने से
जनता के सेवक खूब मिले।

जनता की सेवा करने में
कितनों ने है महल बनाये 
विकास हुआ भले धीरे से
साहब तो पर दौड़ लगाये।

चुनाव की जब घंटी बजती
भांति भांति के वादे लाते
कहीं मुफ्त की रबड़ी बँटती
और कहीं सपने दिखलाते।

वेद पुराण सभी कहते हैं
जीवन सारा अनित्या है
पद, प्रतिष्ठा, सत्ता, वैभव
लोभ- मोह सब मिथ्या है।

लोकतंत्र में बीमारी का
काका का नुस्खा नोट करो
अपने वोटों की ताकत से
अनैतिकता पर चोट करो।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      16अक्टूबर,2020







मन होना नहीं उदास यहां।

मन होना नहीं उदास यहां।  

मन होना नहीं उदास यहां
हमने वो पल भी देखा है।
औरों की बातें क्या करना
अपनों का छल भी देखा है।।

कुछ धूल उड़ी थी इस पथ में
जिसको तुम शायद भूल गए
इक धुंध था छाया अंतस में
खुद अपना रस्ता भूल गए।

आज चले हो जिस पथ में
हमने वो पथ भी देखा है।
औरों की बातें क्या करना
अपनों का छल भी देखा है।।

अधर खुले पर, कुछ कह न सके
कहे बिना भी रह न सके
कहने-सुनने की पीड़ा में
अश्रु थमे, पर रुक न सके।

आंसू के उलझन को मैंने
नैनों में पल पल देखा है।
औरों की बातें क्या करना
अपनों का छल भी देखा है।।

मुक्त करो इस दिल को अपने
क्यूँ हरपल बांधे रहते हो
खुली हवा में जीने दो अब
क्यूँ दर्द में डूबे रहते हो।

इन भावों से निकला जो भी
उसने ही कल देखा है।
औरों की बातें क्या करना
अपनों का छल भी देखा है।।

अब राहों से नजर हटा लो
छोड़ गए जो, क्या आएंगे
मुड़कर भी ना देखा जिसने
गीत सुहाने क्या गाएंगे।

गहरे-गहरे घावों को भी
वक्त से भरते देखा है।
औरों की बातें क्या करना
अपनों का छल भी देखा है।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय 
      हैदराबाद
      15अक्टूबर,2020

मेरा तो इतिहास बना।

 



मेरा तो इतिहास बना।  


व्यथा लिखा जब जब पन्नों पर

इक नूतन अहसास लिखा।

मिली कहानी औरों को, पर

मेरा तो इतिहास बना।।


जीवन अपना मैंने खोया

पाप-पुण्य का बोझा ढोया

जीवन के आंगन में मैंने

पाया वैसा, जैसा बोया।


पाप पुण्य की गठरी लादे

मैंने बस अहसास लिखा।

मिली कहानी औरों को, पर

मेरा तो इतिहास बना।।


सबकी इच्छाओं की खातिर

अश्रु आचमन बहुत किया

आहुति देकर अपना जीवन

अमृत संग-संग गरल पिया।


तपकर जीवन की बेदी पर

मैंने इक विश्वास बुना।

मिली कहानी औरों को, पर

मेरा तो इतिहास बना।।


तोड़ चुका बंधन अब सारे

अहसानों का क्षोभ नहीं

ना ही कोई चाहत बाकी

और मुझे कोई लोभ नहीं।


जीवन के इस मौन सफर में

मैंने अपना मान लिखा।

मिली कहानी औरों को, पर

मेरा तो इतिहास बना।।


 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय

       हैदराबाद

       14अक्टूबर,2020

फैली हों अपनी राहें।

 फैली हों अपनी राहें।


चलो चलें उस ओर जहां तक

फैली हों अपनी राहें

चलो चलें हम आज वहां तक

फैलाकर अपनी बाहें।


चंद पलों के जीवन सारा

अवसादों में ना तोलो

मिलो आज तुम सबसे खुलकर

दिल की सारी बातें बोलो।


जब नेपथ्य में नहीं, कुछ भी

फिर क्यूँ आज झुकी निगाहें।

चलो चलें उस ओर जहां तक

फैली हों अपनी राहें।।


सीमित संसाधन हैं अपने

माना सब कुछ पास नहीं

मगर हौसलों की पाँखी है

थकने का अहसास नहीं।


लिए हौसले आज चलें तो

निकलेंगी नूतन राहें।

चलो चलें उस ओर जहां तक

फैली हों अपनी राहें।।


जीवन सारा खिल जाएगा

सपना भी सब मिल जाएगा

हँसकर जब इक बार उठेगा

उपवन सारा खिल जाएगा।


सपनीली इस दुनिया की

तब होंगी तेरी ओर निगाहें।

चलो चलें उस ओर जहां तक

फैली हों अपनी राहें।।


 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय

       हैदराबाद

       14अक्टूबर,2020

इतना यकीं करो अपने पर।

इतना यकीं करो अपने पर।  

इतना यकीं करो अपने पर
कान नहीं कोई भर पाए
इतना विश्वास बना रखना
और नहीं कोई हर पाए।

तुझको लाखों लोग मिलेंगे
अपनेपन की बात करेंगे
विश्वास जीतने की खातिर
छद्म रूप धर प्रेम करेंगे।

ध्यान धरो इतना ही बस
कोई तुम्हें छल ना पाए।
इतना विश्वास बना रखना
और नहीं कोई हर पाए।।

पग पग पर हैं लोग बदलते 
दिशा यहां पर, परछाईं से
ऐसे भी हैं लोग यहां जो
गढ़ते परबत हैं, राई से।

ऐसे लोगों से बच रहना
नहीं कहीं भरमा जाए।
इतना विश्वास बना रखना
और नहीं कोई हर पाए।।

जीवन में कुछ करना है तो
बहता पानी बन जाना
ठहरा पानी खारा होता
अच्छा है दरिया बन जाना।

बहना मगर ध्यान ये रखना
कहीं किनारा छूट न जाए।
इतना विश्वास बना रखना
और नहीं कोई हर पाए।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय 
       हैदराबाद 
       13अक्टूबर,2020

गीतों में मैं गाता हूँ।

गीतों में मैं गाता हूँ।

अंतस में जो भी भाव बने
गीतों में उसको गाता हूँ
जग से जो भी भाव मिले
हँस करके दिखलाता हूँ।।

कविता हो या गीत कहीं
सब मेरे मन की बातें हैं
तन मन जिसमें भींग रहा
सब अंतस की बरसातें हैं।

नैनों से जो अश्रु बहे हैं
चुपके से बहलाता हूँ।
अंतस में जो भी भाव बने
गीतों में उसको गाता हूँ।।

स्मृतियों में है शेष वही
जो आरोप लगाया है
तुमने कहा ठगा है मैंने
पर तुमने ठुकराया है।

स्मृतियों से पर प्रेम मुझे
उनसे दिल बहलाता हूँ।
अंतस में जो भी भाव बने
गीतों में उसको गाता हूँ।।

जब छोड़ चले सारे अपने
शिकवा मैं तुमसे क्या करता
एकाकीपन का घाव लिए
मैं जीवन जीता या मरता।

एकाकीपन की पीड़ा को
मैं शब्दों से पिघलाता हूँ।
अंतस में जो भी भाव बने
गीतों में उसको गाता हूँ।।

अब और नहीं कोई चाहत
गीतों का बस संग रहे
नित गीत सुनाऊं मैं सबको
खुद से चाहे जंग रहे।

अपने इन गीतों में ही
अब जीवन सारा पाता हूँ।
अंतस में जो भी भाव बने
गीतों में उसको गाता हूँ।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय 
       हैदराबाद 
       13अक्टूबर,2020

कैसे सुनाऊं कोई गीत तुमको।

कैसे सुनाऊं कोई गीत तुमको।  


अभी क्या सुनाऊं कोई गीत तुमको
है सरगम अधूरी, बताऊँ क्या तुमको
ये दुनिया के मेले अधूरे अधूरे
मैं कैसे सुनाऊं कोई गीत तुमको।

सांसें सिसककर कोई गीत गाती
बिखरे पलों की कहानी सुनाती
ये भींगीं पलकें ये अधरों की कंपन 
बीता हुआ कोई मंजर दिखाती।

के वो जो करीबी में दूरी बनी है
कहीं आग मुझमें औ तुममें ठनी है
मिटा के न रख दे कहीं आग हमको
मैं कैसे सुनाऊं कोई गीत तुमको।

कल जो भी सीखा था मैंने जहां से
नहीं काम आया वो मेरे यहाँ पे
अधूरी है महफ़िल अधूरा तराना
अधूरा ही शायद रहे ये फसाना।

हैं संगीत मेरे अधूरे अधूरे
होंगे कहीं क्या कभी ये भी पूरे
जब तक मिलेगी ना राह हमको
मैं कैसे सुनाऊं कोई गीत तुमको।

नहीं नाज हमको अब दुनिया जहां पे
नहीं नाज हमको तेरे गुलसितां पे
है बस नाज हमको अपने गमों पे
वही साथ मेरे चले हैं सफर पे।

जब तक सफर हो न जाये ये पूरा
रहूंगा मैं शायद अधूरा अधूरा
मिलेगी जब तक मंजिल न हमको
मैं कैसे सुनाऊं कोई गीत तुमको।।
 
जीवन के मुश्किल सफर पर चलूं जो
मेरे साथ क्या दो कदम तुम चलोगे
है मंजूर तुमको ये सोहबत हमारी
यही बात क्या तुम जहां से कहोगे।

तुम्हारे बिना मैं अधूरा अधूरा
तुम्हें पा के हो जाऊंगा पूरा पूरा
इक बार जो अपनी आंखों से कह दो
तो फिर सुनाऊं कोई गीत तुमको।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      12अक्टूबर,2020

दिख रहा प्रभात है।

दिख रहा प्रभात है। 

हो दिवस का भोर चाहे
या रात का अंतिम पहर
ब्रह्म का यदि बोध हो तो
संयत रहे चंचल लहर।

बोध हो या क्षोभ चाहे
भावनाओं का हो असर
चित्त में उन्माद हो तो
व्यर्थ सारे हैं अवसर।

शांत चित्त है हृदय जहां पर
विलग है रहती वेदना
करती प्रभावित रूप को
हर मुक्तिकामी चेतना।

स्वप्न जब तक नेत्र में है
पौरुष ही बस अभिप्राय है
मार्ग कितना भी जटिल हो
पुरुषत्व ही अध्याय है।

कर्मभूमि में खड़े हो अब
ना तुम डरो आघात से
है रात का अंतिम पहर ये
चलो के दिख रहा प्रभात है।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       10अक्टूबर,2020

अंबर में अब भी लाली है।

अंबर में अब भी लाली है।

बोलो कैसे मैं रात कहूँ
अंबर में अब भी लाली है
ये गोधूली बेला है
रात कहां अभि काली है।।

अंबर की ड्योढ़ी पर जब भी
चंदा दस्तक देता है
सूरज की मद्धम किरणों से
शीतल प्रकाश वो लेता है।

दोनों की आंखमिचौली की
दुनिया ये मतवाली है,
बोलो कैसे मैं रात कहूँ
अंबर में अब भी लाली है।।

रात दिवस का सफर घना है
हिय संबंधों में यहां सना है
मिल ना पाए भले कहीं पर
गोधूली में प्रेम बना है।

संबंधों की इस बेला में
जब तक फैली लाली है,
बोलो कैसे मैं रात कहूँ
अंबर में अब भी लाली है।।

कहीं तड़प बाकी है अब भी
उम्मीदें दीवानी हैं
ठनी प्रतीक्षा मिलने की है
राहें भी दीवानी हैं।

छोड़ प्रतीक्षा कैसे चल दूं
बाकी अभी दिवाली है,
बोलो कैसे मैं रात कहूँ
अंबर में अब भी लाली है।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       10अक्टूबर,2020

फिर तुम कैसे पाओगे।

फिर तुम कैसे पाओगे।   

जाते हो जीवन से मेरे
जाओ पर पछताओगे
मेरे जैसा मीत वहां पर
फिर तुम कैसे पाओगे।

पाओगे खुशियां सारी
जीवन नूतन पाओगे
संबंधों की ड्योढ़ी पर
रूप नया तुम पाओगे।

पर मेरे संग जो बीते हैं
पल वो कहां भुलाओगे
मेरे जैसा मीत वहां पर
फिर तुम कैसे पाओगे।।

यूँ तो तुमने बहुत दिया है
और यहां अब रहने दो
पाया हूँ जितना भी तुमसे
उतना तो अब सहने दो।

मेरे अंतस की पीड़ा को 
समझ नहीं तुम पाओगे
मेरे जैसा मीत वहां पर
फिर तुम कैसे पाओगे।।

आने वाली किरणों का
ताप मुबारक हो तुमको
तुमने जो भी दिया मुझे
वो शाप मुबारक हो हमको।

लेन देन के इस भाषा को
समझ कभी क्या पाओगे
मेरे जैसा मीत वहां पर
फिर तुम कैसे पाओगे।।

जाते हो जीवन से मेरे
जाओ पर पछताओगे
मेरे जैसा मीत वहां पर
फिर तुम कैसे पाओगे।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       08अक्टूबर,2020


राष्ट्रनीति के भाव जगाओ।

राष्ट्रनीति के भाव जगाओ।

मूक भाव से सब बैठे हैं
देखो सारे लोग यहां
बाट जोहते इक दूजे की
कैसे करें विरोध यहां।

कहीं पे लुटती मर्यादा है
और कहीं सम्मान लुटा
बात हलक से निकले कैसे
लगता सब है घुटा घुटा।

गिद्ध दृष्टि डाले बैठे हैं
आस पास की घटनाओं पर
कोण ढूढते जाति धर्म का
घटती सारी घटनाओं पर।

कहीं टीआरपी की झक झक
तो कहीं वोट की चिंता है
जैसे सारी घटनाओं में
बस वोट बैंक ही दिखता है।

जनता पर लाखों पहरे हैं
पर इनको कोई बोले कैसे
ये जो चाहे कुछ भी बोलें
इनको कोई रोके कैसे।

गिरती शुचिता राजनीति की
भारत को तड़पाती है
विश्व गुरु के सपनों को
कुटिल हो मुंह चिढ़ाती है।

साथ, विकास, विश्वास की बातें
सब बेमानी हो जाती हैं
लोकतंत्र के मंदिर में जब
सुविधा हावी हो जाती है।

लोकतंत्र का चौथा खंभा
बिखरा बिखरा लगता है
अपनी रेटिंग की खातिर
भटका भटका लगता है।

चाटुकारिता से कोई जब
सम्मान यहां पर पाता है
तब किसी मेहनतकश के
हिस्से की रोटी खाता है।

भारत भी हलकान हो चला
सुविधाभोगी लोगों से
सरोकार सब दूषित होते
उल्टे सीधे सोचों से।

गांधी जी के तीनों बंदर
क्या लोकतंत्र के प्रहरी हैं
आंख, कान, मुंह बंद किये सब
देखो सारे शहरी हैं।

चंद स्वार्थी लोगों से
जीवन ये हलकान हुआ
शुचिता गिरी राजनीति की
लोकतंत्र बदनाम हुआ।

आज यहां जो मौन रहोगे
लोकतंत्र दुःख पायेगा
दर्पण देखेगा जब भी
खुद पर वो शर्माएगा।

दिनकर जी ने कभी कहा था
लेकर अपनी गहरी श्वास
जो तटस्थ हैं आज यहां पर
समय लिखेगा उनका इतिहास।

इतिहासों से शिक्षा लेकर
वर्तमान का मान करो
राष्ट्रनीति के भाव जगाकर
नूतन भविष्य निर्माण करो।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       08अक्टूबर, 2020


चैन।

                 चैन।          

बादल से बिछड़ी बूंदें पुनः कहां मिल पाती हैं
पवन बहाए जहां कहीं उसी ओर वो जाती हैं।।

जो सागर में गिरती हैं तो पुलकित हो खिल जाती हैं
विशाल हृदय सागर का पाकर उसमें ही मिल जाती हैं।।

जो गिरती हैं धरती पर तो मिट्टी की हो जाती हैं
खो करके अपना जीवन कोंपल नई खिलाती हैं।।

संगत का है असर सभी जो कितना कुछ दे जाते हैं
अच्छा मिले जीवन खिलता, बुरा मिले खो जाते हैं।

जैसा साथ जिसे मिलता है वैसा ही फिर वो चलता है 
जिसको मिलती संगत जैसी उसमें ही वो पलता है।।

अपने धर्म मूल संस्कृति से जो बिछड़े पछताते हैं
गिरते हैं जो स्वार्थ सतह पर टुकड़ों में बंट जाते हैं।।

बिछड़ के अपने मूल से कोई अर्थ नहीं रह जाता है
भटका जीवन विस्मृत रहता चैन नहीं फिर पाता है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      08अक्टूबर,2020

स्थिर बनकर के रहना है।

स्थिर बनकर के रहना है।

जीवन की कितनी इच्छाएं
मचल मचल फिर आती हैं
चाहे जितना यत्न करें हम
फिर भी सब कह जाती हैं।

विकल भाव हैं दुग्ध की तरह
मिलते ही अकुलाते हैं
जरा पड़ी जो आंच कहीं तो
फेनिल बन बह जाते हैं।

है मृदुल सरल जीवन इनका
सहज भाव कह जाते हैं
नहीं शिकायत करते कुछ भी
चुपचाप मगर बह जाते हैं।

संबंधों की ऊष्मा सारी
जीवन इनको देती है
आंच कभी यदि तेज हुई तो
सब खंडित कर देती है।

अपनेपन की विकल भावना
हँस कर के कह जाते हैं
आंच मगर जो तेज हुई तो 
फेनिल बन बह जाते हैं।

पर पानी की कुछ बूंदों से
शीतल ये हो जाते हैं
फेनिल कितना भी फैला हो
शांत शिथिल हो जाते हैं।

यहां दूध औ पानी हमको
कितना कुछ समझाते हैं
जीवन औ रिश्तों पर कितना 
ज्ञान हमें दे जाते हैं।

जनम मरण का खेल सभी को
हँस हँस कर पूरा करना है
बन जाना है पानी जैसा
स्थिर बनकर के रहना है।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       07अक्टूबर,2020



विकल मन।

विकल मन।

मन संतप्त है उर अशांत
जनमन अंतर्मन भयाक्रांत
अवनी अंबर शिथिल हो रही
चिंतन मनन सब हुए क्लांत।

दिनकर अपना तेज खो रहा
गुंफित नभ में कहीं खो रहा
अवसादों की वीराने में
अनजाने ही व्यथित हो रहा।

सरिता का उद्गम हुआ क्लांत
सरिता का तट भी है अशांत
जब सागर है बांह पसारे
लहरें फिर क्यूँ भयाक्रांत।

क्यूँ शब्दों पर पहरा लगता
ग्रीवा में कुछ ठहरा लगता
क्यूँ कर चेतना सुप्त हो रही
जीवन यहां अधूरा लगता।

अदृश्य वेदना तड़पाती है
रह रह उर को भटकाती है
काल चक्र है चला ये कैसा
उँगली अपनी छटकाती है।

मौन विकल है सारा जीवन
उम्मीदों पर आश्रित उपवन
एक नया प्रारंभ जोहता
आज प्रतीक्षारत जीवन।

उद्विग्न काल प्रकृति अशांत
जल, थल, नभ सब हुए क्लांत
विकल आज है जन गण मन
कब होगा पुलकित ये उपवन।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       06अक्टूबर,2020






चुप को हथियार बना।

चुप को हथियार बना।   

चुप को अब हथियार बना
चुपचाप यहां रहना होगा
मन की सारी पीड़ाओं को
चुपचाप यहां कहना होगा।

आवाजों का शोर बहुत जब
फैला हो दरबानों में
लगे भटकने मुखर चेतना
सांझ ढले मैखानों में।

तब चुप को हथियार बना
प्रतिकार यहां करना होगा
मन की सारी पीड़ाओं को
चुपचाप यहां कहना होगा।

संवादों का दौर बहुत है
संवाद नहीं पर दिखता है
संसाधन के आगे क्या
खबरनवीस कहीं झुकता है।

लेकिन जब खबरों की दुनिया
मौलिक राह भटकती है
लिए मशाल हाथ मे तब
उजियार यहां करना होगा।

खबरों की नैतिकता पर जब
शंका के बादल छाते हैं
लोकतंत्र दिग्भ्रमित हुआ तब
कुटिलता प्रश्रय पाते हैं।

खबरों के व्यवहारों पर
विचार पुनः करना होगा
नहीं मिले जब राह कोई
प्रतिकार हमें करना होगा।

लोकतंत्र में चुप्पी भी है
जनता का हथियार बड़ा
इसे बनाकर शस्त्र यहां
कितनों ने है युद्ध लड़ा।

मुश्किल हो जब कहना कुछ भी
मौन भाव से कहना होगा
इसको ही हथियार बनाकर
कुत्सित से फिर लड़ना होगा।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       02अक्टूबर,2020

जागो हे भारत।

  जागो हे भारत।  

तड़प रही है आज लेखनी
फिर आवाज़ उठाने को
मचल रही है आज भावना
फिर से अलख जगाने को।

स्याही में अंगार भरे
भावों को प्रतिपादित कर
तोड़ गुलामी की जंजीरें
अवनी को आह्लादित कर।

नैनों में ज्वाला है तेरे
हाथ में तेरे कलम कटार
कुंद नहीं कहीं पड़ जाए
तेरे जिह्वा की ललकार।

आज दामिनी कुंद पड़ रही
खो रही क्यूँ अपनी धार
रण चण्डी हुंकार भर रही
युद्ध प्रचण्ड है अबकी बार।

भारत माता चली भेदने
अनाचार के सीने को
काली का फिर रूप धरा
रिपु का शोणित पीने को।

जागो हे मतवालों जागो
भारत के दीवानों जागो
जागो धरती चीख रही है
चिर निद्रा से सारे जागो।

जागो दसों दिशाओं जागो
वेदों की सभी ऋचाएं जागो
जागो पांचजन्य माधव का
भीम की बलिष्ठ भुजाएं जागो।

अर्जुन का गांडीव अब जागो
युधिष्ठिर का भाला जागो
सूरज भी अब अस्त हो रहा
अब तो चक्र सुदर्शन जागो।

श्री राम का कोदंड जागे
फिर केशव का शारंग जागे
जागे आज पिनाक यहां
चिर निद्रा से भारत जागे।

विदुर की फिर से नीति जागे
कौटिल्य का क्रोध फिर जागे
गांधी जी का सपना जागे
फिर से भारत अपना जागे।

शंखनाद हो आज यहां
रणभेरी बन जाना है
नैतिकता की मशाल पुनः
दिल में आज जगाना है।

आज कवच बन जाना है
भारत माँ के सीने का
वर्ना कोई अर्थ नहीं है
कायर बन कर जीने का।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
     हैदराबाद
     01अक्टूबर,2020








मन तो चातक ठहरा।

मन तो चातक ठहरा।

हैं अनिभिज्ञ सभी यहां पर
अगले पल का ज्ञान नहीं
मनवा भी इक पंछी ठहरा
कब उड़ जाए ज्ञात नहीं।

इस डाली से उस डाली तक
उड़ उड़ कर वो बैठ रहा
स्थिर वो कब रहा यहां पर
कितने दर पर बैठ रहा।

कोई कहता मंदिर-मस्जिद
कोई गिरजा औ गुरुद्वारा
कोई कहता ध्यान लगाओ
लोभ मोह से हो छुटकारा।

ज्ञान योग की कितनी बातें
हम सबको बतलाती हैं
स्वर्ग नर्क की परिभाषाएं
नित हमको उलझाती हैं।

मनवा, पर चातक ठहरा
चैन कहां वो पाता है
मिलता उसे सुकून जहां
बस उसका हो जाता है।

इसीलिए सब कहते हैं
खुल कर हर पल जी लेना
जीवन के हर पहलू को
खुल कर के तुम जी लेना।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      30सितंबर,2020

इंतजार-आखिर कब तक।

      इंतजार-आखिर कब तक।  

मोमबत्ती हाथ में लेकर चले सब एक दिन
इक दर्द के साथ हम सब चले थे एक दिन
अनगिनत चेहरे दुखे थे,दर्द पारावार था
इक नए प्रारंभ का सब स्वप्न पाले एक दिन।

एक स्वर बस गूंज रहा था इस सकल ब्रम्हांड में
यूँ लगा अब सृष्टि बदलेगी सकल ब्रम्हांड में
आंधियों में जोर था वो लौ भी शायद बुझ गयी
सिसकियां बस रह गयी शायद सकल ब्रम्हांड में।

हैवानियत क्या इस कदर हावी हुए अब जा रही
इंसान की इंसानियत पराजित हुए क्यूँ जा रही
है ये किसका दोष, आरोप अब किस पर मढ़ें
क्यूँ कर ये चेतना अब सुप्त होती जा रही।

स्तब्ध है अवनी यहां, स्तब्ध अंबर आज है
जाने कैसा आज ये फैला अडंबर आज है
बूँद बादल की भी ना जाने कहाँ अब खो गयी
ढूंढता है रास्ता दिनकर भी यहां अब आज है।

शर्म से शायद दिनकर भी यहां क्या छुप गया
क्षोभ से भरकर के शायद स्वयं क्या वो रुक गया
कौन अब उसको बुलाये इस घने अंधकार में
सूर्य का भी तेज शायद शर्म से अब झुक गया।

और कितनी देर है सारा गगन है पूछता
न्याय की आवाज से सारा चमन है गूंजता
न्याय से ही मात्र अब अवसाद शायद न रुके
जाने क्यों इस धरा को ना राह कोई सूझता।

आओ सब मिल यहां अन्याय का प्रतिकार करें
हो सुरक्षित ये धरा प्रण आज ये स्वीकार करें
वर्ना कहीं ना देर हो जाये यही इंतजार में
अब कृष्ण फिर ना आएंगे इस विकल संसार मे।

जगत जननी की रक्षा का प्रण आज करना होगा
सभ्यता औ असभ्यता से एक अब चुनना होगा
वरना विकल हो सृष्टि जब आपे से बाहर जाएगी
ना मिलेगा रास्ता,  शून्य सब हो जाएगा।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
     हैदराबाद
     30सितंबर,2020


धैर्य व संयम।

धैर्य व संयम

धैर्य शीलता औ संयम का
दिखता आज अभाव यहां
हर कोई व्याकुल लगता है 
कैसा आज प्रभाव यहां।

त्वरित चाहते सब निर्णय
अभाव धैर्य का दिख रहा
संबंधों में भी अब शायद
प्रभाव इसी का दिख रहा।

वेब कल्चर नाम पे देखो
बाजार सजाये बैठे हैं
संस्कृति, शिक्षा, सभ्यता को
खुलेआम लुटाए बैठे हैं।

धर्म, नैतिकता का परिहास
उन्हें प्रभावी दिखता है
पैसों की खातिर शायद
क्या चरित्र यहां पर बिकता है।

फिल्में समाज में लोगों को
बेहतर शिक्षा दे सकती हैं
देश, धर्म व मानवता को
पहचान नया दे सकती हैं।

पर भौतिकता की दुनिया में
नैतिकताएं बोल नहीं पाती
धनलोलुपता जब हावी हो 
सभ्यताएं मोल नहीं पाती।

आगे बढ़ने की चाहत में
कितना पीछे छूट रहा
नैतिकता के सारे मानक
इक इक करके टूट रहा।

झुलस रही है आज यामिनी
शीतल पवन झँकोरे से
भटक रही है राह दामिनी
बादल के अंधेरों से।

बेहतर होगा त्याग वर्जना
संयम को मनमीत बना
सत की राहों पर चलकर तू
नूतन अपना गीत बना।

सुनो नाद निर्झरों के सारे
पर प्रवाह चुन तू खुद का
पूण्य पंथ को प्रशस्त करे जो
पंथ बना उसको खुद का।

आलिंगन में भरे मानवता
मनुजता अंगीकार करो
सूखी धरती को जो तारे
ऐसी तुम बौछार करो।

उदघोष करो पांचजन्य का
मन में पर परमार्थ रहे
स्वयं सारथी होंगे केशव
कुरुक्षेत्र का पार्थ बनो।

तेरा ये संयम ही नूतन
यशोगान लिख पायेगा
विश्व शांति का सपना तेरा 
सब नैनों में दिख पायेगा।

 ✍️©अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद 
         07अक्टूबर,2020

नव निर्माण का स्वप्न।

नव निर्माण का स्वप्न।   

कब तक ऐसे जीना होगा
अनचाहा विष पीना होगा
कब तक अवनी के घावों को 
पैबंद लगा सीना होगा ।

कब तक अवनी की हरियाली
दया दृष्टि को तरसेगी
हलधर की आंखों से खुशियां
ना जाने कब बरसेंगी।

कब जाने उसके उद्द्यम का
मोल समझ सब पाएंगे
कब उसके घर की चिमनी से
खुशियों के बादल आएंगे।

कब दीवारों के सांकल से
नन्हें चेहरे मुस्काएँगे
कब हर घर के आंगन से
गीत सुने फिर जाएंगे।

कब जाने आधी आबादी
खुल कर के जी पाएगी
कब समुचित सम्मान मिलेगा
खुल कर वो मुस्कायेगी।

कब उसका सम्मान यहां पर
समुचित जीवन पायेगा
कब उसके सपनों का उपवन
खुल करके खिल पायेगा।

कब उसके अधिकार यहां पर
नजर सभी को आएंगे
कब उसके प्रति दायित्वों को
समझ यहां सब पाएंगे।

चाहे जितने महल बना लो
काम नहीं कुछ आएगा
दूजे के प्रति प्रेम भाव ही
जीवन सफल बना पायेगा।

महलों के दीपों का तब तक
कोई मोल नहीं होगा
जब तक झोंपड़ियों में उनसे
कोई कलोल नहीं होगा।

अब कितनी घटनाओं का
बोझ हमें सहना होगा
बहुत सह चुके हैं, अब बस
ये सबको कहना होगा।

मानवता की खातिर सबको
अब त्याग यहां करना होगा
उत्तिष्ठ भारत का प्रण सबको
स्वीकार यहां करना होगा।

सुंदर सुगठित व्यवहारों से
जीवन सबका खिल पायेगा
लोकतंत्र मजबूत बनेगा
भारत से भारत मिल पायेगा।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      29सितंबर,2020







तुझको ही प्यार करूं।

तुझको ही प्यार करूं।

बस तुझको ही अपना जानूं
औ तुझको ही प्यार करूं
जब तक जां में है जां मेरे
बस तुझको ही प्यार करूँ।

तेरा रूप निखारूं हर पल
तेरा ही श्रृंगार करूं
जब तक नैनों में ज्योती है
तेरा ही दीदार करूं।

तेरे सिवा नहीं कुछ मांगूं
ना कोई तकरार करूं
और नहीं कुछ मांगू रब से
बस तुझको ही प्यार करूं।

सुख के पल हों या दुख के
हर पल तेरा साथ रहे
जब तक सांसो में है सांसें
हाथों में तेरा हाथ रहे।

चाहत के नवगीत लिखूँ मैं
गीतों से व्यवहार करूं
जब तक मेरी कलम चलेगी
बस तुझको ही प्यार करूं।।

तुझमें ही पाऊं मैं खुद को
बस तुझको स्वीकार करूं
जब तक जां में है जां मेरे
बस तुझको ही प्यार करूं।।

 ✍️©अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       27सितंबर,2020

सुहाने तराने सुनाओ।


      सुहाने तराने सुनाओ।  

है मेरी तमन्ना के तुम पास आओ
मिलन के सुहाने तराने सुनाओ।।

तेरी याद में हो रहा मैं परेशां
तेरी चाह में तड़प रहा मैं परेशां
नहीं और मुझको तुम ऐसे सताओ
मिलन के सुहाने तराने सुनाओ।।

मेरी गीतों में रागों में तुम बसे हो
मेरी धड़कनों, साँसों में तुम बसे हो
है मेरी जरूरत ये तुम तो बताओ
मिलन के सुहाने तराने सुनाओ।।

कहीं ऐसा हो जिंदगी रूठ जाए
मोहब्बत की किस्मत कहीं रूठ जाए
जिद्द ना करो अब चलो मान जाओ
मिलन के सुहाने तराने सुनाओ।।

मैं भी नहीं जी सकूंगी तेरे बिन
मरना भी लगता है मुश्किल तेरे बिन
है मेरी तमन्ना तेरे पास आऊं
मिलन के सुहाने तराने सुनाऊं।।

चलो आज दोनों कदम फिर बढ़ाएं
नहीं एक दूजे को फिर आजमाएं
मिलकरके हमतुम ये जीवन सजाएं
मिलन के सुहाने तराने सुनाएं।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      27सितंबर,2020

ओझल यहां उजाले हैं।




ओझल यहां उजाले हैं।

ये दिल चलो कहीं दूर चलें
ओझल यहां उजाले हैं
चेहरों पर कितने चेहरे 
कितने दिल के काले हैं।

विश्वासों की डोरी बांधी
हाथों से कैसे छूट गयी
जन्मों का बंधन था अपना
फिर कैसे वो टूट गयी।

लाख जतन की जाने की, पर
दरवाजों पे ताले हैं।
ये दिल चलो कहीं दूर चलें
ओझल यहां उजाले हैं।।

टूट गए हैं आज सभी भ्रम
अब सच से भय लगता है
बिखर गए सपने कुछ ऐसे
सोने से भय लगता है।

गीत नहीं गा पाता हूँ अब
होठों पर यूँ ताले हैं।
ये दिल चलो दूर कहीं चलें
ओझल यहां उजाले हैं।।

लाखों के मेले में ठहरा
अपना ना कह पाता हूँ
दर्द कराहता रहता प्रतिपल
मुक्त नहीं रह पाता हूँ।

कब तक रखूं धैर्य, तुम बोलो
जब शब्दों के लाले हैं।
ये दिल चलो कहीं दूर चलें
ओझल यहां उजाले हैं।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        26सितंबर,2020

तुमसे वादा मेरा।

         तुमसे वादा मेरा।  
जाने क्यूँ आजकल गुनगुनाता हूँ मैं
खुद से कहता भी हूँ, औ छुपाता हूँ मैं
जाने कैसा है मुझ पर असर ये हुआ
खुद लिखता और खुद ही मिटाता हूँ मैं।

जाने कैसा हुआ है असर आजकल
खुद की रहती नहीं है खबर आजकल
डूबा रहता हूँ मैं बस तेरी याद में
सूझती है ना मुझको डगर आजकल।

एक तुझसे मिला, जग को भूला हूँ मैं
अपने दिल का पता आज भूला हूँ मैं
एक तुझसे जुड़ी हाथ की जब लकीरें
तेरी बाहों में खुद को भूला हूँ मैं।

तुम ही मंजिल मेरी तुम मेरा रास्ता
एक तेरे सिवा ना कोई वास्ता
उम्र भर तुमको ऐसे ही चाहूंगा मैं
आज वादा यही तुमसे करता हूँ मैं।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद 
        24सितंबर,2020

मुक्त गगन के पंछी हम।

मुक्त गगन के पंछी हम।

मुक्त गगन है, मुक्त पवन है
हमको इसमें रहने दो
जीवन है सरिता की धारा
हमको इसमें बहने दो।

हम भी उसके अनुगामी हैं
जिसमें जीवन पलते हैं
सहगामी बनकर प्रकृति के
मुक्त भाव से चलते हैं।

मुक्त गगन सा जीवन अपना
पंख प्रसारे फिरते हैं
नहीं सुहाती हमें गुलामी
मुक्तकंठ हम जीते हैं।

अपना है आकाश सुनिश्चित
उन्मुक्त भाव से फिरते हैं
मिला प्रेम से जो भी हमको
हम भी उससे मिलते हैं।

पिंजरों में ना बांधो हमको
बंधे, नहीं फिर जी पाएंगे
छूटा जो इक बार गगन ये
मुक्तकंठ ना गा पाएंगे।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      23सितंबर,2020


दिन बीते जाते हैं।

       दिन बीते जाते हैं।  

पल-पल छिन-छिन दिन जीवन के
रह रह बीते जाते हैं
पैबंद लगा कर घावों को
रह रह सीते जाते हैं।

बीच भँवर में तूफानों के
जीवन कितनी बार फँसा
हर बार नए अंकुर फूटे
जीवन ये हर बार हँसा।

तोड़ भँवर की जंजीरों को
जीवन बढ़ते जाते हैं
पल-पल छिन-छिन दिन जीवन के
रह रह बीते जाते हैं।।

जो भटका राहों से अपनी
उसने सब कुछ खोया है
बिखरा जो इक बार यहां पर
फूट फूट कर रोया है।

दृढ़ता से जो डटा यहां पर
उम्मीदों को पाते हैं
पल-पल छिन-छिन दिन जीवन के
रह रह बीते जाते हैं।

अपनी हिम्मत औ ताकत से
आगे बढ़ते जाना तुम
अपने किस्मत की रेखों को
खुद से गढ़ते जाना तुम।

तपा आग में जितना जो भी
सूरज को छू पाते हैं
पल-पल छिन-छिन दिन जीवन के
रह रह बीते जाते हैं।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      22सितंबर,2020

बसा ले मुझको।

बसा ले मुझको।    

अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझको
अपनी पलकों के दरीचों में छुपा ले मुझको।

मैं कोई ख्वाब नहीं जो विखर जाऊंगा
दिल चाहे तेरा जब भी बुला ले मुझको।

तेरे गीतों तेरे नज्मों की गुजारिश हूँ मैं
अपने गजलों के मिसरों में बसा ले मुझको।

तेरी खामोशियाँ भी खिलखिला उठेंगी यहीं
अपने अधरों पे इकबार सजा ले मुझको।

बाद मुद्दत के जिंदगी महकी है "अजय"
अपना हमदम, हमराह बना ले मुझको।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       21सितंबर,2020

जाना है कहाँ।


           जाना है कहाँ।                 

मैं सजा दूंगा तेरी राहों को, जहां जाओगे
अब तुम ही कहो कुछ कि जाना है कहाँ।

तुमसे हो करके शुरू तुम पे ही खत्म होती है
मेरी चाहत का कोई और फसाना है कहाँ।

लोग कहते हैं कि अंधा हूँ तेरी चाहत में
ढूंढ के देख लो मुझसा दीवाना है कहाँ।

तू ही मंजिल है मेरी, तू ही जुस्तजू मेरी
तेरी बाहों के सिवा मेरा ठिकाना है कहाँ।

चाहत यही अब बाहों में तेरी फ़ना हो जाऊं
तुझमें खोने का इससे बेहतर बहाना है कहाँ।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      21सितंबर,2020

बाकी है।

बाकी है            

बहुत खामोशियाँ पसरी
अभी क्या बात बाकी है
दिलों के दरमियाँ शायद
कहीं कुछ बात बाकी है।

ये तेरी मौन आवाज़ें
हमेशा बात करती हैं
यूँ लगता है तेरे दिल मे
अभी जज्बात बाकी है।

इन आँखों की जुगलबंदी
इशारे और करते हैं
लगता है के इस दिल में
कोई तूफान बाकी है।

लरजते होठ ये तेरे
कहानी और कहते हैं
अब तुम्ही कहो कुछ कि
अभी तो रात बाकी है।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
     19सितंबर,2020

संगीत भर दिया।

    संगीत भर दिया।  

एक नुपुर की छम ने देखो
आरंभ जीवन कर दिया
शांत हिय में प्रेम पावन
का भाव प्रस्फुटन कर दिया।

हिय में एक हूक जागी
स्वर रागिनी बजने लगी
मुक्तकंठ ने गीत साजे
नव कोंपलें खिलने लगी।

आज आलिंगन ने तेरे
नवगीत मुझमें भर दिया
थिरकन लगे खुद पाँव मेरे
संगीत मुझमें भर दिया।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
     19सितंबर,2020

टूटे दिल की पीड़ा।

टूटे दिल की पीड़ा।   


टूटे दिल की सुनो कहानी
तुमको आज सुनाता हूँ
विखर रहे जज्बातों के
गीत यहां मैं गाता हूँ।

दूर देश की सीमाओं में
छोटा सा दिल रहता था
प्रेम-प्यार विश्वासों के
वो सपने देखा करता था।

रिश्तों की गोदी में पलकर
गीत खुशी के गाता रहता
एक रुप सब देखा करता
सबसे प्रीत निभाता रहता।

कितनी ही बातों को उसने
अपने अंदर पाया था
आरोप कभी, कभी शिकायत
के सारे भाव छुपाया था।

जब तक वो चुपचाप रहा
सारे खुश खुश रहते थे
पर उसके मन की पीड़ा को
कितने लोग समझते थे।

उसकी गुपचुप पीड़ा को
मैं आज तुम्हें दिखाता हूँ।
बिखर रहे जज्बातों के
गीत यहां मैं गाता हूँ।।

इक दिन दिल ने पूछा सबसे
हुई कहां है गलती उससे
उसने तो बस प्रेम किया, पर
भाव नहीं छुपाया किसी से।

सबको एक बराबर माना
नहीं किसी को दूजा जाना
हर गलती का प्रतिकार किया
ना अपना, न पराया माना।

घावों को बढ़ने से पहले
उसने उसे मिटाया है
नासूर नहीं बनने पाए
उसने धरम निभाया है।

सच से अगर सजा मिलती है
कौन यहां फिर सच बोलेगा
हर घर मे इक टीस उठेगी
हर घर में फिर दिल टूटेगा।

घायल दिल के घावों का
उपचार कभी क्या हो पायेगा
गर सच से अवरोध हुआ तो
झूठ यहां आश्रय पायेगा।

फिर वो दिन कब आएगा 
दिल का मरम समझ पायेगा
जब सच को सम्मान मिलेगा
टूटेगा, पर मुस्कायेगा।

टूटे दिल की इस इच्छा को
सबको आज सुनाता हूँ।
बिखर चुके जज्बातों के
गीत बनाकर गाता हूँ।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
    हैदराबाद
    18सितंबर,2020

लम्हे कब आएंगे।



लम्हे कब आएंगे।     

लड़कपन के वो बीते दिन
ना जाने फिर कब आएंगे
गुजारे साथ  जो लम्हे
ना जाने कब फिर आएंँगे

अवसादों से घिरा  है गगन 
दर्द में जकड़ा आज चमन 
इससे छुटकारे की खातिर
मलहम कब मिल पाएंँगे।
लड़कपने के वो बीते दिन
ना जाने कब फिर आएंँगे

चिट्ठी, पत्री, खत, किताबत  
में हम कितना कुछ कहते थे
रहते बेशक दूर बहुत
पर साथ दिलों में रहते थे
साथ-साथ चलते हैं अब भी
पास मगर कब आएंँगे।
लड़कपने के वो बीते दिन
ना जाने कब फिर आएंँगे।।

झुलस रहे हैं रिश्ते सारे
स्वार्थ भरे लू की लपटों से
बिखर रहा है जीवन देखो
निज आरोपों औ रपटों से
हृदय द्रवित हो पूछ रहा है
इससे बदतर क्या पाएंँगे।
लड़कपने के वो बीते दिन
ना जाने कब फिर आएंँगे

ऐसे अवसादों से बाहर
निकल कभी क्या पाएंँगे
मिल बैठेंगे साथ कभी क्या
राग मिलन का गा पाएंँगे।
जब फैलेगी मधुर रागिनी
फिर नव गीत सजायेंगे
कभी सुनेंगे गीत तुम्हारे
और कभी हम खुद गाएंँगे
लड़कपने के वो बीते दिन
ना जाने कब फिर आएंगे
संग गुजारेंगे जो लम्हे
ना जाने कब फिर आएंँगे।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17सितंबर,2020

मैं लोकतंत्र बोल रहा हूँ।

मैं लोकतंत्र बोल रहा हूँ।   

मैं दुनिया का लोकतंत्र हूँ
तुम सबसे कुछ बोल रहा हूँ
ध्यान से सुनना बातें मेरी
जिह्वा अपनी खोल रहा हूँ।

सालों से मुंह बंद किये
कितना कुछ मैंने देखा है
कितने ही आघातों को
बरसों से मैंने झेला है।

राजनीति के इस दंगल में
मुझको यूँ लाकर पटका है
सत्ता की खातिर कितनों ने
दिया मुझे भी झटका है।

सदियों से जिसने जब चाहा
तब मुझको पुचकारा है
और कभी दरवाजे पर से
ही मुझको दुत्कारा है।

कभी गुलामी की जंजीरों में
आजादी मैंने खोया है
और कभी आपातकाल में
जेलों में भी रोया है।

कभी थैयानमैन चौक पर मैंने
सरे आम चीत्कार किया
और कभी बर्मा ने मुझको
चौखट से फटकार दिया।

मेरी कीमत वो क्या जानें
जो आत्ममुग्धता में जीते हैं
अपने सपनों की खातिर
औरों के सपने पीते हैं।

मैं हर शोषित पीड़ित की बन
आवाज यहां पर गाता हूँ
नैतिकता के प्रतिमानों की
बदलाव यहां पर लाता हूँ।

दुनिया भर के मजदूरों का
गीत यहां मैं गाता हूँ
सभी किसानों के सुर में
अपनी आवाज़ मिलाता हूँ।

मैं प्रेमचंद के लेखों में बसता
भारतेंदु के नाटक में रचता
लोहिया के सपनों में जिंदा
जयप्रकाश बन हँसता हूँ।

मैं गांधी का रामराज्य हूँ
मैं सुभाष जैसा नायक हूँ
मैं माटी की खुशबू में बस
जन गण मन का गायक हूँ।

दुनिया के देशों में जब भी
घना अँधेरा छायेगा
नहीं कहीं कुछ राह बचेगी
तब जनतंत्र काम आएगा।

मैं अभिव्यक्ति की आजादी हूँ
उसके ही गीत सुनाता हूँ
सामाजिक कल्याण के लिए
बदलाव नया ले आता हूँ।

मैं जनता के द्वारा शासित
जनता का ही शासन हूँ
मैं आत्मा की अभिव्यक्ति हूँ
मैं जीवन का अनुशासन हूँ।

सबके मन के भावों को 
मैं अपने मुख से बोल रहा हूँ
ध्यान से सुनना बातें मेरी
जिह्वा अपनी खोल रहा हूँ।

मैं दुनिया का लोकतंत्र हूँ
तुम सबसे कुछ बोल रहा हूँ
मैं दुनिया का लोकतंत्र हूँ
तुम सबसे कुछ बोल रहा हूँ।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
     हैदराबाद
     15सितंबर,2020

सूरज और जनता।

सूरज और जनता।   


आपन ताप छोड़ि के सूरज
लागत हौ मुरझाइल बा
लोभ, मोह, हित, लाभ म परिकर 
लागत हौ अरुझाइल बा।

भोर से लेइके रात ले देखा
मनवा में एक्कई बात चले
कइसे बनिहे जुगाड़ कतहुँ भी
कइसे अब घर दुआर चले।

बिखरल लागत सबहि भावना
सब इच्छा अनुमान भयल
चिक्कन चुप्पड़ बातन में जइसे
जिनगी भी अनुपात भयल।

देखि देखि के सपना सुघ्घर
आँखिन में अब दर्द भयल
बूँद-बूँद से होइ का जब
ओहमन मोतियाबिंद भयल।

आसमान भी गमछा बान्हे
लागत जइसन चिढावत बा
दिखाई के लालीपाप हाथ मे
लागत जइसे ललचावत बा।

कइसन काल चलल बा एहिजा
जिनगी सब हलकान भयल
शीशा दिखाइब अब सूरज के
सूरज के अपमान भयल।

अपने अधिकारन के खातिर
सब केहू परेशान भयल
जिम्मेदारी के चर्चा ओनसे
ओनकर ही अपमान भयल।

देखि के खबरन में नौटंकी
सब केहू बहलाइल बा
सूरज भी करिया बादर में
लागत हौ अरुझाइल बा।

जनतंत्र में जनता ही सब
बातन के जिम्मेदार हौ
अच्छा बुरा जो भी होई
सबमें वो भी हिस्सेदार हौ।

जनतन भाव बहुत हौ सुंदर
जनता हौ सूरज कै भांति
इनके बिन कबहु भोर न होई
कबहु न फैली जीवन ज्योति।

बनकर के जनतन के सारथी
जीवन के गुणगान करा
उनकर मन के भाव के समझा
ओकर ही सम्मान करा।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      13सितंबर,2020

हिंदी भारत की भाषा।

हिंदी भारत की भाषा।

हिंदी भारत की भाषा है
हिंदी ही हिंदुस्तान है।
हर भाषा से प्रेम सिखाती
सर्वोत्तम इसका स्थान है।

आदिकाल से हिंदी ने
जन जन में प्रेम जगाया है
संपर्क बनी जन मानस की
हर दिल में भाव जगाया है।

तुलसी, सूर, कबीर, रसखान
सबने हिंदी को अपनाया है
अपनी रचनाओं से सारे
जग में प्रकाश फैलाया है।

बिहारी, केशव, मीरा ने भी
हिंदी को अपनाया है
अपने भक्ति के गीतों से
प्रेम भाव समझाया है।

युगों युगों से लड़ती आयी
कितने ही तूफानों से
अटल अकंटक डटी रही
कैसे भी अंजामों से।

सब धर्मों औ ग्रंथों का
हिंदी से भाई चारा है
सबने इसको है अपनाया
औ इसको ही स्वीकारा है।

हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई
सबसे इसका नाता है
इसको सारे ही भाते हैं
सब इसको अपनाते हैं।

आओ इसका सम्मान करें
ये भारत की भाषा है
हिंदी है अभिमान हमारा
ये भारत की अभिलाषा है।


✍️©️अजय कुमार पाण्डेय

       हैदराबाद

       13सितंबर,2020

रात का अंतिम पहर।

रात का अंतिम पहर।

वक्त से कुछ बोलकर
मोह सारे छोड़कर
चल पड़ी है इक डगर
रात का अंतिम सफर।

शून्यता को ताकती
मौन मन को भाँपती
ताकती है इक नजर
रात का अंतिम पहर।

तड़प सारे तोड़कर
भँवर सारे मोड़कर
शांति तलाशती लहर
रात का अंतिम पहर।

द्वार सारे बंद हैं
शोर भी अब मंद हैं
मंद है चलता शहर
रात का अंतिम सफर।

मुक्तिकामी चेतना
मौन मन की वेदना
ढूंढती है इक डगर
रात का अंतिम सफर।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13सितंबर,2020

रोटी की चाहत।

रोटी की चाहत।  

जीवन का मर्म है क्या बस
उसने ही तो जाना है
रोटी की कीमत जिसने
हर पल ही पहचाना है।

भूख, गरीबी और कुपोषण
उसने ही है जान लिया
बचपन में जिसने माँ की
सूखी छाती पहचान लिया।

माथे की गिरती बूंदों ने
दृश्य नया दिखलाया है
जीवन की मौलिक चाहत का
मर्म सभी को समझाया है।

गर्मी, सर्दी, बरसातें हों या
आंधी, तूफानों का मौसम
भूख गरीबी के आगे
नहीं टिका कोई बंधन।

रोटी की कीमत क्या होती
उस जीवन से पूछो तुम
गिरता जिसका खून पसीना
तब चूल्हा जल पाता है।

जिम्मेदारी की गठरी ले
हरपल वो चलता जाता है
रोटी की छांव मिले जब
तब ही जीवन मुस्काता है।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        10सितंबर,2020

जनमत के सरोकार।

जनमत के सरोकार। 

आज भूमिका बदल रही है
जन जन के व्यवहारों की
बदल रही है आज व्यवस्था
ताकत औ सरोकारों की।

चमक दमक के पीछे पड़कर
देखो सारे भाग रहे
कितने देखो लोग बचे जो
व्यवहारों में जाग रहे।

लोकतंत्र के मंदिर में भी
ऐसे भी हैं लोग बसे
कुछ बातें करते जनहित की
और कुछ अपनी जिद पे ठसे।

लोकतंत्र का चौथा खंभा 
भी कुछ कुछ बहलाता है
ले जाना होता और कहीं
और कहीं ले जाता है।

मूल भूत सुविधाओं की
बातें जैसे बेमानी हैं
भूख, गरीबी और चिकित्सा
मुद्दों की गुमनामी है।

बेरोजगारी की बातें अब
यहां नहीं कोई करता
फिल्मी संवादों से केवल
जनता का पेट नहीं भरता।

राष्ट्र संपन्न रहता तब ही
जब जनता जिम्मेदार बने
जिम्मेदारी तब आती है
सभी को जब रोजगार रहे।

सुविधाओं के वादे झांसे
बदलाव नहीं ये ला सकते
इनसे जनता स्वार्थी होगी
विश्वास नहीं ये ला सकते।

सत्ता लोलुपता ने जाने 
क्या क्या खेल रचाया है
आज़ादी से अब तक कितनी
उँगली पे रंग लगाया है।

उँगली की स्याही से केवल
जनमत नहीं कभी जागेगा
भूख, अशिक्षा औ गरीबी
मिटने से ही ये जागेगा।

जनतंत्र का विकल्प कभी भी
पूंजीवाद ना हो पायेगा
लोकतंत्र बस धूमिल होगा
हाथ नहीं कुछ भी आएगा।

कहने को तो जातिवाद का
विरोध यहां सभी करते हैं
पर वोटों की खातिर सारे
जाति-धरम लेकर चलते हैं।

मंचों की बातों से केवल
बदलाव नहीं कुछ आएगा
साथ, विकास, विश्वास ही बस
जनमत सुफल बना पायेगा।।

 
 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       09सितंबर,2020

प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

 प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें एक दूजे को हम इतना अधिकार दें, के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें। एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं, ...