दहेज-एक अभिशाप।
अभी और जलेंगी बेटियाँ
कब तक सजेगा बाजार औ
रिश्तों की लगेंगी बोलियां।
इक कोख से जन्में सभी
क्या बेटे और क्या बेटियाँ
फिर भी जमाने मे खटकती
क्यों आज भी हैं बेटियाँ।
यूँ तो नारों से है गुंजित
यहां सारा पारावार है
दुल्हन ही दहेज है, से
गूंजे सकल संसार है।
जब भाव इतने नेक हैं
सिसकती क्यूँ हैं बेटियां
दहेज के दावानल में कितनी
अभी और जलेंगी बेटियाँ।
कैसा मुखौटा ओढ़ करके
अब भी सो रहा संसार है
भेद कर रहा है सृष्टि में
कैसा यहां व्यवहार है।
बिक गए हैं खेत कितने
और बिकी हैं कितनी जिंदगी
बिक गयी पगड़ी कहीं पर
और बिकी कहीं पर बंदगी।
स्वार्थ औ लालच में कबतक
पिसती रहेंगी बेटियाँ।
दहेज के दावानल में कितनी
अभी और जलेंगी बेटियाँ।
बेटियों से संसार रचता
इनसे ही घर-द्वार सजता
गूंजती किलकारियां हैं
सभ्यता औ प्यार बसता।
इनके अपमानों से अब तो
रो रही हैं सारी सृष्टियाँ।
दहेज के दावानल में कितनी
अभी और जलेंगी बेटीयाँ।।
✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
21अक्टूबर,2020
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