इंतजार-आखिर कब तक।

      इंतजार-आखिर कब तक।  

मोमबत्ती हाथ में लेकर चले सब एक दिन
इक दर्द के साथ हम सब चले थे एक दिन
अनगिनत चेहरे दुखे थे,दर्द पारावार था
इक नए प्रारंभ का सब स्वप्न पाले एक दिन।

एक स्वर बस गूंज रहा था इस सकल ब्रम्हांड में
यूँ लगा अब सृष्टि बदलेगी सकल ब्रम्हांड में
आंधियों में जोर था वो लौ भी शायद बुझ गयी
सिसकियां बस रह गयी शायद सकल ब्रम्हांड में।

हैवानियत क्या इस कदर हावी हुए अब जा रही
इंसान की इंसानियत पराजित हुए क्यूँ जा रही
है ये किसका दोष, आरोप अब किस पर मढ़ें
क्यूँ कर ये चेतना अब सुप्त होती जा रही।

स्तब्ध है अवनी यहां, स्तब्ध अंबर आज है
जाने कैसा आज ये फैला अडंबर आज है
बूँद बादल की भी ना जाने कहाँ अब खो गयी
ढूंढता है रास्ता दिनकर भी यहां अब आज है।

शर्म से शायद दिनकर भी यहां क्या छुप गया
क्षोभ से भरकर के शायद स्वयं क्या वो रुक गया
कौन अब उसको बुलाये इस घने अंधकार में
सूर्य का भी तेज शायद शर्म से अब झुक गया।

और कितनी देर है सारा गगन है पूछता
न्याय की आवाज से सारा चमन है गूंजता
न्याय से ही मात्र अब अवसाद शायद न रुके
जाने क्यों इस धरा को ना राह कोई सूझता।

आओ सब मिल यहां अन्याय का प्रतिकार करें
हो सुरक्षित ये धरा प्रण आज ये स्वीकार करें
वर्ना कहीं ना देर हो जाये यही इंतजार में
अब कृष्ण फिर ना आएंगे इस विकल संसार मे।

जगत जननी की रक्षा का प्रण आज करना होगा
सभ्यता औ असभ्यता से एक अब चुनना होगा
वरना विकल हो सृष्टि जब आपे से बाहर जाएगी
ना मिलेगा रास्ता,  शून्य सब हो जाएगा।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
     हैदराबाद
     30सितंबर,2020


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