स्थिर बनकर के रहना है।

स्थिर बनकर के रहना है।

जीवन की कितनी इच्छाएं
मचल मचल फिर आती हैं
चाहे जितना यत्न करें हम
फिर भी सब कह जाती हैं।

विकल भाव हैं दुग्ध की तरह
मिलते ही अकुलाते हैं
जरा पड़ी जो आंच कहीं तो
फेनिल बन बह जाते हैं।

है मृदुल सरल जीवन इनका
सहज भाव कह जाते हैं
नहीं शिकायत करते कुछ भी
चुपचाप मगर बह जाते हैं।

संबंधों की ऊष्मा सारी
जीवन इनको देती है
आंच कभी यदि तेज हुई तो
सब खंडित कर देती है।

अपनेपन की विकल भावना
हँस कर के कह जाते हैं
आंच मगर जो तेज हुई तो 
फेनिल बन बह जाते हैं।

पर पानी की कुछ बूंदों से
शीतल ये हो जाते हैं
फेनिल कितना भी फैला हो
शांत शिथिल हो जाते हैं।

यहां दूध औ पानी हमको
कितना कुछ समझाते हैं
जीवन औ रिश्तों पर कितना 
ज्ञान हमें दे जाते हैं।

जनम मरण का खेल सभी को
हँस हँस कर पूरा करना है
बन जाना है पानी जैसा
स्थिर बनकर के रहना है।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       07अक्टूबर,2020



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