चैन।

                 चैन।          

बादल से बिछड़ी बूंदें पुनः कहां मिल पाती हैं
पवन बहाए जहां कहीं उसी ओर वो जाती हैं।।

जो सागर में गिरती हैं तो पुलकित हो खिल जाती हैं
विशाल हृदय सागर का पाकर उसमें ही मिल जाती हैं।।

जो गिरती हैं धरती पर तो मिट्टी की हो जाती हैं
खो करके अपना जीवन कोंपल नई खिलाती हैं।।

संगत का है असर सभी जो कितना कुछ दे जाते हैं
अच्छा मिले जीवन खिलता, बुरा मिले खो जाते हैं।

जैसा साथ जिसे मिलता है वैसा ही फिर वो चलता है 
जिसको मिलती संगत जैसी उसमें ही वो पलता है।।

अपने धर्म मूल संस्कृति से जो बिछड़े पछताते हैं
गिरते हैं जो स्वार्थ सतह पर टुकड़ों में बंट जाते हैं।।

बिछड़ के अपने मूल से कोई अर्थ नहीं रह जाता है
भटका जीवन विस्मृत रहता चैन नहीं फिर पाता है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      08अक्टूबर,2020

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