नव निर्माण का स्वप्न।
अनचाहा विष पीना होगा
कब तक अवनी के घावों को
पैबंद लगा सीना होगा ।
कब तक अवनी की हरियाली
दया दृष्टि को तरसेगी
हलधर की आंखों से खुशियां
ना जाने कब बरसेंगी।
कब जाने उसके उद्द्यम का
मोल समझ सब पाएंगे
कब उसके घर की चिमनी से
खुशियों के बादल आएंगे।
कब दीवारों के सांकल से
नन्हें चेहरे मुस्काएँगे
कब हर घर के आंगन से
गीत सुने फिर जाएंगे।
कब जाने आधी आबादी
खुल कर के जी पाएगी
कब समुचित सम्मान मिलेगा
खुल कर वो मुस्कायेगी।
कब उसका सम्मान यहां पर
समुचित जीवन पायेगा
कब उसके सपनों का उपवन
खुल करके खिल पायेगा।
कब उसके अधिकार यहां पर
नजर सभी को आएंगे
कब उसके प्रति दायित्वों को
समझ यहां सब पाएंगे।
चाहे जितने महल बना लो
काम नहीं कुछ आएगा
दूजे के प्रति प्रेम भाव ही
जीवन सफल बना पायेगा।
महलों के दीपों का तब तक
कोई मोल नहीं होगा
जब तक झोंपड़ियों में उनसे
कोई कलोल नहीं होगा।
अब कितनी घटनाओं का
बोझ हमें सहना होगा
बहुत सह चुके हैं, अब बस
ये सबको कहना होगा।
मानवता की खातिर सबको
अब त्याग यहां करना होगा
उत्तिष्ठ भारत का प्रण सबको
स्वीकार यहां करना होगा।
सुंदर सुगठित व्यवहारों से
जीवन सबका खिल पायेगा
लोकतंत्र मजबूत बनेगा
भारत से भारत मिल पायेगा।।
✍️©अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
29सितंबर,2020
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