दिख रहा प्रभात है।
हो दिवस का भोर चाहे
या रात का अंतिम पहर
ब्रह्म का यदि बोध हो तो
संयत रहे चंचल लहर।
बोध हो या क्षोभ चाहे
भावनाओं का हो असर
चित्त में उन्माद हो तो
व्यर्थ सारे हैं अवसर।
शांत चित्त है हृदय जहां पर
विलग है रहती वेदना
करती प्रभावित रूप को
हर मुक्तिकामी चेतना।
स्वप्न जब तक नेत्र में है
पौरुष ही बस अभिप्राय है
मार्ग कितना भी जटिल हो
पुरुषत्व ही अध्याय है।
कर्मभूमि में खड़े हो अब
ना तुम डरो आघात से
है रात का अंतिम पहर ये
चलो के दिख रहा प्रभात है।।
✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
10अक्टूबर,2020
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