रोटी की चाहत।
जीवन का मर्म है क्या बस
उसने ही तो जाना है
रोटी की कीमत जिसने
हर पल ही पहचाना है।
भूख, गरीबी और कुपोषण
उसने ही है जान लिया
बचपन में जिसने माँ की
सूखी छाती पहचान लिया।
माथे की गिरती बूंदों ने
दृश्य नया दिखलाया है
जीवन की मौलिक चाहत का
मर्म सभी को समझाया है।
गर्मी, सर्दी, बरसातें हों या
आंधी, तूफानों का मौसम
भूख गरीबी के आगे
नहीं टिका कोई बंधन।
रोटी की कीमत क्या होती
उस जीवन से पूछो तुम
गिरता जिसका खून पसीना
तब चूल्हा जल पाता है।
जिम्मेदारी की गठरी ले
हरपल वो चलता जाता है
रोटी की छांव मिले जब
तब ही जीवन मुस्काता है।
✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
10सितंबर,2020
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