राष्ट्रनीति के भाव जगाओ।

राष्ट्रनीति के भाव जगाओ।

मूक भाव से सब बैठे हैं
देखो सारे लोग यहां
बाट जोहते इक दूजे की
कैसे करें विरोध यहां।

कहीं पे लुटती मर्यादा है
और कहीं सम्मान लुटा
बात हलक से निकले कैसे
लगता सब है घुटा घुटा।

गिद्ध दृष्टि डाले बैठे हैं
आस पास की घटनाओं पर
कोण ढूढते जाति धर्म का
घटती सारी घटनाओं पर।

कहीं टीआरपी की झक झक
तो कहीं वोट की चिंता है
जैसे सारी घटनाओं में
बस वोट बैंक ही दिखता है।

जनता पर लाखों पहरे हैं
पर इनको कोई बोले कैसे
ये जो चाहे कुछ भी बोलें
इनको कोई रोके कैसे।

गिरती शुचिता राजनीति की
भारत को तड़पाती है
विश्व गुरु के सपनों को
कुटिल हो मुंह चिढ़ाती है।

साथ, विकास, विश्वास की बातें
सब बेमानी हो जाती हैं
लोकतंत्र के मंदिर में जब
सुविधा हावी हो जाती है।

लोकतंत्र का चौथा खंभा
बिखरा बिखरा लगता है
अपनी रेटिंग की खातिर
भटका भटका लगता है।

चाटुकारिता से कोई जब
सम्मान यहां पर पाता है
तब किसी मेहनतकश के
हिस्से की रोटी खाता है।

भारत भी हलकान हो चला
सुविधाभोगी लोगों से
सरोकार सब दूषित होते
उल्टे सीधे सोचों से।

गांधी जी के तीनों बंदर
क्या लोकतंत्र के प्रहरी हैं
आंख, कान, मुंह बंद किये सब
देखो सारे शहरी हैं।

चंद स्वार्थी लोगों से
जीवन ये हलकान हुआ
शुचिता गिरी राजनीति की
लोकतंत्र बदनाम हुआ।

आज यहां जो मौन रहोगे
लोकतंत्र दुःख पायेगा
दर्पण देखेगा जब भी
खुद पर वो शर्माएगा।

दिनकर जी ने कभी कहा था
लेकर अपनी गहरी श्वास
जो तटस्थ हैं आज यहां पर
समय लिखेगा उनका इतिहास।

इतिहासों से शिक्षा लेकर
वर्तमान का मान करो
राष्ट्रनीति के भाव जगाकर
नूतन भविष्य निर्माण करो।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       08अक्टूबर, 2020


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